शुक्रवार, 31 मार्च 2017

||बनेगा भारत एक सम्पन्न राट्र?||


देख लो,न देखा हो,
तुमने कहीं अगर.
ये है देश का,
एक महानगर.

चमचमाती,चौड़ी सड़कों पर,
फर्राटे से दौड़़तीं,ये मोटर-गाड़ियां.
चौक-चौराहों पर खड़ी,
महापुरुषों,देवताओं की मूर्तियां,

बहुत ऊँची और सुन्दर,
ये बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं.
ये स्कूल वैन में बैठकर,
पाठशाला जाते बालक-बालिकाएं.

बड़े-बड़े निजी और सरकारी,
स्कूल और अस्पताल.
फाइव स्टार होटलें,
और शॉपिंग मॉल.

निर्भीक होकर यहां बहू-बेटियां,
घूमती हैं हर जगह.
रक्षा हेतु सबकी हैं तैनात,
पुलिस भी जगह-जगह.

विशाल फ्लाईओवर,बड़े-बडे़ पुल,
दौड़तीं रेलगाड़ियां,उड़ते हुए वायुयान.
ये सभी हैं,
इस महानगर की शान.

रंग-बिरंगे फूलों से सजे,
बाग-बगीचे और ये रंगीन फव्वारे.
चिड़ियाघर,संग्रहालय,सिनेमाघर,
और भी हैं यहां,कई दिलकश नजारे.

हैं सभी के वस्त्र,
सुन्दर और चमकते हुए.
हर किसी के चेहरे भी,
प्रसन्नता से दमकते हुए.

जब से आरंभ हुई यहाँ,विकास की गति,
फिर ये कभी थमी नहीं.
लगता यहाँ किसी को,
किसी चीज की,कमी नहीं है.

भले हुआ हो किसी भी कीमत पर ,
किंतु,विकास हुआ है यहाँ बेहिसाब.
क्यों न दे दूं,मैं इस देश को ,
एक संपन्न राष्ट्र का खिताब.

पर ये तो है,
एक खूबसूरत ख्वाब.
तनिक इधर भी तो,
देखिए जनाब.

ये हैं,झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले.
शायद निर्धनता के ताप से,
हो गए हैं ये बिल्कुल काले.

एक साड़ी को फाड़ कर,इन्होंने,
बनाया है अपना आशियाना.
न कपड़ों का और न ही,
भोजन का इनके है ठिकाना.

जलाने को रोज इकट्ठा करते,
ये एक-एक सूखी लकड़ियां.
और इनके शौचालय हैं,
यही रेल की पटरियां.

दिन भर कमाकर भी जब,
इनका पेट न भरे.
फिर कहो कैसे,
ये किसी और विषय में बात करें.

किसी परिश्रमी के ही श्रम से ही,
नेता बंगलों में चैन की नींद सोते हैं.
किंतु आज भी कई लोग,
मरीजों-लाशों को अपने कंधे पर ढोते हैं.

नहीं पहुंच सकी है अब तक कई इलाकों में,
स्वास्थ्य सुविधाएँ,बिजली-सड़क-पानी.
देखकर ये,विकास की धीमी गति,
होती नहीं क्या हैरानी?

अब भी है गहरी,
समाज में विषमता की खाई.
आज भी लड़ते हैं देखो,
परस्पर भाई-भाई.

आज भी बेटियाँ,
गर्भ तक में नहीं है रक्षित.
नारियाँ अब भी,
नहीं हैं पूर्णत: सुरक्षित.

नहीं जाना चाहिए जिसे,
वह भी जा रहा मानव के पेट में.
आज का युवा वर्ग,
है दुर्दांत नशे की चपेट में.

जब न समाप्त होगा देश में,
हिंसा,अधर्म और भ्रष्टाचार.
तब तक न होगा भारत,
एक सम्पन्न राष्ट्र कहलाने का हकदार.

✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
Email:-kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

गुरुवार, 30 मार्च 2017

||क्या लिखूँ मैं कुछ और?||

बोला मुझसे वह,
आजकल बहुत प्रसन्न दिख रहा है.
शायद इसलिए,
कि तू लिख रहा है.

पर ऐसा करके,
तू क्या पाता है?
लेखन से तू,
कितना कमाता है?

आज जब सबने,
धर्म और सत्य का चोला उतार फेंका है.
क्या एक बस तू ही है,
जिसने लिया परहित का  ठेका है?

