सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

।।सब अपने हैं।।

वक्त हाथ से,
निकला जा रहा है।
तू लक्ष्य से,
भटका जा रहा है।

जब कोई तुझ में,
कमी नहीं।
फिर बात तेरी,
क्यों बनी नहीं।

हर कहीं अत्याचार,
आज पसरा है।
अशिक्षा,अज्ञानता का,
सर्वत्र फैला कचरा है।

गैरों को देखने की,
किसेआज फुर्सत है।
हर एक की नजरों में,
आज पनपती नफरत है।

मां,बेटी,बहू आज,
"आइटम"कहलाते हैं।
निर्लज्ज देख उन्हें,
सीटियाँ बजाते हैं।

उनकी शैतानी आंखों में,
बिल्कुल भी नहीं शर्म है।
हम सब तो एक ही हैं
समझता कौन ये मर्म  है।

धन्य-यश पाकर,
फूल गया है।
क्या तू अपना कर्तव्य,
भूल गया है?

भयभीत रहे हो अब,
तक  तुझे अब नहीं डरना है।
समाज का नवनिर्माण,
तुम्हें ही करना है।

संसार रूपी बगिया का,
हर सुमन खिल सके।
खुश रहने का हक,
सबको मिल सके।

प्रयत्न कर इस तरह कि,
पत्थर पानी हो जाए।
आलसी,लुटेरा और शोषक,
पानी-पानी हो जाए।

प्राप्त कर वह सब जो,
अब तक  तेरे सपने हैं।
कोई नहीं पराया जग में,
सोचो तो सब अपने हैं।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn@gmail.com
📞9407914158

।।मैं तैयार हूँ।।

मैं तैयार हूं पूरी तरह,
आगामी दिनों के लिए।

अब तक तो जीतता आया।
अब हारूँगा किस लिए?

ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता जाऊंगा।
गीत मैं विजय के गाऊँगा।

कुछ और बेहतर करने के लिए।
जलाए रखूँगा मैं विश्वास के दिए।

मैं विजेता,निश्चय ही जीतूंगा।
यकीं है मैं आकाश चूम लूंगा।

उनका जीना भी क्या जीना।
जो निराशा में जिए।

रचनाकार:-अशोक"बस्तरिया"

ई-मेल:-kerawahiakn@gmail.com
मो.न.9407914158

||मैं तो कठपुतली हूँ||

मैं जानता हूं कि,
मेरी जिंदगी में
बहुत बड़ी-बड़ी खुशियां नहीं है।
छोटी-छोटी बातें हैं।

फिर भी खुश रहूं तो ही बेहतर है।
मैं वही पाऊंगा जो  मैं खोजूँगा।
खुशी चाहूं और गम मिले
तो भी क्यों निराश होऊँ?
हो सकता यह ईश्वर चाहते  हों।

मैं तो एक कठपुतली हूँ।
जिसे ऊपर वाला
अपनी इच्छा अनुसार नचा रहा है।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn@gmail.com
📞9407914158

।।मोला नइ भावय ए सहर।।

बड़े-बड़े कल कारखाना।
भूँकत-गरजत,
उगलथें चोबीसों घंटा जहर।
मोला नइ भावय ए सहर।
मोला नइ भावय ए सहर।

दिन-रात रहिथे
चहल पहल।
चारों कोती दिखते,
सिमेंट के महल।
नी दिखय भईया,
एको ठन रूख।
ईहाँ बस,
कमाय-खाय के भूख।
जेती देखबे मनखेच-मनखे
जाबे तैं कते डाहर।
मोला नइ भावय ए सहर।
मोला नइ भावय ए सहर।

सजे दुकान देख ले,
रंग-रंग के।
कपड़ा पहिरे लोगमन,
कई ढंग के।
बड़ मुस्किल हे ददा,
इहाँ रहिके जियेके।
पइसा देय ल पड़थे,
पानी तक पियेके।
टींट-टींट,पोंक-पोंक,
गाड़ी चलय इहाँ आठों पहर।
मोला नइ भावय ए सहर।
मोला नइ भावय ए सहर।

