मंगलवार, 30 मई 2017

||विद्यार्थी जीवन का वो सुनहरा समय||

1991 में जब मैं कक्षा पहली में भर्ती हुआ तब प्राथमिक कक्षाओं में चार विषय हुआ करते थे.
हिंदी जिसे बाल भारती के नाम से जाना जाता था,गणित,आस-पास की तलाश जो वास्तव में विज्ञान थी  और सामाजिक विज्ञान. कक्षा 1 और 2 में बाल भारती और गणित ही विषय थे.

खैर आज हम कक्षा 1 से 5 तक की कक्षाओं के बाल भारती में पढ़े गए कुछ सुन्दर-प्रेरक पाठों को याद करने की कोशिश करेंगे.

कक्षा पहली:-
पाठ 1 से 6 तक केवल पशु पक्षियों के नाम और उसके साथ चित्र बने हुए थे. पाठ 7 में  "घर चल" नाम का एक पाठ था जो कविता की तरह थी,किंतु उसमें एक भी मात्रा का प्रयोग नहीं किया गया था.

पाठ 8-शाला जा.
चित्र में एक मां अपनी बेटी को छतरी ओढ़ाए स्कूल की ओर इशारा करते हुए उसे पाठशाला जाने के लिए कह रही है.बहुत सुंदर और बच्चों को शाला जाने के लिए प्रेरित करने वाला पाठ.

पाठ 9-गुड़िया
बच्चों के आकर्षण का केंद्र.

और भी कुछ पाठ थे.

पाठ 19 दिन निकला एक बेहतरीन बाल कविता
कि आज तक नहीं भूला...

बड़े सवेरे मुर्गा बोला.
चिड़ियों ने अपना मुंह खोला.
आसमान पर लगा चमकने,
लाल लाल सोने का गोला.
ठंडी हवा बही सुखदाई.
सब बोले दिन निकला भाई.

गोपाल की गाय :-यह के महत्व को रेखांकित करती एक बेहतरीन निबंधात्मक पाठ थी.

मैं गाँधी बन जाऊँ:- मां खादी की चादर दे दे मैं गांधी बन जाऊं एक सुन्दर व प्रेरक बाल गीत थी.

खरगोश और कछुए की कहानी कौन जीता?भला कोई भूल सकता है?
बेचारा कछुआ धीरे-धीरे चलते हुए भी अपने लक्ष्य तक पहुँच जाता है और अभिमान खरगोश पर भारी पड़ जाता है.

एक और बेहतरीन कहानी थी अंधा और लंगड़ा.
जिसमें दोनों मेला जाने के  बारे में सोचते हैं.पर जाएँ कैसे?अंधे के कंधे पर लंगड़ा बैठ जाता है.लंगड़ा राह बताता है और अंधा उस राह पर चलता जाता है और इस तरह वे मेले में पहुंच जाते हैं.आपसी सामंजस्य और एकता को बढ़ावा देती है कितनी बेहतरीन कहानी थी ये.

कक्षा पहली में एक और सुन्दर कहानी थी शीर्षक याद नहीं है.जिसमें शेर चूहे को छोटा समझकर उसकी हँसी उड़ाता है.पर एक दिन वही मूसक शिकारी के जाल काटकर शेर के प्राण बचाता है. क्या खूब कहानी थी.

कक्षा 1 के बाल भारती  में और कई सारे पाठ रहे होंगे.पर स्मृति पटल से ये स्मृतियाँ समय बीतने के साथ ही विस्मृत होती गईं.

कक्षा 2:-

पाठ 1 ईश विनय
चित्र में एक बालक और बालिका हाथ जोड़कर आंखें बंद कर ईश्वर की प्रार्थना में लीन हैं.
क्या सुन्दर कविता है...

जिसने फूलों को महकाया
जिसने तारो को चमकाया
जिसने सूरज चांद बनाया,
जिसने सारा जगत बनाया
हम उस ईश्वर के गुण गाएँ.
उसे प्रेम से शीश झुकाएं.