तुम्हारी नसों में बहता है,
जाने कौन सा रक्त.
कि केवल पीड़ा,प्रेम और प्रेरणा ही,
तुम्हारे लेखन में होता है व्यक्त.

लिखते हो केवल करुण,शांत रस पर ही,
कभी तो लिखो श्रृंगार पर.
किसी वृक्ष की छाया तले,
मिलते नायक-नायिका के प्यार पर.

या फिर ऐसा करो,
यह कलम तोड़ दो
और हमेशा के लिए,
लिखना छोड़ दो.

यदि किसी काम से,
अर्जित न हो तनिक भी अर्थ.
मेरी सोच में,
वो काम है बिल्कुल ही व्यर्थ.

कहा मैंने लिखता नहीं मैं,
किसी कमाई के लिए.
मेरी छोटी सी ये कोशिश है,
औरों की भलाई के लिए.

कागज और कलम से,
जाने मेरा किस जन्म का नाता है.
कि स्पर्श किए बगैर इन्हें,
मुझे चैन नहीं आता है.

आज जब चीख-पुकार ही,
मची है चारों ओर.
तो तुम ही कहो सिवा इसके,
क्या मैं लिखूं कुछ और?

भले ही मैं बड़े साहित्यकारों सा,
कलम न तोड़ूँ.
पर इच्छा है यही मेरी कि,
कभी लेखन न छोड़ूँ.

अगर सोचते हो तुम मैं छोड़ दूंगा लेखन,
तो यह है मात्र तुम्हारा भ्रम.
जिस दिन टूटेगी सांस मेरी,उसी दिन  टूटेगा,
मेरे लिखने का यह क्रम.

✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
Email:-kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

बुधवार, 29 मार्च 2017

||एक मां की चिट्ठी||

जैसे हर किसी की मां होती है न,मैं भी एक मां हूं.
मेरी बहू विद्युत विभाग में भृत्य के पद पर कार्यरत है.मेरे दो पोते हैं.मेरी बहू बहुत ही शांत,सरल, सुशील,मेहनती और कर्तव्यनिष्ठ है.मुझे कुछ काम करने से पहले ही कह देती है कि मां जी मैं कर लूंगी न.शादी के बाद से लेकर आज तक वह बिल्कुल वैसी की वैसी ही है.अगर नहीं है तो उसकी पहले जैसी वो मुस्कान,उसके गले का वह मंगलसूत्र,उनके हाथों में खनकने वाली वो चूड़ियां और उसके मांग का सिंदूर भी,अब नहीं है.

जानना चाहोगे न कि ऐसा कैसे हो गया?
आओ बताती हूँ.

मेरा बेटा विमल विद्युत विभाग में लाइनमैन था.वह मुझसे बहुत प्यार करता था.मेरे पति तो बहुत पहले ही गुजर चुके थे,इसलिए वही मेरे जीने का एकमात्र सहारा था.ऐसा कोई दिन मुझे याद नहीं जब वह मेरे पैर छुए बगैर अपनी ड्यूटी पर निकला हो.उस दिन भी जब वह ड्यूटी के लिए निकला मैंने उससे कहा-"बेटा आजकल के समाचार पत्रों में दुर्घटनाओं की खबरें पढ़कर मेरा जी घबराता है.तुम एक हैलमेट क्यों नहीं खरीद लेते.कहीं कोई अनहोनी न हो जाए?"
उसने हंस कर कहा-"अरे माँ जिसके सर पर तुम जैसी देवी का हाथ हो,उसके साथ भला कौन सी अनहोनी हो सकती है?पर तुम कहती हो तो आज ड्यूटी से लौटते वक्त एक हैलमेट जरुर खरीद लाऊंगा."

पर उसी दिन ही ड्यूटी जाते वक्त एक व्यस्त चौराहे पर एक चार पहिए के साथ उसके बाइक की टक्कर में उसके सिर पर गहरी चोट आई और वह दुनिया में न रहा.
अगर उसने पहले से ही हैलमेट खरीद कर,हैलमेट लगाया होता तो शायद उसकी जान बच सकती थी.

आज बहू को विमल की जगह पर ही भृत्य के पद पर अनुकंपा नियुक्ति मिली है.

आपकी ज़िंदगी केवल आपकी नहीं है बल्कि उनकी भी है जो आपसे बहुत प्यार करते हैं.

