रविवार, 24 दिसंबर 2017

||तुम और हम||

पेड़ कटवाकर,
तुमने उजाड़े वन.
बनाए ऊँचे-ऊँचे,
आलीशान भवन.

गाड़ी है-पत्नी है,
अकूत धन है.
कितना सुखद,
तुम्हारा जीवन है.

अस्पताल,पाठशाला,
सड़क,बिजली,पानी.
नहीं तनिक भी,
तुमको परेशानी.

ऊँचे ओहदेदारों तक,
है तुम्हारी पकड़.
होगी ही थोड़ी बहुत,
पैसे की अकड़.

हम रहते हैं,
घास-फूस की झोपड़ी में.
दुर्भाव नहीं किसी के प्रति,
अपनी खोपड़ी में.

भले भूमि पर,
सोते हैं.
कठिन परिस्थितियों में भी,
हम नहीं रोते हैं.

बासी भात खाते हैं,
मड़िया का पेज पीते हैं.
हैं निर्धन कृषक पर,
राजा सा जीवन जीते हैं.

अपने पूर्वजों की,
महान परंपराओं को नहीं तोड़ा.
माँ-बाप को हमने,
वृद्धाश्रमों में नहीं छोड़ा.

आता हमें बस,
सच्चाई के मार्ग पर चलना.
समझके भोला और दुर्बल,
हमें तुम न छलना.

जनाब हम तुमसे,
थोड़े भी अलग नहीं हैं.
रहन-सहन हो भिन्न भले पर,
सबके भीतर परमात्मा तो वही है.

कोई चालाकी,किसी की शानोशौकत,
ये किसी काम नहीं आएँगे.
हो राजा,या हो रंक कोई,
सब चार कंधों पर ही जाएँगे.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||तुम बिन||

तुम बिन मेरा जीवन,
हो गया अब सूना.
सतत बहते हैं आँसू,
जैसे गंगा-यमुना.
लगता है जाना था कोलकाता
और,
पहुँच गया मैं पूना.
हर दिन दुख मेरा,
हो रहा दूना.
बगैर तेरे जान ही न रही बदन में,
ये रह गया केवल नमूना.
काश कि रहता मैं अपनी औकात में,
चाहा क्यूँ आसमान को छूना?

||नी भुलका माय बाप के||

कितरोय हार हुनमन,
देव धामी के मनाला.
तेब जाउन तुमके,
सनसार ने जनमाला.

बेमार बेरा  दवइ करला,
सूजी दियाला.
अछा रहो बेटा बलुन,
रोजे गोरस पियाला.

कपड़ा-लत्ता,इस्नू-पावडर ने,
तुके सजाला.
रहुन आपुन अनपड़,
तुके इसकूल पठाला.

आया पाउन तुके जाए खमना ने,
चार-टेमरु,पान-दतुन जुहाउक.
आउर घरे भूती करे,
तुके पेट भर खोआउक.

बाबा संगे गेला,
दुनो गोदी कोड़ुक.
मसागत करला खुबे,
एकेक पयसा जोड़ुक.

महु बेचतो,भाजी टुटातो बेरा,
हुन तुके पाट बाट ओराए.
दखुन तुचो मुचकी हाँसी,
हुनचो दुख डंड पराए.

हाट जाउन आने तुचो काज,
लाई-चन्ना,आलू भजिया,पीता कांदा.
हुनी जाने कि कसन हाल ने  चुड़े,
घरे दूय टइम चो रांधा.

बाबा जाए धरुन कोड़की,
फेकुकलाय बेड़ा ने माटी.
तीती-तीती नाँगर फाँदे,
बाजे बैला टोडरा चो घाटी

हुन तुके आपलो,
कांध ने बसालो.
नाट-मंडई,जत्रा,
दसराहा दखालो.

हुनमन दिला,
तुचो उपरे धियान.
तेबे पावलिस तुय,
आज खिंडिक बले गियान.

मंदिर नी जा,पूजा नी कर,
नी कर तुय काकेय दान.
आया-बूबा चो सेवा कर,
हुनि आत तुचो भगवान.