पाठ 2 लाल बुझक्कड़ की सूझबूझ
क्या सुन्दर कहानी थी.
इस पाठ का आखरी लाइन तो आप को भी याद होगा.
लाल बुझक्कड़ बूझ के,और न बूझो कोय.
पैर में चक्की बांध के,हिरना कूदो होय.

पाठ 3 तितली
क्या खूब कविता.
इसमें कुछ पंक्तियाँ थीं

"पास नहीं क्यों आती तितली
दूर-दूर क्यों रहती हो.
फूल फूल का रस लेती हो,
हमको न रस देती हो."

पाठ 4:रक्षाबंधन क्या मर्मस्पर्शी कहानी थी वह.
एक लड़की जिसका कोई भाई नहीं है.वह रक्षाबंधन के दिन रास्ते पर खड़ी होकर देख रही है
कि कोई मिले जिसे वह अपना भाई बना ले. और आखिर उसे मुझसे भाई मिल ही जाता है.

पाठ 5 अपना काम आप करो स्वावलंबन की शिक्षा देती ईश्वर चंद्र विद्यासागर से संबंधित प्रेरक प्रसंग थी.

चल रे मटके टम्मक टूँ बच्चों के लिए एक बहुत ही मजेदार कविता थी. कविता क्या थी जैसे कविता के रूप में कहानी थी.
आप भी पढ़िए...

हुए बहुत दिन बुढ़िया एक.
चलती थी लाठी के टेक
उसके पास बहुत था माल.
जाना था उसको ससुराल.
मगर राह में चीतेे-शेर.
लेते थे राही को घेर.
बुढ़िया ने सोची तदबीर.
जिससे चमक उठे तक़दीर.
मटका एक मंगाया मोल.
लंबा-लंबा गोल-मटोल.
उसने बैठी बुढ़िया आप.
वह ससुराल चली चुपचाप.
बुढ़िया गाती जाती यूँ.
चल रे मटके टम्मक टूँ.

इसी कक्षा में एक और बेहतरीन कहानी थी "बीरबल की चतुराई".

एक कविता याद आ रही है
"सोने का अंडा" यह भी बहुत ही प्रेरक कविता थी जिसमें एक लोभी व्यक्ति रोज सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को लालच में मार देता है पर....!
कविता की अंतिम पंक्तियां इस प्रकार की थीं
अंडा एक न उसने पाया.
रो-रो बहुत बहुत पछताया.
एक और सुंदर और प्रेरक कविता थी "आगे कदम बढ़ाएंगे"
भारत की एकता अखंडता और धार्मिक सौहार्द को बनाए रखने वाली यह कविता मुझे आज तक याद है.
चंद लाइनें..

मुश्किल कितनी भी आ जाएं,उनसे ना घबराएंगे
हम भारत के वीर सिपाही,आगे कदम बढ़ाएंगे.
जाति-पाति की तोड़ दीवारें पथ पर बढ़ते जाएंगे.
हम भारत के वीर सिपाही,आगे कदम बढ़ाएंगे.

एक और कविता शायद इसी कक्षा में थी.
"झूल भैया झूल"

झूल भैया झूल
कदम्ब के फूल.

क्या सुंदर कहानियां थी कितने प्यारी कविताएँ थीं साथ में विविध रंगों से सजे चित्र भी.

रंगीन पुस्तकें बच्चों के मन में गहरा प्रभाव डालती हैं. दूसरी कक्षा की पुस्तकों की तुलना में पहली कक्षा के पुस्तक अधिक रंगीन थे. उस समय केवल पहली और दूसरी की कक्षाओं के पुस्तक ही रंगीन हुआ करते थे.

कक्षा 3

कक्षा 3 के पाठ 1 में एक प्यारी सी कविता थी जागो प्यारे.
शुरुआती दो पंक्तियाँ थीं

उठो लाल अब आंखें खोलो.
पानी लाई हूं मुंह धो लो.

पाठ 2 में राम भरोसे नामक आदमी की कहानी थी जो विद्यार्थियों को स्वावलंबी बनने की शिक्षा देती थी.