यह चिट्ठी मैं इसी उम्मीद में लिख रही हूं कि शायद किसी एक व्यक्ति को भी इससे कुछ सीख मिल जाए.

                                                 *मैं एक माँ*

✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
Email:-kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

||एक अद्भुत परिवर्तन||(कहानी)

लगभग चार साल की बच्ची को सीने से लगाए वह  हर दिन प्रशिक्षण स्थल बी आर सी भवन माकड़ी  में उपस्थित होती थी,जहाँ रीड इंडिया रीड छत्तीसगढ़ से संबंधित तीन दिवसीय प्रशिक्षण चल रहा था.उस महिला के सांवले किंतु आभायुक्त चेहरे,पहनावे के ढंग तथा बातचीत के तरीके से ही उसके शिक्षित और सभ्य होने का पता चलता था. हर वक्त उसके माथे पर एक शांति तैरती प्रतीत होती थी.रोज अमरावती से लगभग 15 किलोमीटर का सफर बस से तय कर वह प्रशिक्षण स्थल पर पहुंचती थी.

प्रशिक्षण के अंतिम दिन सबको यात्रा भत्ता दिया गया.अपने गांव से अकेला होने के कारण मैंने कोंडागांव होते हुए गांव वापस जाने की सोची. बस स्टैंड पर मैं कोडागांव जाने के लिए बस में बैठा. शाम के 4:30 बज चुके थे बस माकड़ी से चलने को तैयार थी,मैंने देखा कि बस में वही औरत बैठी हुई है और साथ ही  उसके गोद में  उसकी नन्हीं सी बच्ची भी है.

उसने मेरी ओर देखा और उसके चेहरे पर वही चिर-परिचित मुस्कान तैर गई.
बातों-बातों में उसने मुझे अपना भाई बना लिया और उसकी नन्हीं सी बच्ची मेरी भांजी बन गई.उसकी बेटी का नाम ममता था और वह औरत जो अब मेरी अनजानी बहन बन गई थी उसने अपना नाम सरिता बताया.

हम दोनों एक ही सीट पर बैठे थे. मैंने उनसे पूछा कि उसने एकाएक मुझे अपना भाई कैसे बना लिया?उसने बताया कि वह प्रशिक्षण स्थल पर व्यक्त मेरे विचारों और अनुभवों से प्रभावित थीं.और शायद मेरे जीवन में घटित कुछ घटनाएं उनके जीवन के कुछ हिस्सों का स्पर्श करती थीं.
उसकी बातों में मुझे आत्मीयता की झलक मिली.ग्रामीण परिवेश में रहकर भी,हिंदी शब्दों का शुद्ध उच्चारण,वार्तालाप का प्रभावशाली अंदाज और विषय की गहराई तक पहुंचने की उसकी क्षमता वास्तव में आश्चर्यजनक थी.

धीरे-धीरे बस के पहिए आगे की ओर बढ़ चले और इधर सरिता मुझे अपने अतीत में ले  चली.
उनसे मैंने उसकी वह कहानी सुनी जिसे सुनकर मैं सचमुच हैरत में पड़ गया.मैंने सरिता के किसी और ही रूप का साक्षात्कार कर लिया.उसकी बीती जिंदगी के बारे में जानकर मैंने जाना,एक ऐसे औरत को जो मुश्किलों से हँसते हुए लड़ना जानती है,जो निराशा के गहन अंधकार में विश्वास का दीया जला कर चल रही है.जो अपने दम पर ही अपनी तकदीर बदलने में यकीन करती है. जिसके जीवन में असह्य पीड़ा है,आह है,लेकिन इन परेशानियों के बावजूद वह-"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन"की उक्ति पर विश्वास रखते हुए "स्थित प्रज्ञ"बनी हुई है.