धन कमउन-बायले पाउन,
तुमि नी भुलका माय-बाप के.
हुन मन चो जीव के दुखउन,
नी जुहावा ना तुमि पाप के.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||तुम हो कौन?||

बसे हिय में,
तुम रहकर मौन.
न कहा कभी,
तुम हो कौन?

मेरा नहीं तुम पर,
तनिक भी अधिकार.
फिर भी आता है क्यों?
मन में तुम्हारा विचार.

तेरे स्मरण मात्र से,
मुझे सर्वस्व मिल जाता है.
मुरझाया पौध जैसे,
जल पाकर खिल जाता है.

देता मन को चरम शांति,
तुम्हारा सुनहरा रूप.
जैसे शरद ऋतु में खिली हो,
मद्धम-मखमली  धूप.

कहाँ-कहाँ नहीं खोजा तुम्हें,
नाप लिया धरा-नभ का वितान.
न मिले तुम कहीं,
है अपूर्ण अब तक मेरा संधान.

तुम हो दूर मुझसे फिर भी,
छाया है मुझ पर ऐसा नशा.
कभी हम यदि मिल गए कहीं,
तो जाने कैसी होगी मेरी दशा.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||मेघ धन्य तुम्हारा जीवन||

वन्दन हे काले-काले घन.
कि है धन्य तुम्हारा जीवन.

जब आकाश में घने,
बादल जा जाते हैं.
श्रमरत कृषक-मजदूर,
उनसे विश्रांति पाते हैं.

तुमसे ही तो है,
लोगों के मुख पर प्रसन्नता.
न बरसो तुम यदि,
तो पैर पसारती है विपन्नता.

कर्ज में डूबे कृषकों की,
केवल तुम हो एक आस.
मेघों की कृपा बरसेगी,
है उनको ये दृढ़ विश्वास.

हो जल से भरे,
किन्तु हो बिल्कुल हलके.
परहितार्थ आ जाते हो,
बड़ी दूर से तुम चलके.

शुष्क निर्झर भी तुमसे ही,
पाती है वर्षाजल.
खुश होकर गा उठती वो,
करती हुई कल-कल.

पाकर तुमसे केवल,
एक-एक जल बिंदु.
हो जाता तुमसे उपकृत,
नील विशाल सिंधु.

जलद,तुम्हारे भीतर,
है परहित का भाव भरा.
तुमसे ही है,
हरित-सुशोभित ये धरा.

तुम बरसते हो ताकि सबके,
दुख-दारिद्र का निवारण हो.
मेघ तुम जगवासियों की,
सुख-समृद्धि का कारण हो.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||मैं प्रकृतिपुत्र||

ये नीलाकाश पिता मेरा,
और हरित वसुंधरा मेरी माता है.
मात-पिता के अंक में,
मेरा हृदय अतीव सुख पाता है.

ऊपर जाती है,
जब-जब मेरी दृष्टि.
लगता ज्यों हो रही हो,
मुझ पर पितृस्नेह की वृष्टि.

नभ पर बनते हैं प्रतिपल,
बादलों के सुन्दर आकार.
है सत्य कि प्रकृति से बढ़कर,
नहीं और कोई कलाकार.

जब जीव सारे जग के,
भूख-प्यास से तरसते हैं.
तब जल का रूप लेकर,
मेघ धरती पर बरसते हैं.

संग लेकर अपने सहस्रों रंग,
रवि साँझ-सबेरे आता है.
गगन पटल पर नित्य वो,
रंग-बिरंगे चित्र बनाता है.

अपने पुत्रों को धरा ने,
कई तरह का उपहार दिया है.
उसनेे अपने गर्भ में,
अमूल्य वस्तुओं को धारण किया है.

धरती माँ के वक्ष पर जब,
किसान का हल चलता है.
उसके श्रम से द्रवित होकर,
मिट्टी सोना उगलता है.

न रुकना-थकना तुम कभी,
सबसे सरिता कहती है.
सबके हित के लिए वो,
कल-कल करती बहती है.

यहाँ विविधरंगी सुमन खिलते,
मधुर मधुकर-विहगों का गायन.
देख ऐसी अनुपम शोभा,
क्यूँ करे कोई,यहाँ से पलायन?