"अब्बू खाँ की बकरी"नामक कहानी भी चाँदनी  नामक बकरी के साहस और विश्वास की कहानी थी.आरुणि की गुरु भक्ति और उपमन्यु कहानी भी शायद इसी कक्षा के पाठ थे.

इसी कक्षा में है "नर्मदा की आत्मकथा"नाम का पाठ भी था.

"दीपावली"नामक पाठ में  दीपावली त्योहार का सुन्दर वर्णन था.

इसी कक्षा में शायद राजकुमारी और घास की रोटी नामक कविता भी थी.
इस कविता में महाराणा प्रताप को जगलों में अभावग्रस्त जीवन जीते हुए दिखाया गया था.
तुतली भाषा में प्रताप की पुत्री माँ से कहती है

लोती थी तो देतीं थी,खाने को तुम मुझे मिथाई.
अब खाने को कहती तो आती क्यूँ तुझे लुलाई.

इसके अलावा माखनलाल चतुर्वेदी की सुप्रसिद्ध रचना पुष्प की अभिलाषा भी इसी कक्षा में सम्मिलित थी.

कक्षा 4
कक्षा चार में भी कई प्रेरक कहानियां और कविताएं थीं.

आँखों का मोल,कोरा ज्ञान आदि बेहतरीन कहानियाँ थी.
सुभद्रा कुमारी चौहान की वीर रस युक्त कविता झांसी की रानी भी शायद इसी कक्षा में शामिल थी.
नाम बड़ा या काम भी बेहतरीन कहानी थी.
"खुसरो की पहेलियां" "यह कदम्ब का पेड़",
और इसी कक्षा में शामिल पांच बातें नाम की कहानी भी मेरे जीवन में पढ़ी गई एक श्रेष्ठ कहानियों में से एक  है.

कक्षा 5:-

कक्षा पांचवी में कविता आह्वान,किष्किंधा कांड से ली गईचौपाइयाँ व दोहे(राम-सुग्रीव की मैत्री के नाम से संकलित),रेलगाड़ी नामक निबंध,कहानी अंधेर नगरी,प्रायश्चित,बहू लक्ष्मी ,प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी पंच परमेश्वर  नाटक गुरु दक्षिणा,आदि विद्यार्थियों में देश भक्ति एकता,प्रेम,भाईचारा की भावनाएँ भरतीं थीं.

क्या पाठ थे.
क्या कविताएँ-कहानियाँ थीं.

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन.....|

अशोक नेताम "बस्तरिया"

||निर्झर का सन्देश||

एक नर,
निज शीश हाथ धर.
बैठा हताश-निराश,
चित्रकोट प्रपात के तट पर.

जो है संभवत:,
दुर्भाग्य का मारा.
या फिर है वह,
विषम परिस्थियों से हारा.

ताक रहा है वह,
सतत् निर्झर.
बह रही है जो,
करती झर-झर.

हवा में ऊपर उठते,
सूक्ष्म-श्वेत जलकण.
सौंदर्य झरने का ,
है निस्संदेह विलक्षण.

बोला वह तुम्हारा दर्शन करके,
सम्पूर्ण मानव जाति आनन्द पाती है.
तुम्हारे सुंदरता के  साक्ष्य में,
सच्चे प्रेम की नींव रखी जाती है.

सदियों से अब तक,
तुम अनवरत बहती हो.
हो निर्जीव तुम किंतु,
सदा सुर्खियों में रहती हो.

हे इंद्रावती यह सत्य कि,
मैं तुमसे पलता हूँ.
किंतु तुम्हारी प्रतिष्ठा से,
मैं जलता हूँ.

बोली निर्झर
ठीक है जलो.
पर क्या तुम जानते हो?

कि मैं कितनी दूर से,
बहकर आती हूं.
कितने पेड़ों,पत्थरों,
और पहाड़ों से टकराती हूं.

तुम क्या जानो कि मैं,
कितनी पीड़ा सहती हूँ.
पर मैं कहती नहीं,
बस चुप ही रहती हूं.

औरों की प्रसन्नता देखकर,
मैं खुद का दर्द भूल जाती हूं.
तभी तो इतनी ऊंचाई से,
मैं हंसते-हंसते गिर जाती हूं.