सरिता आठवीं पास लड़की थी.वह नववीं पढ़ने के लिए पास के ही एक गाँव में जाती थी,उम्र थी 17 वर्ष.
पढ़ाई के दौरान ही सरिता की मानसिक स्थिति खराब हो गई और इसी बीच नजदीक के ही एक गांव के लड़के के साथ सरिता का ब्याह करा दिया गया.आखिर माता-पिता उसे बोझ के सिवाय और कुछ नहीं समझते थे(विक्षिप्तता के कारण).
सरिता का विवाह तो हो गया लेकिन सरिता अब भी एक मनोरोगी थी.शादी के लगभग साल भर बाद सरिता की मानसिक स्थिति सुधरने लगी.अब वह बिल्कुल ठीक हो गई,उसे सब कुछ याद आने लगा.उसे अपनी शादी तक के बारे में पता नहीं था.
लेकिन अब उसे अपनी किस्मत पर रोना आया.उसे अपनी शादी पर पछतावा होने लगा.सरिता ने भी कुछ सपने देखे थे,उसके भी कुछ अरमान थे लेकिन कम उम्र में विवाह हो जाने के कारण वह उन्हें पूरा नहीं कर सकती थी. ऊपर से उनके पति की लत ने उसे परेशान कर दिया.उसका पति शराब,गांजा,बीड़ी सिगरेट,जुए का आदी था.इसी में ही वह सारे रुपये उड़ा देता था.घर के सभी सदस्य घर के कामों में हाथ बँटाते,लेकिन सरिता का पति एकदम ही निठल्ला बनकर घूमता रहता था.सरिता ने अपना सिर पीट लिया.घर के सभी सदस्य भी उसके पति की आदतों से त्रस्त थे.

इसी बीच सरिता ने एक प्यारी सी बच्ची को जन्म दिया.नाम रखा गया ममता.लेकिन उनके पति नहीं सुधरे. समस्याओं का बोझ अब सरिता के सिर पर आ गया.पति तो था ही व्यसनी,पर अब ममता के पालन-पोषण की जिम्मेदारी भी उस पर ही थी.घर की आर्थिक स्थिति भी ठीक न थी.जिंदगी की कई तजुर्बों से बेखबर सरिता एक बच्ची ही थी,जो ठीक से चलना भी नहीं सीख पाई थी.जीवन के इस युद्ध में वह खुद को एकदम एकाकी महसूस करने लगी.अब उसे अपने जीवन में केवल अंधेरा ही अंधेरा दिखने लगा.

और एक दिन सरिता जब अपने मायके गई हुई थी,उन्होंने मायके में अपनी जीवन लीला समाप्त करने की सोची.जीवन की विषम परिस्थियों से वह इस तरह टूट चुकी थी कि अब उसे मृत्यु के सिवाय कुछ और नहीं सूझ रहा था.बेटी ममता का मासूम चेहरा उसे लगातार रुला रहा था,लेकिन हृदय पर पत्थर रख वह ममता को घर में ही छोड़ कर जंगल की ओर निकल पड़ी.आखिर उस बच्ची का क्या अपराध था जो वह आज अपनी मां से सदा के लिए अलग होने जा रही थी.
सरिता ने साल के पेड़ की शाखा से रस्सी बांध दी.बस अब उसमें झूल कर खुद को खत्म कर देने की देरी थी.लेकिन मनुष्य के चाहने मात्र से उसे मौत नहीं मिल जाती.

जैसे ही सरिता फांसी के फंदे में झूलने को तैयार हुई,तभी उनकी सहेलियाँ और माता-पिता उन्हें ढूंढते हुए वही पहुंचे,क्योंकि उन्हें पहले से ही ऐसी किसी अनहोनी की आशंका थी.अब सरिता शर्म से पानी-पानी हो गई.वह बच्चों सी रोने लगी.उसके मां पिताजी और सहेलियोंने उन्हें धैर्य रखने को कहा.उन्होंने कई तरह से सरिता को समझाया.
आखिर सरिता को भी अपनी जिंदगी खत्म कर ममता को अनाथ करने का क्या हक था?सरिता का हृदय तेजी से स्पंदित हो रहा था.उसके भीतर कोई अद्भुत परिवर्तन हो रहा था.उसने स्वयं को बदल डालने का निश्चय कर लिया. उसने ठान लिया कि वह नकारात्मक विचारों को अपने पास फटकने भी नहीं देगी.वह स्त्री है तो क्या हुआ?अब वह  अबला नहीं रहेगी बल्कि अब वह एक सबल और आत्मनिर्भर नारी बनेगी.उसने विचारों और कर्मों को एक नई दिशा देकर अपने जीवन स्तर को सुधारने का दृढ़ संकल्प कर लिया.