विशाल वृक्ष भी खड़े चुपचाप,
किसी से कुछ नहीं कहते हैं.
पर रहकर भी वे मौन सदा,
परहित कार्यरत रहते हैं.

है धन्य उस मनुज का जीवन जो,
प्राकृतिक सुषमा का संसर्ग पाता है.
है गर्व मुझे कि इस धरती से,
मेरा जनम-जनम का नाता है.

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"

||भारत के विकास का सच||

आज हम पहली बार किरन्दुल शहर से बाहर अंदरूनी गाँवों में गये.मेरे साथ थे शासकीय अरविन्द महाविद्यालय के अर्थशास्त्र विषय के अतिथि प्राध्यापक डॉ. प्रभात पाण्डेय.

पहाड़ के उस पार गाँव का इलाका शुरू होते ही मुरम-गिट्टी व कीचड़ युक्त सड़क दिखे.
लगभग 1-2 कि.मी.आगे जाने पर एक प्राथमिक शाला दिखी.जहाँ एक शिक्षिका और कुछ बच्चे स्कूली यूनीफॉर्म में नजर आए.

रास्ता सुनसान मगर प्राकृतिक सौंदर्य से भरा पड़ा था.सड़क के किनारे खड़े पेडों की सुंदरता और पहाड़ियों से बहकर आती जलधाराओं की कल- कल ध्वनि भी बहुत आह्लादक थी.दो-चार घर मिल जाते थे,समझो वही गाँव है.कुछ महिलाएँ सड़क पर चलती दिखीं.कुछ व्यक्ति सड़क पर झूमते हुए भी चल रहे थे.

रास्ते में एक जगह एकदम सीधा चढ़ाव था,जिस पर चढ़ते हुए दोनों ओर पेड़ों की हरियाली देखना बहुत रोमांचकारी अनुभव था.
आगे  एक गाँव है मड़कामी पारा,जहाँ हाई स्कूल है,साथ ही स्कूली छात्रों के लिए एक छात्रावास भी है.

और आगे जाने पर गाँव मिला हिरोली.जहाँ दो शिक्षिकाएँ बच्चों को मध्यान्ह भोजन करवा रही थीं.उनका रसोइया न होने के कारण उन्होंने खुद भोजन बनाया था.उन्होंने बताया कि यहाँ बच्चों को स्कूल तक लाना बड़ा ही मुश्किल काम होता है-पालकों में जागरुकता का अभाव है-महुआ फूल बीनने के मौसम में तो बच्चों की संख्या और भी कम हो जाती है.हमने उनको-उनके जज़्बे को सलाम किया,वे इतने सुनसान जंगलों के बीच गाँवों में शिक्षा का अलख जगाने का साहसिक और दुष्कर कार्य जो कर रही हैं.
गाँवों के सभी शालाएँ बहुत ही सुन्दर और सुसज्जित नजर आए.

आते-आते कुछ और सुन्दर दृश्य दिखे.सेम की लताओं को सहारा देने के लिए लंबे-सीधे बाँस कतारबद्ध जमीन में गाड़े गए थे,जिस पर लिपटे हरे-भरे बेल नीले आसमान को छूने को आतुर और बहुत ही आकर्षक दिखाई दे रहे थे.गाँव के झोपड़ीनुमा घर यहाँ के लोगों की उपेक्षा और निर्धनता की कहानी कह रहे थे.

बाँस की बल्लियों और खंभों में बड़े ही कलात्मक तरीके से पिरोकर घर का घेराव किया गया था.जो बहुत ही सुन्दर प्रतीत हो रहा था.केले के पेड़ भी कुछ घरों की बाड़ियों में नजर आ रहे थे.

रास्ते में दो बच्चे हमें देखकर मुस्कराते हुए हाथ हिला रहे थे.उनके तन खुले हुए थे.वे दोनों आँगन में खेल रहे थे.शायद उनके माता-पिता घर पर नहीं थे.रुककर पास बुलाने पर निडरतापूर्वक वो मेरे पास आ गए.मैंने सोचा काश कि मेरे पास चॉकलेट होते.