एखर ले बढ़िया त आय,
मोर नान्हे असन गाँव।
देवी-देंवता के किरपा जहाँ,
रूख-राई के हे छाँव।
माटी दाई के अँचरा हरियर,
छलकय नरवा-नदिया।
कान म मीठ मिसरी घोलत,
गाए जिहाँ कोयलिया।
तन-मन ला शीतर करय
जिहाँ सुघ्घर हवा के लहर।
मोला नइ भावय ए सहर।
मोला नइ भावय ए सहर।

बड़े-बड़े कल कारखाना।
भूँकत-गरजत,
उगलथें चोबीसों घंटा जहर।
मोला नइ भावय ए सहर।
मोला नइ भावय ए सहर।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn@gmail.com
📞9407914158

||गर्व मत करो||

गर्व मत करो क्योंकि,
तुम कुछ भी नहीं करते।

जो कुछ होता है,
वह उसके कारण होता है जिसे,
सब "ईश्वर" कहते हैं।

तुम्हारे के पूर्व भी
यह दुनिया चलती थी और कल
जब तुम नहीं रहोगे।
तब भी ये संसार चलता रहेगा।

तू बार-बार यहाँ आता रहेगा।
मानव धर्म निभाता रहेगा।

जीवन-मृत्यु तो सामान्य सी घटना है।
शरीर का  बनना और मिटना तो साधारण ही है।

इसलिए मनुष्य तू असाधारण बन।
क्योंकि तू महान कार्यों के लिए आया है।

रचनाकार:-अशोक"बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

।।मैंने जीना सीख लिया है।।

मैं चला था मेरे यारा
मौत की तलाश में।
तुमसे मिलते-मिलते
मैंने जीना सीख लिया है।

मेरे साथ अजीब सा,
जाने क्या हो रहा था।
किस्मत पर अपनी मैं,
दिन-रात रो रहा था।
तकदीर के कपड़ों को,
मेहनत के धागों से।
मैंने सीना सीख लिया।

मैं चला था मेरे यारा,
मौत की तलाश में।
तुमसे मिलते-मिलते
मैंने जीना सीख लिया है।

राहे जिंदगी में,
तुझे दर्द भी मिलेंगे।
उम्मीदों की रोशनी से,
खुशियों के गुल खिलेंगे।
धीरे-धीरे,
गम के आंसुओं को,
मैंने पीना सीख लिया।

मैं चला था मेरे यारा
मौत की तलाश में।
तुमसे मिलते-मिलते
मैंने जीना सीख लिया है।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।मैं अजनबी क्यों रहूँ।।

अपने तुम्हारे लिए और
तुम अपनों के लिए।
अब तक अजनबी हो।क्यों?

यहां पराया कौन है?
कि बैठा तू उदास,
अब तलक मौन है।

सब तो हैं जाने-पहचाने से।
कुछ हासिल नहीं होगा।
अगर तू गुमसुम रहेगा।

दीप जले मगर निर्जन में।
फिर उसके जलने का औचित्य ही क्या?

फिर दीपक तो तू है ही।
तब किस बात से घबराता है।
तेरी सार्थकता तो तभी है,
जब कोई तुझसे प्रकाश पाता है।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।आप सब को धन्यवाद और नमस्कार।।

साथियों नमस्कार!
मेरे द्वारा लगातार अपने विचारों और भावनाओं को फेसबुक के माध्यम से आप सबके बीच लाने का जो प्रयास हो रहा है,उसमें आप सबकी प्रेरक प्रतिक्रियाएँ मेरा पथ प्रदर्शन कर मुझे कुछ नया करने की प्रेरणा देती हैं।
मेरी आज की कविता आप सभी पाठकों को समर्पित है।

।।आप सब को धन्यवाद और नमस्कार।।

आप सबकी की प्रेरणा से ,
करता रोज मेैं नई कविता तैयार।
आत्मीय साथियों!
आप सब को धन्यवाद और नमस्कार।

ईश्वर का स्मरण कर,
शीघ्र शैय्या त्यागता हूं।
लिखने को मैं नित्य,
प्रातः काल जागता हूं।
लेकर एक हाथ में लेखनी-पत्र
गाल पर होता है दूसरा हाथ।
फिर करता हूँ मैं,
स्वयं से ही बात।