वह अपने ससुराल पहुंच गई.लेकिन अब वह बिल्कुल बदल गई है,अब वह पुरूषों की भाँति कठोर परिश्रम करती है,साथ ही समय निकाल कर पढ़ाई भी करती है,क्योंकि उसे अपने कई सपनों को पूरा करना है,जो बचपन में अधूरे रह गए हैं.सरिता के भीतर एक नया परिवर्तन हो चुका है.यही कारण है कि आज मेरे सामने जो सरिता नजर आ रही है,वह एक शोषित,पीड़ित और उपेक्षित नहीं बल्कि वह एक संघर्षशील, विश्वासी और हिम्मती नारी है,जिसे कोई उसके पथ से विचलित नहीं कर सकता.उसने अपने व्यसनी पति को सही रास्ते पर लाने का प्रण कर लिया है.उसे पूर्ण विश्वास है कि एक दिन उसके पति नशे की लत छोड़ देंगे और वो दिन उसकी जिंदगी का सबसे अहम और बहुत ही खुशी का दिन होगा.
अमरावती में बस रुकी जहां वह अपने बेटी ममता के साथ बस से उतरी.उन्होंने मुझे भाव भीनी विदाई दी.गाड़ी चल पड़ी मैं दोनों को तब तक देखता रहा जब तक कि वो मेरी नजरों से ओझल न हो गए.

आज जब उनसे मिले हुए 8 साल बीत गए.मैं कह नहीं सकता कि वह अपने उद्देश्यों में कितनी सफल हुई होगी,क्योंकि मैं उनसे फिर कभी नहीं मिला.

✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
e-mail-kerawahiakn86@gmail.com
मो.नं.-9407914158

सोमवार, 27 मार्च 2017

||जीवन का वास्तविक ज्ञान||

एक मासूम बच्चा.
था उम्र का कच्चा.
लेकर मन में,उत्तर की आस.
गया प्रश्न लेकर वह,अपनी मां के पास.
पूछा मां से,मैं कौन हूं?
मां बोली अरे नहीं पता तुझे,कमाल है.
मेरी आंखों का तारा,तू मेरा लाल है.
पर माँ ने उसे जो बताया.
वह उत्तर,बच्चे को नहीं भाया.

फिर कभी आया रक्षाबंधन का त्यौहार.
राखी बांध,बहन ने लुटाया भाई पर प्यार.
फिर बोला भाई कि
पूछता हूँ तुमसे कुछ मैं,
जरा सच-सच कहना.
आखिर मैं कौन हूं बहना?
बोली बहन,बात अब तक तुम्हें समझ न आई.
कि तुम तो हो मेरे प्यारे भाई.
पर बहन की बात भी,
प्रतीत हुई उसे अपुष्ट.
उसके उत्तर से भी वह,
बिल्कुल नहीं हुआ संतुष्ट.

कामयाबियों की,
नई सीढ़ियां चढ़ने.
बड़ा होकर वह गया,
किसी पाठशाला में पढ़ने.
यहां पर भी वह,
स्वयं से ही जूझता रहा.
मन की पहेली को वह,
खुद ही बूझता रहा.
फिर एक दिन अवसर पाकर उसने,
शिक्षक से पूछा मैं कौन हूं?
बोला शिक्षक अरे तुझे नहीं है खबर?
कि तुम्हारा नाम तो है अमर.
जवाब पाकर भी शिक्षक से,
वह रहा व्यथित.
अब भी था वह,
एक संतोषजनक उत्तर से वंचित.

एक दिन वह गया निकट के एक मंदिर में.
थी विशाल देव प्रतिमा,देवालय के अंदर में.
था खड़ा पीत वस्त्र पहने पुजारी,
माथे पर था लाल टीका.
सोचा,क्यों न इसी  से पूछूँ?इसने  तो जीवन में,
है बहुत कुछ सीखा.
पूछा उसने कि बताइए महाशय.
कौन हूं मैं और क्या है मेरा परिचय?
बोला पुजारी तुम्हें ज्ञात नहीं है बंधु.
कि तुम तो हो एक हिंदू.
अपनी समस्या का समाधान न पा सका.
पुजारी से भी वह सच्चा ज्ञान न पा सका.

जवान हो गया वह और,
एक दिन हो गया उसका विवाह.
पर न हो सकी पूरी उसकी,
अंतर्मन के प्रश्नोत्तर पाने की चाह.
एक दिन बोला वह अपनी सहचरी से,
तनिक मेरे निकट आओ.
मैं हूं कौन?
मुझे,जरा ये बताओ.
बोली पत्नी मुझे है आपसे असीम रति.
आप तो हैं मेरे स्वामी,मेरे पति.
पत्नी के उत्तर से भी,
वह हुआ निराश.
न बुझी उसकी,
स्वयं को जानने की प्यास.