मेरी सुन्दरता देखकर,
होता है न,जो तुमको अपार हर्ष.
तुम्हें ज्ञात नहीं कि उसके पीछे,
छिपा है,मेरा कितना कठिन संघर्ष.

हे मनुज तुम हार कर भी,
न छोड़ो कभी जीत की आस.
बढ़ाओ अपने मन में,
विजय की और तीव्र प्यास.

नर हो,न निराश होना कभी,
तुम जीवन की विफलताओं से.
अवश्य होगा मिलन तुम्हारा,
तुम्हारी वांछित सफलताओं से.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
📞9407914158

रविवार, 28 मई 2017

||चल न दिया जलाबो वो गियान के ||

अँधियार दुर करबो  अगियान के.
चल न दिया जलाबो वो गियान के.

चंदा पड़ही,गीता पड़ही,अउ पड़ही खिलावन.
जम्मो के बिकास बर हम,मिलके आघु आवन.
जिनगी कुछु नइ हे बिन गियान के.
चल न दिया जलाबो वो गियान के.

भीक माँगे बर जाबो हमन,काबर ओती-एती.
नवा जतन ले करबो गा भइय्या,हमन अपन खेती.
खेती होही हरियर हमर धान के.
चल न दिया जलाबो वो गियान के.

चोरी नी करन,झूठ नइ कहन,नी करन कभु लड़ाई.
तहूँ-महूँ छत्तीसगढ़िया,सब झन भाई-भाई.
करबो रक्छा छत्तीसगढ़ के मान के.
चल न दिया जलाबो वो गियान के.

दाई-ददा,भइय्या-भउजी के गोठ ल हमन धरबो.
जउन हे सियान-गरीब मनखे,ऊँखर सेवा करबो.
मिल ही हमला किरपा जी भगवान के.
चल न दिया जलाबो वो गियान के.

दुर करबो अँधियारी अगियान के.
चल न दिया जलाबो वो गियान के.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
📞9407914158

शनिवार, 27 मई 2017

||परिवर्तन का शंखनाद करें||

बहुत हो गया,अब एक पग भी,
आगे न धरना.
मेरा विकराल-रौद्र रूप देखोगे,
तुम वरना.

है ये धरती सदियों से,
रजत-स्वर्ण-रत्न मंजूषा.
पर लोभियों ने इसे,
केवल और केवल चूसा.

हम यहाँ के मालिक,
जब सब कुछ है यहाँ अपना.
फिर विकास की बात अपने लिए,
क्यों है महज एक सपना.

मेरे अपने जी रहे हैं,
आज भी विषम परिस्थिति में.
आखिर क्यों नहीं हुआ सुधार?
तनिक भी उनकी स्थिति में.

कौड़ी-कौड़ी जोड़ने,
पसीना कोई और बहाता है.
कुर्सी में बैठा कोई और,
मुफ्त की मजे उड़ाता है.

कब तक जियेंगे हम,
दीन-हीन,उपेक्षित जीवन?
दिन रात परिश्रम करके भी,
क्या हम बने ही रहेंगे निर्धन?

केवल निजता में ही,
हम खोए हुए हैं.
अफसोस कि मेरे भाई,
अभी तक सोए हुए हैं.

पर है ये विश्वास मुझे,
कि इक रोज तो ये जागेंगे.
शोषक,लुटेरे,अत्याचारी उसी दिन,
ये धरा छोड़कर भागेंगे.

आओ हम सब मिलकर,
नव परिवर्तन का शंखनाद करें.
नर हैं हम,कुछ करें ऐसा,
कि आने वाली पीढ़ियाँ हमें याद करें.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
📞9407914158