वापस आते एक औरत की समाधिस्थल दिखाई दी.लम्बे-लम्बे पत्थरों को लगभग गोल घेरे में जमीन में गाड़कर खड़ा किया गया था.साथ ही एक पटल उस महिला का रंगीन चित्र,नाम व मृत्यु की तिथि भी अंकित किया गया था.संभवत: वो गाँव की एक सम्माननीय और प्रतिष्ठित महिला रही हो.यात्रा के दौरान दन्तेवाड़ा-किरन्दुल मार्ग पर भी ऐसे बहुत से पाषाण स्तंभ दिखाई दे जाते हैं.

घण्टे भर की यात्रा के वाद हम वापस किरन्दुल पहुँचा.पर लगा कि केवल एक घण्टे के सफर में मैं हजारों वर्ष पहले की दुनिया में पहुँच गया.न जाने और कितने गाँव होंगे जहाँ लोग दूषित पानी पीते होंगे,जहाँ की भर्भवती औरतें,वृद्ध,गंभीर रोगी आदि सड़कों की बदहाल स्थिति के चलते मृत्यु की गोद में सो जाते होंगे.जहाँ शहरों की चकाचौंध से दूर रातों को केवल सन्नाटा पसर जाता होगा.

कैसी विडम्बना है कि यहाँ से दिन रात लोहा ले जाकर भारत समृद्ध हो रहा है,और यहाँ के स्थानीय लोग आज तक केवल अपनी गरीबी और उपेक्षा से लोहा ले रहे हैं.

(ये विचार मेरे स्वयं के हैं.मेरे द्वारा जाने-अनजाने में किसी तरह की अपूर्ण या त्रुटियुक्त जानकारी लिखी गई हो तो मैं करबद्ध क्षमाप्रार्थी हूँ.)

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
       

||अवधरम चो बाट के नी धरा||

पाकलो केंश-सियान देंह,
कनिया हुन चो लोउन रहे.
जाए हाथ ने बड़गी टेकुन,
मुँडे लकड़ी भारा बोहुन रहे.

लकलका घाम ने,सहर चो,
डामर सड़क ने धिरे-धिरे जाए.
लकड़ी धरा-लकड़ी धरा बलुन,
हुन बिचारी फेर-फेर चिचयाए.

सबाय घरे गेस आजिकाल,
लकड़ी कोन धरता.
डोकरी चो करलानी गोठ के,
लेत कोन करता.

बिचारी इली कसन,
नहीं चप्पल हुनचो पाँय ने.
डंडिक रेंगली-डंडिक थेबली,
बसली बे कोनी रुक चो साँय ने.

देंह में पताय,
सकत नी हाय.
नस ने बल हुनचोे,
रकत नी हाय.

मान्तर दखा तुमि,
हुनचो कमातो के.
पसना बोहायसे रोजे,
नी जाने सुस्तातो के.

आपलो दुख के,
हुन दूसरा के नी साँगे.
काँई नी हाय हुन चो घरे,
तेबले आउर के भीक नी माँगे.

मान्तर इथा तो लोग,
आउर के लूटुन खासोत.
अवधरम काम करुन भाति,
हुनमन गंगा नहाउक जासोत.

अवधरम चो बाट के,
भुलकन भले नी धरा.
पर चो धन केबय धरा नी दय,
तुमि मिहनत-मसागत करा.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||तुमा और ओरका||

मनुष्य की प्रकृति ऐसी है कि वह अपने जीवन को सरल बनाने के लिए सतत् प्रयासरत रहता है.घने जंगलों में बसने वाले आदिवासी भी प्रकृति की छत्रछाया में रहकर और उससे प्राप्त वस्तुओं से अपने जीवन को सरल बनाने का प्रयत्न करते हैं.
आइए आज मैं आपको लौकी से बनने वाली दैनिक जीवन में प्रयोग की जाने वाली पात्र तुमा(तुम्बा)और ओरका के बारे में सामान्य जानकारी दे दूँ.