आते हैं तब मस्तिष्क में,
कई तरह के विचार।
आत्मीय साथियों!
आप सब को धन्यवाद और नमस्कार।

मन जैसे किसी सागर में,
खो जाता है।
मैं कुछ भी नहीं करता,
जाने मुझसे ये कैसे हो जाता है।
पहले विचारों के सागर से,
लेता हूं नए शब्द निकाल।
तब किसी बुनकर सा,
मैं बुनता हूं शब्दजाल।

फिर कल्पनाएँ लेती है,
एक रचना का आकार।
आत्मीय साथियों!
आप सब को धन्यवाद और नमस्कार।

मैं एक तुच्छ मानव,
मैं क्या जानू काव्य कला।
कोई रचना कर सकूं,
मुझ में कहाँ इतना सामर्थ्य भला?
त्रुटियों पर क्षमा करें,जानकर मुझे,
एक छोटा सा बच्चा।
लेकिन मैं करूँगा प्रयत्न कि,
लिख सकूँ आगे कुछ अच्छा।

मिलती रहे बस मुझे,
आपकी प्रतिक्रिया,आशीष और दुलार।
आत्मीय साथियों!
आप सब को धन्यवाद और नमस्कार।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।नया नहीं यह संसार।।

नया नहीं है मेरे लिए यह संसार।
अपितु आता रहा हूं मैं यहां बार-बार।

बदल कर  सदा नया नाम,
लिंग,जाति, धर्म।
आता हूं मैं यहां,
करने अपना निज कर्म।

मैं यहां पर आता करने,
पाप-पुण्य व्यापार।
नया नहीं है मेरे लिए यह संसार।
अपितु आता रहा हूं मैं यहां बार-बार।

बना कभी जोसेफ,कभी बलविंदर,
कभी कृष्ण,कभी बना रहमान।
अलग अलग नामों से पूजूँ,
वही गॉड,अल्लाह और भगवान।

यह देश-मजहब की लड़ाई,
है बिल्कुल बेकार।
नया नहीं है मेरे लिए यह संसार।
अपितु आता रहा हूं मैं यहां बार-बार।

सोने सा यह तन मिट्टी का,
एक दिन जाएगा गल।
न था कभी अस्तित्व मेरा,
न जीवित रहूंगा मैं कल।

मेरा हर कर्म देख रहा वो,
उसके नेत्र हजार।
नया नहीं है मेरे लिए यह संसार।
अपितु आता रहा हूं मैं यहां बार-बार।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।मुझे जीतना ही आता है।।

साथियों नमस्कार।

दिनाँक 15/01/2017 को भारत ने इंग्लैंड को 350 रनों का विशाल स्कोर का पीछा करते हुए 3 विकेट से हराया जिसमें केदार जाधव और विराट कोहली के शानदार शतकों
की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
मेरी यह कविता विशेष रूप से भारतीय कप्तान विराट कोहली के लिए है जिन्हें शायद केवल जीतना आता है।

।।मुझे जीतना ही आता है।।

परिस्थितियों से हार मान कर,
मैंने नहीं सीखा रोना।
विजय ही भाता है मुझे,
न सीखा मैंने पराजित होना।

तन में शक्ति और यदि,
मन में है पूरा विश्वास।
तब निस्सन्देह है पूरी  होती,
मनुज की प्रत्येक आस।

कठिन श्रम, दृढ़ निश्चय कर,
धीरज कभी न खोना।
परिस्थितियों से हार मान कर,
मैंने नहीं सीखा रोना।
विजय ही भाता है मुझे,
न सीखा मैंने पराजित होना।

विरोधी करे चाहे,
कितनी ही कठिन आक्रमण।
बस याद रखो जीतना है,
तुम्हें हर हाल में रण।
तुम निर्भय हो,काम करो निज,
होगा वही जो है होना।
परिस्थितियों से हार मान कर,
मैंने नहीं सीखा रोना।
विजय ही भाता है मुझे,
न सीखा मैंने पराजित होना।