पुत्र से पिता बना,
पिता से वह बना दादा.
और एक दिन मर गया वह,साथ ही,
मर गया,उसके सत्य जानने इरादा.
शरीर त्याग कर उड़ चली,
आकाश मार्ग से उसकी आत्मा.
पहुंची परलोक में,
पूछा फिर उससे परमात्मा.

कि बताओ तुम कौन हो?

आत्मा बोली मेरा नाम तो अमर है.
यह सुनकर हँसा परमात्मा बोला,
ये मात्र तुम्हारा भ्रम है.

मन को एकाग्र करो,
और तनिक तुम रहो मौन.
ये कुछ दृश्य देखो फिर,
जान जाओगे,
कि आखिर तुम हो कौन.

प्रथम दृश्य विशाल शिवालय,
जहाँ गूँज रहे हैं भोले बाबा के जयकारे.
है भक्तों की है अपार भीड़.
उनमें से एक वह भी है.
मुख से जपता हुआ निरंतर,
ओम नम: शिवाय.
पीले वस्त्र,माथे पर तिलक,
गले में तुलसी की माला और,
हाथ में कमंडल लेकर,
शिवलिंग पर जल चढ़ाता हुए.

दूसरा नजारा यह शायद कोई मस्जिद है.
जहां वह अदा कर रहा है,
दोनों घुटनों को मोड़े हुए नमाज.
सिर ऊपर उठा हुआ है.
आँखें ऊपर देख रही हैं
और खुदा की बंदगी में,
दोनों हाथ भी ऊपर उठे हुए हैं.
और वह कुछ मांग रहा है.
शायद अल्लाह ताला से,
दुनिया में अमन-चैन,
और लोगों की सलामती की दुआ.

तीसरा दृश्य वह है,
एक बड़े गुरुद्वारे में.
उसकी बड़ी-लंबी दाढ़ी,
वह सिर पर पगड़ी पहने.
पालथी मारकर बैठा हुआ.
दोनों हाथ जोड़कर और
मूँदकर अपने दोनों नेत्र,
गा रहा है वह अपने गुरु के शब्द-कीर्तन.
और उच्चारण कर रहा है मंत्र.
एक ओंकार सतनाम कर्ता पुरख.

चौथा दृश्य,यह है एक विशाल गिरिजाघर.
जिसके भीतर एक बड़ा घंटा,
सामने खड़ी एक बड़ी सी आदमकद,
क्राइस्ट की सफेद मूर्ति भी.
क्राइस्ट के सिर पर कांटों का ताज,
और हाथ-पैरों में ठोंके गए,
रक्तरंजित कील भी.
उसके सामने ही खड़ा होकर *वह*,
इस गिरिजाघर में वह पढ़ रहा है,
अपने प्यारे परमेश्वर के,
पवित्र वचनों का संग्रह,बाइबिल.
कर रहा है वह प्रेयर,
ताकि दुनिया में शांति का हो साम्राज्य.

और बहुत कुछ देखा उसने,
देखा कि कभी वह नर है,
तो कभी है, वह नारी के वेश में.
कभी वह भारत की भूमि में है,
तो वह,कभी है किसी और देश में.

न हिन्दू वह,न सिख,न ईसाई,
और न ही था वह मुसलमान.
न स्त्री,न पुरुष,वह था,
केवल और केवल एक इनसान.

ये सब देख समझ गया वह कि,
ये लिंग,जाति,धर्म तो है मात्र एक माया.
वास्तविकता जानकर जीवन की,
वह बहुत-बहुत पछताया.

सोचा काश मैं धरती पर रहते ही,
ये सब समझ पाता.
तो आज मैं शायद,
इस तरह न पछताता.

✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
Email:-kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

रविवार, 26 मार्च 2017

||आओ हम बचाएँ जल||

बंद कर दें उसे,
यदि कहीं पर खुला हो कोई नल.
आओ हम बचाएँ जल.

जल का महत्व न समझा हमने,
जाने किस दुनिया में रहते थे.
पानी की तरह पैसा बहा रहा यह,
कल तक हम ये कहते थे.
न समझा यदि हमने इसकी महत्ता.
नहीं रहेगा अपना कल.
आओ हम बचाएँ जल.

क्या हरे-भरे भुट्टों के खेत,
तुम्हारे मन को नहीं लुभाते?
क्या इस मिट्टी की उपज,
तुम नहीं खाते?
गर मिला न पानी तो कैसे,
तैयार होगी तुम्हारी फसल?
आओ हम बचाएँ जल.