क)तुमा(तुम्बा):- तुमा या तुम्बा से शायद ही कोई व्यक्ति परिचित न हो.आकार के अनुसार लौकी कई प्रकार की होती है और प्राय: छत्तीसगढ़ी में किसी भी प्रकार की लौकी को तुमा कह दिया जाता है.पर बस्तर में एक विशेष आकार की लौकी से तुमा का निर्माण किया जाता है.
गोल मटके की आकार के लौकी को उसके बेल में ही व्यस्क होकर कठोर होने दिया जाता है.सूख जाने पर  उसके शीर्ष भाग को काट कर उसे मटके की तरह खोखला कर दिया जाता है.और इस तरह तुमा का पात्र तैयार हो जाता है. लटकाने की सुविधा के लिए इसके गले में रस्सी बांध दिया जाता है.
ये तुमा ठीक थर्मस फ्लास्क का काम करता है.बस्तरवासी इस पात्र में  प्रायः मड़िया का पेज अथवा सल्फी रखते हैं.इस पात्र में 2-3 लीटर पेय पदार्थ आसानी से रखा जा सकता है.

2)ओरका:-  यह लंबे और गदा के आकार की लौकी से बनाया जाता है.इसे भी उसके बेल में सूखने दिया जाता है,फिर उसके शीर्ष भाग को गोलाकार में अनुप्रस्थ काट कर उसके भीतर के अंशों को अलग कर लिया जाता है.इस तरह ये ओरका बन जाता है.इस पात्र की सहायता से घड़े से  पानी निकालने का काम किया जाता है.(नारियल के कठोर भाग को अर्ध वृताकार में काटकर व लकड़ी का दंड जोड़कर भी ऐसे ही पात्र का निर्माण किया जाता है.)बस्तर में प्रायः हाथ-पैर धोने के स्थान के पास ओरका और मटके में पानी रखा हुआ होता है.

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"

||हे प्रभु||

हे प्रभु भूल कर भी,
हम अंधकार में पग न धरें।
दीपक बनकर सदा,
औरों का पथ आलोकित करें।

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"

।।आशाओं के दीए।।

रात्रि का समय,
ऊपर नभ में तारे टिमटिमाते हैं।
नीचे साल वृक्षों के बीच,
एक झोपड़ी में,दीए जगमगाते हैं।

निर्जन-शांत वन,
जहां रहती है वृद्धा एक अकेली।
युवावस्था से आज तलक,
सुलझा रही है जो जीवन की पहेली।

यौवन में मां बनने से पूर्व ही,
उसके पति चल बसे।
तब बेदर्द जमाने ने,
उस पर क्या-क्या तंज न कसे?

तब से वो बुढ़िया,
नहीं रहती अपने गांव में।
जीवन कट रहा है,
हरे-भरे पेड़ों की छांव में।

उसका बेटा उसे छोड़कर,
दूर शहर में पढ़ने गया।
गरीबी दूर करने और अपना,
सुनहरा भविष्य गढ़ने गया है।

ये विश्वास के दीए हैं,
जो उसकी देहरी पर जल रहे हैं।
लोटेगा लाल मेरा एक रोज कुछ बन कर,
उसके मन में कई स्वप्न पल रहे हैं।

पर लोग कहते हैं कि बेटा उसका,
अपनी मां को विस्मृत कर गया है।
शहर की आबोहवा में रहकर,
अब उसका जमीर मर गया है।

झूठ,हिंसा,पाप के रास्ते पर,
चलने से भी वो नहीं डरता है।
कुसंगति में पड़कर वो अब,
जुआ खेलता है,नशा करता है।

पर विश्वास है एक मां को,
न बुझेंगे उनकी आशाओं के दीए।
जो जलाएं हैं उसने ,
पुत्र को सही मार्ग दिखाने के लिए।

कहती है वो सबसे यही कि,
कभी तो उसका बेटा वापस आएगा।
पर भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है,
ये तो समय ही बताएगा।

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"

||करें प्रकृति का वन्दन-अभिनन्दन||

गोवर्धन गिरि पूजन करके कान्हा ने,
प्रकृति अर्चन का अनुपम संदेश दिया.
उसे कनिष्ठ ऊंगली पर धरकर उसने,
इन्द्र के कोप से वृंदावनवासियों का रक्षण किया.