शुक्रवार, 26 मई 2017

||जगदलपुर में वो 4 दिन||

मंगलवार तारीख 17 मई 2017.समय लगभग 12 बजे.एक आदमी घर पर अपनी पत्नी के साथ सामान बाँध रहा है ब्रश,नहाने-कपड़े धोने के साबुन,कपड़े और एक "तलवार" और "ढाल"भी.क्योंकि उसे कुछ दिनों बाद एक बहुत बड़ी लड़ाई लड़नी है.और उसने ठान लिया है कि इसे वह हर हाल में जीत कर रहेगा.
अपने 3 साल के बेटे को छोड़कर जाने का मन नहीं करता.पर वो जानता है कि फिल्म बाहुबली-2 के एक सँवाद की भाँति कि समय हर कायर को शूरवीर  बनने का एक अवसर अवश्य देती है,वह मोह- माया को दरकिनार कर,हमेशा की तरह अपने माँ के पैर छूकर जगदलपुर के लिए बाइक से निकल पड़ता है,जहाँ उसे लगभग चार दिन तक युद्ध पूर्व तैयारी करनी है.

मैं लगभग 6 बजे जगदलपुर पहुँचा.जिसे मैं अब तक अपने सपनों का शहर कहता आया हूँ.
मैंने एक होटल महावीर भोजनालय में भोजन कर लॉज का पता पूछा.
बस स्टैंड से एकदम ठीक सामने एक होटल का नाम है "होटल प्रिन्स".मैंने विचार किया कि मैं यहीं ठहरुँगा.400 रुपये प्रतिदिन का किराया तय हुआ. मुझे मंहगा लगा पर रहना तो था,क्योंकि मुझे तैयारी के लिए एकांत की आवश्यकता थी.रुपये भी थोड़े कम थे इसलिए सोचा कि मुझे एक समय का ही भोजन करना है.

इसमें मैं ये लाभ देखता था.

1.ऐसा करके  मैं हर रोज लगभग  70 रुपये बचा सकता था.
2.इससे आलस्य भी नहीं आता.
3.और मुझे कोई शारीरिक परिश्रम भी तो नहीं करना था.

खैर पहले दिन तो मैंने आराम करने का ही मन बनाया. मैं अपने खोली में पहुँचा.यह होटल के दूसरे फ्लोर पर थी जिसके ठीक नीचे-आगे बस स्टैंड प्रवेश का तिराहा एकदम स्पष्ट दिखता था.एक छोटा सा कक्ष,दीवार पर टँगा एक आईना,एक छोटा सा दराजसहित टेबल, एक पलंग, दीवाल पर टँगा टी वी जो मेरे काम की नहीं थी,ऊपर एक फैन,बाथरूम,शौचालय सभी रूम के साथ संलग्न थे.साथ ही चौबीसों घंटे जल की सुविधा थी.
रात मैं जब पलंग पर सोया तो लगा"ओह इतने छोटे के कक्ष का इतना अधिक किराया.ये तो बिल्कुल उस कब्र से कुछ ही ज्यादा बड़ा होगा जितना बड़ा कब्र किसी को दफनाने के लिए खोदा जाता है."
मैं उस दिन जल्दी बहुत जल्दी सो गया.

हर दिन की तरह अगले दिन 4 बजे ही उठ गया. मेरे मोबाइल में टुकड़ों में बिखरा अँधेरा,रुक जाना नहीं,तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ,चक दे इंडिया, खो न जाएँ तारे जमीन पर,लक्ष्य को हर हाल में पाना है,कहाँ तक ये मन को अँधेरे छलेंगे जैसे प्रेरक गीत बज रहे हैं.ये सभी गीत मुझे आगे बढ़ने और कुछ करने की प्रेरणा देते हैं.

मैं पाँच बजे तक स्नान कर चुका हूँ.
शायद सामने के गुरुद्वारे से कीर्तन के स्वर मेरे कानों तक पहुँच रहे हैं.मैं दंतेश्वरी की पावन धरा पर बैठा हूँ. उस धरा पर जो लाला जगदलपुरी,प्रवीरचंद भंजदेव, शानी जैसे कर्मयोगियों की कर्मस्थली है. इसी पावन धरा में ही शानी ने शाल वनों का द्वीप,एक लड़की की डायरी, फूल तोड़ना मना है, साँप और सीढ़ी और काला जल जैसी कालजयी रचना लिखी होगी सोचकर मन रोमांचित हो उठा. क्योंकि मुझे भी तो एक दिन उन्हीं के पदचिन्हों पर चलना है.