है विवर्ण किस तरह,
देखो ये शुष्क धरती.
अपने ही पुत्रों के कृत्यों पर,
शायद यह रुदन करती.
कल पैदा न हो जाए कोई कठिन समस्या,
कि जिसका न हो कोई हल.
आओ हम बचाएँ जल.

प्यासे सब जीव-जंतु भी वन के,
निकल पड़ते हैं करने जल की तलाश.
पर कई मर जाते हैं,
इससे पहले कि पूरी हो उनकी आस.
करनी हमारी ये सब और,
क्यों कोई दूसरा पाए इसका फल.
आओ हम बचाएँ जल.

वन,जमीन और नदियाँ भी,
अब हिस्सों में बँट रहे हैं.
जिन वृक्षों की होती थी कभी पूजा,
वे धीरे-धीरे अब कट रहे हैं.
कल का संस्कारी मानव.
आज किस राह पर गया निकल.
आओ हम बचाएँ जल.

पानी की किल्लत में,
जाने वे किस तरह जीते हैं.
इसका महत्व पूछो उनसे,
जो पोखर का दूषित पानी पीते हैं.
ऐसे लोगों के साथ तो,जल व्यर्थ बहा.
न करें हम कोई छल.
आओ हम बचाएँ जल.

बंद कर दें उसे,
यदि कहीं पर खुला हो कोई नल.
आओ हम बचाएँ जल.

✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
Email:-kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

शुक्रवार, 24 मार्च 2017

||मेरे आंगन में खिला गुलाब देखो||

सुंदरता इसकी लाजवाब देखो.
मेरे आंगन में खिला गुलाब देखो.

सपना था कि मेरे द्वार पर भी ये फूल खिले.
मुझे इसके सौंदर्य का सुखद दीदार मिले.
पूरा हुआ मेरा वह ख्वाब देखो.
मेरे आंगन में खिला गुलाब देखो.

कांटों के बीच रहकर भी यह मुस्कुराता है.
ग़मों में भी खुश रहो सदा यही हमें बताता है.
नवयौवना सी विकसित इसका शबाब देखो.
मेरे आंगन में खिला गुलाब देखो.

हृदय में इसके हैं कई जख्म गहरे.
प्रसन्न है किंतु यह,है उन दुखों से परे .
इसकी खूबसूरती पे खुद शर्मिंदा महताब देखो.
मेरे आंगन में खिला गुलाब देखो.

सुंदरता इसकी लाजवाब देखो.
मेरे आंगन में खिला गुलाब देखो

✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
Email:-kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

गुरुवार, 23 मार्च 2017

|| प्रभु मैं हूँ तुम्हारी शरण में ||

हे ईश्वर मुझे,
एक नई शक्ति दे.
खो गई है जो संभवत:,
फिर से मुझे वह भक्ति दे.

था अब तक सोया मैं,
तुम्हारे शब्द से ही था जागा.
फिर से निर्जीव हो चला,
मैं मूढ़,कितना अभागा.

रहा सदा ही,
मैं तुम्हारा उपकृत.
किन्तु सुख पाकर,
करता रहा मैं तुम्हें विस्मृत.

पड़ी मुझ पर ज्यों,
किसी दैत्य की काली छाया.
कि घेर  रही मुझे,
ये सांसारिक मोह-माया.

क्या करूं क्या नहीं?
मुझे कुछ भी नहीं सूझता.
है मन जैसे,
स्वयं से ही जूझता.

मिल गया  कुछ तो,
हो रहा मैं आत्म मुग्ध.
यदि न मिला वह,
तो हो रहा मन क्षुब्ध.

जब-जब भी जीवन में,
विपत्तियों का समय आया है.
उन विषम परिस्थितियों से,
तुमने ही मुझे बचाया है.

प्रभ मुझे इस,
भयावह भँवर से निकाल लो.
न बन जाऊँ कहीं पतित मैं,
मुझे तनिक संभाल लो.

मेरी सारी पीड़ाएँ हर कर,
बना दो तुम मुझे अशोक.
ताकि ये निजी व्याधियां,
न सकें मेरा कर्तव्य पथ रोक.

कुरुभूमि के निराश अर्जुन की तरह,
प्रभु मैं हूँ तुम्हारी शरण में.
न त्यागो मुझ कृतघ्न को,
स्थान दो मुझे अपने चरण में.

✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
Email:-kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

आमि काय पाट कुति रवाँ?(हल्बी चिंतन)

आमि बस्तर चो लोग खपरा चो घर ने,नन्दी धड़ी,आरु रूक साँय ने रतो बीता मन आँव.पुरखति दाँय ले रुख-राई ले मिरतो तीज मन ले आपलो जीवना चलाउँसे.
सरगी,महु,चार,टेमरु,जाम.साहजा,सिवना,कर्रा,कहू आउर कितरोय परकार चो रुख मन आमचो संगवारी आत.
घरे बले कुकड़ी,हांसा,गाय-बैला,बोकड़ी,भैंसा,कुकुर ए पसुमन के पोसुन्से.माने कि आमि परकिरति चो दीलो तीज ने आपलो बसर करुन्से.हुनि काजे आमचो जीवना हरिक-उदिम ने चलेसे.आमके काईं तीज चो चिंता-फिकर नी हाय.

मांतर आजि जो  जुग उनति-बाड़ती आउर  कल-कारखाना चो आय.आजि आमि जे बाट  दखुन्से हुन बाटे बिकास होते दखा दयेसे.खेती-किसानी हव कि काँई आउर,सब बाटे एक ठान नवा बदलाव दखा दयेसे.
आजि जेबे सबाय बाट,लोग मन बिकास चो नवा-नवा कहानी लिखसोत,लेकीमन लेकामन संग काँध ले काँध मिसाउन मिहनत-मसागत करसोत.किसान मन फसल उपजातो नवा-नवा जतन करसोत.

आमि काय पाटकुति रवाँ?
आमि काय बिकास नी करुँ गुने?
काय आमि आउर लोग मन असन आगे बड़ुक नी सकूँ?

इया अइ गोठ उपरे बिचार करुँ.

सबले पहिल तो ये सत्तय गोठ आय कि मनुक जीवना अमोल आय बललो ने एचो मोल करुक नी होय.अइ गोठ के बिचार करुन आमके आपलो जमाय काम -बूता के निको बनाउक पड़ेदे.

आमि बस्तरिया लोग चो उनति बाड़ती चो बाट ने सबले बड़े काटा आय नसापानी.नसा कएक तीज चो नसा.
जसन लोग मन मँद,सल्फी,गुड़ाखु,बीड़ी,सुरती,सिगरेट
अउर कइ परकार चोनसा करसोत.
लोगबाग तो बलसोत चे कि नसापानी ने काय खराबी आसे गुने?बड़े-बड़े साहाब मन पीवसेत बे,हुनमन के तो कोनी काँई नी बलोत.

मान्तर सुना तुमी,भाई-बहिन मचो,
कि नसा कसनै हिसाब ने बले आमचो जीवना काजे नीको नुहाय.नसा आमचो देंह के कमजोर बनायसे,घर-परिवार ने झगड़ा उपजायसे,आमचो धन के खायसे अउर समाज ने आमचो इजत के बले कम करेसे.
तो हुनी काजे दादा दीदी मन आमके आपलो परिवार,समाज,गाँव,देस चो बाड़ती काजे नसा के छाँडुक चे पड़ेदे.

ए तो होली छांडतो गोठ मांतर छांडतो संगे-संग आम के कांई तीज के धरुक बले पड़ेगे,अउर हुन धरतो बीती तीज आए सिक्छा,बललो ने गियान.आजि आमि नी पड़लो-लिखलो काजे पिछड़लुँसे.आउर देस,आउर राज बिता मन हमचो ले कितरोय आगे बड़ला.कसन ने?काय काज कि हुन मन सिक्छा चो बाट के धरला.

जेबे आमचो घर-घर ने  सिक्छा चो परचार-परसार होयदे, माइ-पिला,डोकरा-ढाकरी जमाय पड़ुक लिखुक सीखदे,आपलो हक
आउर,आपलो महत्व के जानदे,खेती-किसानी चो नवा-नवा तकनीक सीखदे,जमाय लोग मिलन-जुलुन आपलो परिवार,आपलो गांव और आप लोग देस चो उनति बाड़ति काजे पूरे डाहका फेकदे,अउर नसा राकसा चो संग के छांडदे नइ,हुनि दिन ले आमचो जीवना अउर बले नंगत होते जायदे.
सत्तय आय कि नुहाय?

✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
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📞9407914158

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