करना अगर तुम्हें भी कुछ तो,
अभी इसी समय जागो।
दृढ़ निश्चय,कठिन श्रम करो,
निद्रा आलस्य त्यागो।
तभी पूरा होगा बन्धु,
तुम्हारा सपना सलोना

परिस्थितियों से हार मान कर,
मैंने नहीं सीखा रोना।
विजय ही भाता है मुझे,
न सीखा मैंने पराजित होना।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।तुम असाधारण हो।।

हाँ,यह सच है
तुम असाधारण हो।
तुम वह कर सकते हो,
जो कोई नहीं कर सकता।

तुम्हें ईश्वर ने
इस संसार में भेजा,क्यों?
इस पर विचार कर कभी।

तुम भी तो उसी के अंश हो।

तुम्हारे भीतर हैं असीमित
शारीरिक-मानसिक शक्तियाँ।
क्योंकि तुम्हारे
पिता सर्वशक्तिमान हैं।

पर तुम अज्ञानता के अंधेरे में हो इसलिए
तुम्हें विस्मृत  हो गई हैं
तुम्हारी शक्तियाँ।

ज्ञान दीवार के उस पार है।
दीवार लोभ,स्वार्थ-चंचलता का।
दीवार काम,क्रोध,अहंकार का।

इन दीवारों को गिराए बिना,
तुम सत्य से नहीं मिल सकोगे।

सब कुछ मिल जाने के पश्चात भी,
तुम्हारी तलाश खत्म
नहीं होगी।

परम पिता परमेश्वर से मिलकर,
तुम पूर्ण हो सकोगे।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।धर्म-अधर्म संघर्ष।।

युद्ध भूमि में पितामह,
शरशैया पर पड़े थे।
माधव,कौरव-पांडव व अन्य योद्धा,
उनके चहुँ ओर खड़े थे।

तभी दुर्योधन ने कहा "पितामह
आप ने सदैव किया हमारे संग पक्षपात।
तन भले था किंतु मन,
आपका था पांडवों के साथ।

अन्यथा आप तो हैं कुशल योद्धा,
धर्म और नीति परायण।
किंतु आज आप देह त्याग रहे,
जबकि है अभी दक्षिणायन।

बोले भीष्म-"दुर्योधन जीवन भर तो सुनता आया,
अब तो तुम रहो तनिक मौन।
मुझे इच्छा मृत्यु का वर मिला,
इस विषय में कहने वाले तुम हो कौन?

हुआ जन्म मेरा कुरुवंश में,
यह मेरा सौभाग्य रहा।
किन्तु धर्म जानकर भी अधर्मी बना मैं,
यह मेरा दुर्भाग्य रहा।

जब तक न देख लूँ धर्म विजय।
मैं यहीं शयन करूंगा।
होगा न जब तक सूर्य का उत्तरायण,
मैं कभी नहीं मरूंगा। "

कहा फिर उसने अर्जुन से-" पुत्र!
करो मेरी एक समस्या हल।
मुझे तीव्र प्यास लगी है,
शीघ्र पिलाओ गंगाजल।"

सुन पितामह की वाणी,
अर्जुन ने भूमि पर बाण संधान किया।
जहां से निकली अमृतधारा,
जिसका पितामह ने पान किया।

मकर सक्रांति के पश्चात्,
जब सूर्य का उत्तरायण हुआ।
त्यागा पितामह ने निज देह,
उनका स्वर्गारोहण हुआ।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।नशे का कर त्याग।।

तन-मन-धन,सम्मान जलाए,
यह है ऐसी आग।
रे मानव नशे का कर त्याग।

अपने पिता,पत्नी,पुत्रों को
क्यों सताता है।
नशे का सेवन कर
क्यों जीवन व्यर्थ गँवाता है।
मानव जीवन मिलता दुर्लभ,
क्यों लगाए इस पर दाग।
रे मानव नशे का कर त्याग।

व्यसन कर देता है
मनुष्य का सर्वनाश।
अवरुद्ध होता है जिससे,
बलऔर बुद्धि का विकास।
इसमें इतना विष भरा
जैसे हो कोई नाग।
रे मानव नशे का कर त्याग।