लगभग 6 बजे टेबल पलंग से सटाकर बंद कमरे में पढ़ाई शुरू हुई. हाथ में कलम भी है. महत्वपूर्ण बिंदुओं को नोट भी कर लेता हूँ.कभी-कभी कोई जानकारी इंटरनेट पर सर्च कर लेता हूँ.
उस दिन फ्रिज से पानी लेने के लिए ही  2-3 बार बाहर निकला होऊँगा.
जब मैं होटल से बाहर निकला मेरा यकीन कीजिए रात के 7 बज चुके थे.
महावीर भोजनालय में एक वक्त का खाना खाकर मैंने फिर रात 12 बजे तक पढ़ाई की,और सो गया.
अगले दिन भी उसी घटना की पुनरावृत्ति हुई.

तीसरे दिन ही मैं 2 बजे बाहर निकला और सूरज देख सका.क्योंकि परीक्षा के 1 दिन पहले मुझे एग्जाम हाल तक पहुँचकर आश्वस्त होना था.बस्तर हाई स्कूल के ठीक सामने सीधे जाकर,जैन मंदिर से लगी गली में,ओसवाल भवन के पास ही एक कम्प्यूटर ट्रेनिंग सेंटर में मेरी सहायक प्राध्यापक  की ऑनलाइन परीक्षा होनी थी.परीक्षा स्थल का मुआयना करके मैं  फिर "होटल प्रिन्स" वापस पहुँचा और मैंने फिर से  12 बजे तक पढ़ाई की.

दिन शनिवार,तारीख21 मई को युद्ध का दिन भी आ गया,जिसके लिए मैंने  लगभग तीन साल प्रतीक्षा की थी. सबेरे 4 से 8 बजे तक पढ़ाई की. फिर परीक्षा स्थल के लिए रवाना हुआ. मुझे मेरे और भी साथी मिले जो हिन्दी विषय से सहायक प्राध्यापक परीक्षा की तैयारी कर रहे थे. दरअसल उस दिन छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग द्वारा सहायक प्राध्यापक की ऑनलाइन परीक्षा राज्य के सभी संभाग मुख्यालयों में ली जानी थी.मैंने सोचा हर दिन की भाँति आज भी भोजन बाद में करूँगा.आँखों में कई रातों की नींद और कुछ कर दिखाने का सपना  था.

11:00 बजे परीक्षा शुरु हुई.ऑनलाइन परीक्षा मेरे लिए एक नया अनुभव था. मैं खुद को हिन्दी का तीसमार खाँ समझता था.पर परीक्षा कक्ष में मैं उस समय अपने आंसू नहीं रोक सका जब मैंने देखा कि जितना कुछ मेरे द्वारा पढ़ा गया था उसमें से लगभग 30% प्रश्न ही हिन्दी की परीक्षा में आए  थे.
परीक्षा समाप्त होते-होते मेरे मन में गहन निराशा घर कर गई थी.मेरे सपने चूर-चूर हो चुके थे.जिस उम्मीद के साथ मेरे माता-पिता और पत्नी ने मुझे घर से विदा किया था वह उम्मीद टूटता नजर आ रहा था.मैं किसी से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था.ऐसा ही होता है जब हम केवल एक ही परिणाम के बारे में सोचते हैं.मनुष्य को चाहिए कि वह सफलता की उम्मीद तो करे,साथ ही असफलता के सत्य को स्वीकार करने के लिए भी वह तैयार रहे.

खैर कुछ भी हो.खाना खाकर मैं होटल में मन भर सोया. शाम 4 बजे निराशापूर्वक मैंने समान समेट लिया और होता प्रिन्स को अलविदा कहा.मैं क्या करूं?खुद से ही इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ रहा था.
कुछ क्षण में मुझे उसका जवाब भी मिल गया.
वापस आते हुए मैंने देखा कि बस्तर के पास एक सड़क पर एक व्यक्ति की बाइक ट्रक से टकरा कर चूर-चूर हो गई थी और वह व्यक्ति पेट के बल सड़क के किनारे मृत पड़ा था.ये कुछ देर पहले की ही दुर्घटना थी.
आत्म संवाद हुआ.