प्रकृति के ही आशीष से,
जग में प्रसन्नता आती है.
अन्न-जल-वस्त्र आदि सब,
धरती माँ ही हमें दिलाती है.

आओ करें पंचतत्वों और,
गौ माता का वंदन-अभिनंदन.
पावन भारत की मिट्टी से,
अपने माथे पर लगाएं चंदन.

✍  अशोक नेताम "बस्तरिया"

||हमारा घर-हमारी बाडी़||

गांव में प्रायः कई प्रकार के पेड़-पौधे मिल जाते हैं.हमारे घर में भी कई वनस्पतियाँ हैं जैसे-तिखुर,टुड़गुना,पोइ भाजी,कोचइ,अमली,आम,सिवना,बहेडा़,भेलवा,रामफल,सीताफल,आलू कांदा और भी बहुत कुछ।आइए मैं उन्हीं में से कुछ पौधों के बारे में आपको बताता हूं.
साथ ही उन सबके छायाचित्र भी मैं आपके साथ बाँट कर रहा हूं.

१)जोंधरी:-
ज्वार को ही बस्तर में जोंधरी कहा जाता है.यह भुट्टे की प्रजाति का पौधा है जो लगभग 15-16 फीट ऊंचा होता है. इस पौधे के शीर्ष पर इसके सफेद बीज किसी फूल के पंखुड़ियों की तरह चारों तरफ बिखर कर नीचे की ओर झूल जाते हैं.इसके बीजों का उपयोग लाई(खील)बनाने के लिए किया जाता है.पहले विभिन्न उत्सव जैसे माहला(सगाई),छठी(नामकरण संस्कार),मरनी(मृतक कर्म) आदि के अवसर पर जोंधरी लाई का ही उपयोग किया जाता था,पर बस्तर में अब इसका उत्पादन बहुत कम होने के कारण  ऐसे अवसरों पर केवट जाति के द्वारा बनाई गई लाई का उपयोग किया जाता है.

२)चिरायता:-
चिरायता के पौधे को भुँइनीम कहा जाता है.यह प्राय:पर्वतीय-पथरीले इलाकों में पाया जाता है.एक दो पौधे उग आने के बाद यह तेजी से फैल जाता है.यह औषधीय पौधा मलेरिया के रोग में बहुत ही असरकारक है.प्राय: ग्रामवासी इसे शहरों में विक्रय करने ले जाते हैं.

३)रखिया:-
रखिया को बस्तर में राखड़ी कुमडा कहा जाता है,क्योंकि इसके फल को देखने पर ऐसा  प्रतीत होता है जैसे इसके चारों तरफ राख लगा दी हो. कई लोग इसकी सब्जी भी खाते हैं.प्रायः लोग इसका उपयोग बड़ी बनाने के लिए करते हैं. रखिया की बड़ी लोगों को बहुत भाती है.बाजारों में लोग इसे प्राय: जोड़ियों में बेचते हैं.

४)गन्ना:-
दंडाकार के कारण गन्ना को ही डाँडा कहा जाता है.पहले डाँडा एक प्रमुख फसल थी.इसका रस निकालकर रस से गुड़ बनाया जाता था.आज भी कइयों के घर में गुड़ बनाने वाली विशाल कड़ाही दिखाई देती है.आज भी गन्ने के गुड़ बाजारों में दिखाई देते हैं,पर अब गन्ने का उत्पादन बहुत ही कम होता है.

५)साल:-
सालवृक्ष बस्तर में सरगी के नाम से जाना जाता है.छत्तीसगढ़ का राजकीय वृक्ष भी है. बस्तर में साल वनों की अधिकता होने के कारण ही शानी ने इसे साल वनों का द्वीप कहा है.ये बहुपयोगी पेड़ है.यह बहुत विशाल पेड़ होता है.इसके पत्ते से दोने-पत्तल तैयार किये जाते हैं.ग्रामीणजन आज भी दोने-पत्तलो में ही भोजन करते हैं.गांववासी इसके बीजों का संग्रहण और विक्रय कर अच्छी आय अर्जित करते हैं.इस वृक्ष की इमारती लकड़ी बहुत  मजबूत और टिकाऊ होती है.यह वृक्ष जनजातीय जीवन से बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है,इसलिए लोग इस वृक्ष की पूजा करते हैं.