विचार कर तनिक,
बैठकर आज।
कल क्या कहेगा तुम्हें,
अपना देश-समाज।
बाद में पश्चाताप करेगा,
जाग,अभी तू जाग।
रे मानव नशे का कर त्याग।

तन-मन-धन,सम्मान जलाए,
यह है ऐसी आग।
रे मानव नशे का कर त्याग।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।पतंग से वार्तालाप।।

एक दिन मैंने,
पतंग को उड़ते  देखा।
मैंने पूछा"पतंग तुम निर्जीव हो।
कागज के चंद टुकड़ों,
और बाँस की कुछ सींकों से तुम बनी हो।
फिर भी तुम इतना ऊंचा उड़ लेती हो।
सदा मुस्कुराती फिरती हो।
और एक मैं हूँ,
जो जीवित होते हुए भी,
उड़ पाने में सक्षम नहीं हूं।
ऐसा क्यों है?"

पतंग बोली-"किसी भी काम के लिए,
साहस सबसे बड़ी आवश्यकता है।
यह तो सबको ही पता है।
फिर हल्का होना भी जरुरी है मेरी तरह।
हृदय के साथ,
अपनों से प्रेमरूपी धागा भी,
लगातार जोड़े रखना।
अन्यथा तुम भटकते-भटकते
नीचे गिर पड़ोगे।
हवा यानी की वक्त की दिशा में ही सदैव चला करो।
प्रकृति का विरोध
तुम्हें नष्ट कर सकता है।
अगर तुम मेरी बात मानोगे।
विश्वास करो बहुत ऊंचा उड़ोगे।
तुम तो एक मनुष्य हो।
कुछ ऐसा करो
कि सारा संसार
तुम्हारे कार्य पर
तुम्हारी ऊंचाइयों पर नाज़ करे।"

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
Mob.9407914158

।।दुखद अतीत भूल जा।।

भूल यदि हो गई है कोई तुम से।
तो उसे तुम भूल जाओ।
वह तो एक सामान्य बात थी।
तुम मनुष्य हो और
हर मनुष्य गलती करता है।
तुम्हें अपनी गलती पर पछतावा है न?
फिर क्यों खराब कर रहे हो तुम।
अपना वर्तमान और भविष्य।
पीछे मत देखो,
पीछे अंधेरा है।
आगे बढ़ो,
आगे सवेरा है।
सामने उम्मीदें हैं,
सपने हैं।
जिन्हें बदलना है,
तुम्हें हकीकत में।
आगे जीवन है,
पीछे मृत्यु है।
क्या तुम मौत को चुनोगे?
या संघर्ष करके,
इस संसार के सिरमौर बनोगे।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

||मृत्यु से क्यों डरूँ||

जीवन और मृत्यु बस दो शब्द।
जिसके मध्य मनुष्य,
झूलता रहता है आजीवन।
आशा और विश्वास जीवन है।
भय और निराशा मृत्यु है।
मगर मृत्यु और जीवन तो हैं,
दो पहलू एक ही सिक्के के।
दिन है तो रात भी।
पूनम है तो अमावस भी।
जमीं है तो आकाश भी।
जल है तो अग्नि भी।
धूप है तो छाँव भी।
धनी हैं तो निर्धन भी।
पाप है तो पुण्य भी।
सत्य है तो असत्य भी।
देव हैं तो दनुज भी।
शीत है तो ग्रीष्म भी।
जय है तो पराजय भी।
राम है तो रावण भी।
तब जीवन है तो
मृत्यु भी अवश्य होगी।
तो क्यूं व्यर्थ,
अपनी मृत्यु से डरूँ?
उचित है कि निर्भय हो,
मैं अपना कर्म करूँ।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

।।हंस जाने कहाँ उड़ चला।।

वो बुलाए तो जाना ही होगा,
मृत्यु को कोई रोक सका है भला?
शरीर के पिंजरे को छोड़,
हंस जाने कहां उड़ चला।