"अशोक!ये आदमी देख रहे हो?"

"हाँ!देख रहा हूँ. "

तो कहो,ये श्रेष्ठ है या तुम?

"निस्सन्देह मैं."

"कैसे?"

"क्योंकि प्राण चले जाने के कारण इसके कुछ भी करने की सारी संभावनाएं समाप्त हो गईं,और मैं जीवित हूँ इसलिए अब भी मैं संघर्ष कर विजय पा सकता हूँ."

तुमने ठीक समझा अशोक! मुर्दा केवल वही नहीं है जिसमें जीवन नहीं है बल्कि वह भी मृत ही है जो मन से हारकर,स्वयं को कमजोर समझ बैठता है.इसलिए तुम ये न समझो कि सब खत्म हो गया.उठो और आगे बढ़ो."

मैं फिर से आशाओं-प्रसन्नताओं से भर उठा.

कल ही रात10:30 को एक मित्र से पता चला कि सहायक प्राध्यापक परीक्षा का परिणाम घोषित गया है.और ईश्वरकृपा से  साक्षात्कार के लिए मेरा भी चयन हुआ है.मैं उस पद के लिए चुना जाऊं,या न चुना जाऊं,ये तो बाद की बात होगी पर साक्षात्कार तक पहुंच पाने की बात भी मेरे लिए एक सुखद स्वप्न से कम नहीं है.

माँ दंतेश्वरी की कृपा और आप सबका प्यार यूँ ही मिलता रहे.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
📞9407914158

गुरुवार, 25 मई 2017

||बाहुबली-2 कमाई का भी बाहुबली||

साहित्य व समाज का गहरा संबंध है.ठीक उसी तरह सिनेमा भी साहित्य से अलग नहीं है क्योंकि पटकथा-संवादों व गीतों को तो लिखना ही पड़ता है.जिस प्रकार साहित्य समाज को नई दिशा देने का प्रयास करता है उसी प्रकार सिनेमा से भी हमारा समाज कुछ न कुछ अवश्य सीखता है.

2015 में आई बाहुबली बहुत ही सफल फिल्म रही फिल्म के झरने वाले दृश्य ने तो लोगों को दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर दिया था.फिल्म के अंत में जब Conclusion in 2016 दिखाया गया तभी यह तय हो चुका था कि इसका दूसरा भाग जरूर आएगा और यह आया 2017अप्रैल 28 को.

बाहुबली 2 एक बेहतरीन फिल्म है जो दर्शकों को शुरू से अंत तक बांधे रखने में सक्षम है.250 करोड़ में बनी यह फिल्म आज तक 15 सौ करोड़ रुपए से अधिक की कमाई कर चुकी है आइए देखते हैं कि इस फिल्म में क्या है कुछ खास.

पिछली कहानी से आगे इसकी कहानी फ्लैशबैक में शुरू होती है.लगभग हर दक्षिण भारतीय फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी अमरेंद्र बाहुबली को बिल्कुल भगवान के समकक्ष माना गया है.फिल्म की शुरूवात  में ही बाहुबली की धमाकेदार एंट्री एक मदमस्त हाथी को वश में करते हुए होती है और उसी दौरान ही दलेर मेहंदी का गाया गीत "जियो रे बाहुबली" चलती है.जो एक तरह से उसकी प्रशस्ति गाथा ही  है.

फिल्म में सभी पात्रों के रोल बेहतरीन हैं.देवसेना यानी कि अनुष्का शेट्टी जो पिछले  फिल्म  में एक बुढ़िया और बंदी के रूप में दिखाई गयी थी,इस फिल्म में उसके सौंदर्य और सँवादों ने तो गजब ढाया है.वह नारी स्वतंत्रता व स्वाभिमान की पक्षधर है.शिवगामी देवी,भल्लाल देव, बिज्जलदेव,कटप्पा सभी के रोल बहुत ही असरदार हैं.