६)कुन्दरु:-
कुंदरु से लगभग सभी लोग परिचित हैं.इसकी लताओं को जमीन में गाड़ देने पर यह आसानी से उठाता है.इसके फल का उपयोग साग बनाने के लिए किया जाता है.इसकी सब्जी बड़ी ही स्वादिष्ट  होती है.कुछ लोगों से मैंने सुना है कि यह बुद्धि का नाश करती है,पर मुझे तो ऐसा नहीं लगता. कभी किसी विद्वान से इस विषय पर चर्चा करके देखूँगा.

७)बाँस:-
बाँस को बाँओस कह दिया जाता है.यह बस्तर का बहुत उपयोगी वृक्ष है.इससे पारधी जाति द्वारा बुट्टी(गोल छोटी टोकरी),ओडी(बड़ी गोल टोकरी),टुकना(चौकोर टोकरी),गप्पा(बड़ी चौकोर टोकरी),ढुटी(बर्तननुमा पात्र जिसमें मछली आदि रखे जाते हैं),छतोड़ी(एक तरह का छाता)चटाई आदि बनाए जाती है.बाँस के कोमल तने(बांस्ता या करील)की सब्जी भी बड़ी ही स्वादिष्ट होती है.इस प्रकार बाँस बस्तर वासियों के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण वृक्ष है.

८)अरहर:-
अरहर में अ का लोप होने के कारण प्राय:इसे रहर और हल्बी में राहड़ कह दिया जाता है. क्या बस्तर में कुलथी और उड़द के बाद  तीसरा सबसे महत्वपूर्ण दलहन का फसल होता है.खेतों की मेड़ों पर खड़े अरहर के हरे-भरे पौधे बहुत ही सुंदर दिखाई देते हैं.

९)जिमीकाँदा:-
जिमीकाँदा छत्तीसगढ़ की प्रसिद्ध कंद है.इसकी सब्जी बनाई जाती है.यह कोचई(अरबी) की तरह का ही कंद है,इसलिए इसकी सब्जी  बनाने समय कुछ खटाई अवश डालना पड़ता है. नहीं तो गले के नीचे खुजली होने का अनुभव होता है.

१०)हल्दी:-
बस्तर के गाँवों में अधिकांश घरों में हल्दी(हरदी)के पौधे पाए जाते हैं. हल्दी न केवल सब्जी बनाने में प्रयुक्त की जाती है बल्कि अनेक शुभ अवसर पर हल्दी का प्रयोग किया जाता है.विवाह के अवसर पर भी वर-वधू को हल्दी और तेल का लेप चढ़ाया जाता है.साथ ही हल्दी कई दिव्य औषधीय गुणों से युक्त होती है.

११)झिर्रा भाजी:-
झिर्रा को छत्तीसगढ़ी में अमारी कहा जाता है.यह लोगों की  पसंदीदा भाजियों में से एक है. खट्टा स्वाद होने के कारण इसे खट्टा भाजी भी कहा जाता है. घर की बाड़ी या खेत के मेड़ ,खलियान आदि में लोग इसकी बुवाई करते हैं.इसकी फल के बाहरी  लाल आवरण को भी सब्जी बनाकर खाया जाता है,तथा इससे अमचूर भी बनाई जाती है.

||केबे मिलवाँ||

तुचो कान काजे,
घेनतो रली रे लेकी खिलवाँ.
तुय साँग तो आमि,
कोंडागाँव हाटे केबे मिलवाँ.

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"

||बाड़ी के सब्जी-भाजी||

आइए गांव में पाए जाने वाले कुछ भाजी व सब्जियों के बारे में जानें.

बोहार भाजी:
यह एक विशाल पेड़ होता है.जिसके कोमल-कोमल पत्तों से साग बनाया जाता है.साथ ही इसके फूल और फलों को से सब्जी बनाई जाती  है.