पंच तत्व युक्त मानव तन,
जो कल था अपने पैरों पर खड़ा।
निर्जीव, शांत,अकेला,
आज धरा  की गोद पड़ा।
जीवन यात्रा त्याग कर राही,
एक नई राह पर निकला।
शरीर के पिंजरे को छोड़,
हंस जाने कहां उड़ चला।

यह पिता-पुत्र,यह घर-परिवार,
सब कुछ यहीं छूट जाते हैं।
हमारे बनाए सब रिश्ते- नाते,
क्षण भर में टूट जाते हैं।
प्रत्येक के जीवन में,
आती है यह बला।
शरीर के पिंजरे को छोड़,
हंस जाने कहां उड़ चला।

रंग-बिरंगी यह दुनिया,
लगता है कि जैसे अपना है।
ज्ञात होता है एक दिन कि,
यह तो केवल सपना है।
इस सत्य को जान पाये,
शायद ही है कोई विरला।
शरीर के पिंजरे को छोड़,
हंस जाने कहां उड़ चला।

ईश्वर करे सभी को दुर्लभ,
मनुज जनम हर बार मिले।
खुशियों भरा स्वर्ग सा सुन्दर,
एक नया संसार मिले।
सभी सुखी हों जग में,
हो सब ही का भला।
शरीर के पिंजरे को छोड़,
हंस जाने कहां उड़ चला।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

||क्या तू मनुष्य है||

इस भाग दौड़ की जिंदगी से,
थोड़ा सा वक्त फुर्सत के निकाल।
सांसारिक मोह बंधन त्याग कर
अंतरात्मा का कर खयाल।

सोच कभी इस विषय पर
तू इस जगत में क्यों आया।
जिस पर मुझे गर्व है
उसे क्या ऊपर से खैरात में लेकर आया।

क्या तू मनुष्य है और यदि हां
तो तुझ में मानवता है।
इमानदारी,दया,साहस, प्रेम
सेवा, चतुराई और सरलता है।

सब कुछ मिला तुझे
फिर भी तू कहाँ पूरा है।
जब तक तू उसे(ईश्वर को)नहीं पाएगा
तू सदैव अधूरा है।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
Mob.9407914158

।।सबका सहयोग करूँ ।।

समझता था स्वयं को मैं
जगत का सबसे बड़ा धनवान।
रूप-रंग,जोरू-जर पर
मुझे बड़ा था अभिमान।

मिट्टी के तन को मैं
नित्य इत्रों से सजाता था।
कला-ज्ञान पर अपने
मैं बहुत इतराता था।

न सीखा मैंने कुछ औरों से
न किसी को कुछ दिया।
अपना संपूर्ण जीवन
व्यर्थ ही व्यतीत किया।

न असहायों की सेवा की
न किसी के काम आया।
काम,परनिंदा,चोरी,असत्य
सदा ही मुझे भाया।

हुआ कोई चमत्कार सा
मुझे स्व का भान हुआ।
अपनी असीम शक्तियों का
मुझे अब ज्ञान हुआ।

जाना मैंने अब कि सब कुछ
एक छलावा मात्र है।
यह जग रंगमंच और हम
एक नाटक के पात्र हैं।

धन,बल,शक्ति का अपने
क्यों न मैं सदुपयोग करूँ।
निज को विसर्जित कर
उचित है सबका सहयोग करूँ।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।मेरी वो अभूतपूर्व पराजय।।

नीलनयन,मधुर मुस्कान देखकर
सुनकर उसकी पायल।
हो गया था मैं
किसी अजनबी का कायल।

जीतना चाहा था मैंने उसे
पर हुआ मैं उनसे परास्त।
गहन पीड़ा हुई हृदय में
मेरी आशाओं का हुआ सूर्यास्त।

मैंने बनाना चाहा था उसे
अपने भाग्य की रेखा।
पर उस पराजय के बाद
मैंने उसे फिर नहीं देखा।

मैंने पूछा ईश्वर से मुझ संग
आपने ये अन्याय क्यों किया?
वे बोले अशोक जिसमें हित निहित था तेरा
मैंने तुम्हें वही दिया।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।कविता मेरी जान है।।

जाने क्यों पत्नी का
मुख-कमल मुरझाया था आज।
किसी बात से शायद मेरी
वो थीं बहुत नाराज।

बोली "जाने कहाँ जाते हो,
सांझ ढले घर आते हो।
कागज-कलम लेकर
कुछ लिखने बैठ जाते हो।"

पूछती मैं कब से फिर भी किंतु
अब तक आप मौन हैं।
आज तो जानकर ही रहूँगी,
कि कविता आप की कौन है?