पोंई भाजी:-
गहरी गुलाबी रंग की लतायुक्त हरी पत्तेदार पौधा पोंई भाजी के नाम से जाना जाता है.इसके पत्ते बहुत ही मुलायम होते हैं.इसके पत्ते से रसदार भाजी का साग बनाया जाता है जो बड़ा ही स्वदिष्ट होता है.

टुड़गुना:-
टुड़गुना(हल्बी नाम)का पौधा लगभग बैगन या धतूरे के पौधे के समान दिखता है,पर ये पेड़ की तरह बड़ा आकार लेता है व इसकी शाखाएँ कँटीली होती हैं.इसमें लगभग मटर के दाने के आकार के फल गुच्छे में लगते हैं,जिसका उपयोग सब्ज़ी बनाने में किया जाता है.

केऊ:-
केऊ छत्तीसगढ़ का प्रमुख जंगली कंद है.औषधीय गुणों के चलते घर की बाड़ियों में भी इसे उगाया जाता है.इसका साग बनाया जाता है,साथ ही बड़ी बनाते समय इसको मूसल द्वारा कूटकर बड़ी में मिला दिया जाता है.

कोचई:-
कोचई(अरबी) कंद का सब्ज़ी छत्तीसगढ़ में बहुत पसंद की जाती है.उड़द दाल को पीसकर व उसे कोचई के पत्ते से लपेटकर सब्जी बनाई जाती है.जिसे सयगोड़ा कहा जाता है.साथ ही इसके पत्ते से जुड़े हुए डंठल जिसे पिखी कहते हैं,की सब्जी भी बनाई जाती है.कोचई कंद या पिखी की सब्जी में खटाई अवश्य डाला जाता है.अन्यथा गले में खुजली होती है.

केरा(केला):-
पके केले या इसका साग आपने जरूर खाया होगा.पर शायद आपने इसके फूल की सब्ज़ी न खाई होगी.केले का सिंदूरी रंग का फूल नीचे की ओर झूल जाता जाता है.केले  फूल का आवरण हटाने पर सफेद केले भ्रूण की तरह दिखाई देते हैं.जिसे साफ कर बड़ा ही स्वादिष्ट शाक बनाया जाता है.

कुमढ़ा:-
कद्दू,घीया आदि  के नाम से  पहचाना जाने वाला कुमढ़े का साग बड़ा ही स्वादिष्ट होता है.इसके फूल और पत्तों की सब्जी भी स्वादिष्ट और पौष्टिक होती है.

कांदा भाजी:-
यह भी बहुत प्रसिद्ध भाजी है.यह लतायुक्त पौधा होता है. इसकी पत्तियां लंबी व हाथ की उंगलियों की तरह फैली होती है.ग्रामीणजन बड़े मजे के साथ स्वादिष्ट कांदा भाजी का सेवन करते हैं.

कोलियारी भाजी:-
कोलियारी(कचनार)भाजी का भी अपना अलग ही मजा है.इसके हरे-हरे और नर्म-मुलायम पत्तियों की भाजी बड़ी ही मजेदार होती है.प्राय: उड़द के साथ इसका साग बनाया जाता है.भात अथवा पेज के साथ इसे खाना बहुत आनंददायक होता है.

मुनगा(सहजन):-
यह भी विशाल पेड़ होता है.सहजन बहुत महंगा होता है. इसके भी फूल पत्तियों और फलों की सब्जी बनाई जाती.

तिखुर:-
तिखुर का पौधा लगभग हल्दी के पौधे की तरह दिखता है.पर दोनों को पत्तियों की गंध के आधार पर सरलता से पहचाना जा सकता है.तिखुर जंगली पौधा है पर इसके औषधीय गुणों के कारण घर में भी उगाया जाता है.इसके कंद को कीसकर सफेद चूर्ण बनाया जाता है,जिसके सेवन से शरीर में ठंडकता बनी रहती है.प्राय: गर्मियों में इसकी माँग अधिक रहती है.यह बहुत ऊँचे दामों में बिकता है.

अशोक नेताम "बस्तरिया"

चाटी_भाजी

 बरसात के पानी से नमी पाकर धरती खिल गई है.कई हरी-भरी वनस्पतियों के साथ ये घास भी खेतों में फैली  हुई लहलहा रही है.चाटी (चींटी) क...