मैं बोला"मेरी जमीन वो
मेरा आसमान है।
तुम भला क्या जानो
कि कविता मेरी जान है।"

"इतना रस उसमें कि
जग को भूल जाता हूँ।
उसका संग पाकर मैं
खुशी से  फूल जाता हूँ।"

सुन इतनी सी बात मेरी
उनकी भृकुटी हो गई टेढ़ी।
लेकर झाड़ू हाथ में अकस्मात्
मेरी ओर वह दौड़ी।

सिंहनी दिख गई हो जैसे,
डरकर मैं सरपट भागा।
कैसी औरत गले बाँध गया रब
मैं हूँ बड़ा अभागा।

कोई समझा दे उसे
न समझे वो नादान है।
कि कविता मेरी जान है।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।वो माँ हैै।।

संतान पाने नित मिन्नत करती।
नौ माह हमें गर्भ में पालती।
लाने जग में फिर प्रसव पीड़ा सहती।
वो माँ है।

पुत्र का दुख स्वयं  सह जाती।
अपने रक्त का दूध पिलाती।
हमें खिला फिर बाद में खाती।
वो माँ है।

छुपा लेती हमें अपने आँचल तले।
लाख गलतियाँ हम कर लें भले।
फिर भी लगाती जो हमें गले।
वो माँ है।

कितनी भी मुश्किलें आएँ।
हर लेती पुत्र की हर बलाएँ।
जिनकी महिमा  दुनिया गाए।
वो माँ है।

मां की अहमियत समझ नादान।
सेवा कर उनकी बन गुणवान।
पूजते जिसे स्वयं भगवान।
वो माँ है।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।बच्चे ईश्वर के रूप हैं।।

कोई पूछे गर मुझसे,
तुमने ईश्वर को देखा है?
मैं कहूंगा हाँ।
मैंने ईश्वर को  देखा है।

मैंने उन्हें देखा है बच्चों में।
सदैव प्रसन्न,चिंतामुक्त चेहरे।
उनका लड़कर फिर घुल-मिल जाना।

असत्य,हिंसा,झूठ से अनजान।
क्या मान -अपमान।
ये गुण तो केवल ईश्वर में ही
निहित हो सकते  हैं।

बच्चे जीवित ईश्वर हैं।
वे बहुत प्यारे हैं।
माँ-बाप के दुलारे हैं।

पल में रूठकर
झट  मैं मान जाता।
काश मैं  स्वयं को,
बच्चों सा बना पाता।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।आ गया लो नूतन वर्ष।।

संग लेकर अपार हर्ष।
आ गया लो नूतन वर्ष।

स्वयं की शक्ति पहचान ले।
सत्य असत्य क्या जान ले।
सदैव सत्कर्म करेगा ठान ले।

होगा अवश्य तेरा उत्कर्ष।
संग लेकर अपार हर्ष।
आ गया लो नूतन वर्ष।

खुशी मिले तो जरूर मुस्कुराना।
दुख मिले तो नहीं घबराना।
उचित यही कि तुम चलते जाना।

जीवन तो है एक संघर्ष।
संग लेकर अपार हर्ष।
आ गया लो नूतन वर्ष।

आशीष दिया है तुझको सब ने।
पराये भी हो जाएंगे अपने।
पूरे होंगे तेरे हर सपने।

बन एक व्यक्ति आदर्श।
संग लेकर अपार हर्ष।
आ गया लो नूतन वर्ष।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।मैं विचरता हूं हर पल कल्पनालोक में।।

मैं विचरता हूं हरपल,
कल्पना लोक में।

यह दुनिया सपनों की,
लगती रंग बिरंगी है।
सत्य-असत्य का बोध कराती,
जैसे कोई संगी है।

आनंद के महासागर में,
आशाओं के आलोक में।

मैं  विचरता हूं हर पल,
कल्पना लोक में।

पल भर में महल बन जाते,
क्षण भर में मिट जाते हैं।
जैसी इच्छा करते हैं जो,
वैसा ही वे पाते हैं।

सुख पाऊँ तो रोने लगता,
खुश होता में शोक में।
मैं विचरता हूं हर पल,
कल्पना लोक में।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।स्वयं को पहचानो।।

आगे बढ़ चल
सब तो चल लेते हैं।
फिर डर है  तुझे,
आखिर किस बात का।

और तू है सत्मार्ग पर।
फिर भय और संकोच क्यों?
क्यों यकीन नहीं तुझको,
अपनी असीमित शक्तियों पर।

चाहो गर तुम अभी,
चांद-तारे आसमां के,
जमीन पर उतार उतार दो।
पत्थर को पिघलाकर,
पानी कर दो।

भले आज छिप जाओ डरकर।
पर कभी न कभी तुम्हें,
मुश्किलों से टकराना ही होगा।
तुम्हारे पीठ दिखाने से,
दुश्मन और अधिक शक्तिशाली बन जाएगा।

अवसर भले तुम छोड़ दोगे।
मगर समय तुम्हें नहीं छोड़ेगा।
इसलिए आज ही कुछ करो।
सब को तुम से उम्मीदें हैं।
तुम समर्थ, हो लायक हो।
सबको इसका प्रमाण दो।

फल की चिंता न कर तू।
अनवरत सत्कर्म किए जा।
यह जान ले कि वक्त से पहले
और किस्मत से अधिक
कभी भी किसी को कुछ नहीं मिलता।

आलोचना किसकी नहीं हुई?
राम-कृष्ण भी इससे बचे नहीं।
संभव है तुम पर भी आक्षेप लगेंगे।
तुम उस पर ध्यान मत दो,
सदा विवेक की बात मानो
औरों को छोड़ो स्वयं को पहचानो।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
✍kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

।।पुण्यात्माओं का मेला।।

पीत वस्त्राभूषित जन,
शुभ मंत्रोच्चार,ये मंगलगान।
जो साक्षी इस पुण्य पल के,
सचमुच हैं वो भाग्यवान।

पावन माकड़ी धरती,
और यह पुनीत बेला।
लगा हो ज्यों यहाँ,
पवित्रात्माओं का मेला।

साक्षात् स्वर्ग का यहाँ होता भान।
जो साक्षी इस पुण्य पल के,
सचमुच हैं वो भाग्यवान।

ईशानुभूति में स्वयं का,
अहंकार घुल जाता है।
मोक्ष मिलता है मानव को,
सब पाप धुल जाता है।
आओ करें गुरूवाणी के अमृत का पान।
जो साक्षी इस पुण्य पल के,
सचमुच हैं वो भाग्यवान।

सावधान मानव! नारी
नहीं है केवल देह।
माता-भगिनी-पत्नी-सुता बन,
हम पर बरसाती नेह।
सदा करें हम उसका सम्मान।
जो साक्षी इस पुण्य पल के,
सचमुच हैं वो भाग्यवान।

असत्य-अधर्म त्याग,
ये मोह-माया छोड़ दे।
जग को विस्मृत कर,
निज को ईश्वर से जोड़ दे।
अवश्य तुझ पर कृपा बरसाएँगे भगवान।
जो साक्षी इस पुण्य पल के,
सचमुच हैं वो भाग्यवान।

पीत वस्त्राभूषित जन,
शुभ मंत्रोच्चार,यह मंगलगान।
जो साक्षी इस पुण्य पल के,
सचमुच हैं वो भाग्यवान।

रचनाकार:-अशोक "बस्तरिया"
मोबाईल नम्बर 9407914158
✍kerawahiakn86@gmail.com

चाटी_भाजी

 बरसात के पानी से नमी पाकर धरती खिल गई है.कई हरी-भरी वनस्पतियों के साथ ये घास भी खेतों में फैली  हुई लहलहा रही है.चाटी (चींटी) क...