इस फिल्म के दूसरे गीत "कान्हा सो जा जरा" भी भव्य सेट पर फिल्माया गया है.गहनों से सजी-धजी देवसेना का सखियों संग मनमोहक नृत्य व गीत के मधुर बोल आपके मन को छू जाते हैं.
तीसरा गीत "ओ ओ रे  राजा" भी बेहतरीन फिल्मांकन के लिए जाना जाएगा.जलयान में बैठकर अवंतिका और अमरेन्द्र बाहुबली जब महिष्मति नगर लौटते हैं,उसी दौरान यह गीत चलता है.देवसेना द्वारा समुद्री लहरों के बढ़ा देने पर बाहुबली का जलयान को आकाश मार्ग से उड़ा ले जाने वाला यह दृश्य और आकाश में उड़ते हुए पंछी बहुत ही सुंदर लगते हैं.इस गाने की जितनी भी तारीफ की जाए कम है.
देवसेना व अमरेंद्र को नगर से निष्कासन के दौरान चलने वाला गीत "क्या कभी अंबर से सूर्य बिछड़ता है"भी बहुत मर्मस्पर्शी है.

पर इस फिल्म में अवंतिका यानी की तमन्ना भाटिया जो पिछले फिल्म की  नायिका थी इस फिल्म में उसका कोई भी सँवाद नहीं है.

आइए देखते हैं की फिल्म में ऐसा क्या है जो यह मुझे पसंद आई.

नारी अस्मिता:-दक्षिण भारतीय फिल्मों की खासियत है कि उनकी फिल्मों में नारी को प्रति सम्मान दिखाया जाता है.कुंतल देश की राजकुमारी देवसेना का राजकुमार को देखे बिना विवाह प्रस्ताव को ठुकरा देना हृदयस्पर्शी व प्रेरक है.देवसेना जब अमरेंद्र के साथ माहिष्मती वापस आती है तब अपने दिए वचन अनुसार शिवगामी देवसेना को अपने सगे बेटे भल्लाल देव की पत्नी बनाना चाहती है.पर देवसेना इसका प्रतिवाद करती है,अमरेंद्र भी उस के समर्थन में अपनों के विरुद्ध शस्त्र उठा लेता है.इसके फलस्वरूप अमरेंद्र बाहुबली की जगह भल्लाल देव को राजा और अमरेंद्र को सेनाध्यक्ष बनाया जाता है.
देवसेना के गोद भराई के रस्म के दिन भल्लाल देव अमरेंद्र से सेनाध्यक्ष का पद भी छीन लेता है.

और एक अन्य घटना में जब देवसेना सेनाध्यक्ष सेतुपति की उंगलियां काटने के अपराध में राज दरबार में बंदी बनाकर लाई जाती है तब अमरेंद्र बाहुबली का यह कहकर कि नारी का अपमान करने वाले की ऊंगलियाँ नहीं बल्कि गर्दन काट देना चाहिए और यह कहकर वह  तुरंत सेनाध्यक्ष का गला काट देता है यह दृश्य भी प्रभावोत्पादक है.और यह दृश्य हमें नारी के प्रति सम्मान का भाव रखने की शिक्षा देता है.

कर्तव्यनिष्ठा:-मेरी दृष्टि में कहानी बहुत अर्थों में महाभारत से साम्य रखती है.कटप्पा,शिवगामी आदि ने अपने कर्तव्यों का निर्वहन ही किया.किंतु शिवगामी की आंखें अपने सगे बेटे के षड्यंत्र को ताड़ नहीं पाती.
अपने पति और बेटे के उकसावे में आकर उसने अपने प्रिय अमरेंद्र बाहुबली को समाप्त करने के बारे में सोचा.उसने यह काम कटप्पा को सौंपा.कटप्पा मजबूर था क्योंकि वह केवल दास था और राजाज्ञा ही उसके लिए ईश्वर की आज्ञा थी.

हृदयस्पर्शी:-मेरी नजर में किसी भी फिल्म की सार्थकता तभी है जब उससे आपका हृदय द्रवित हो,आपकी आंखों से आंसू बह निकले.इसमें भी ऐसे कई दृश्य आते हैं जब आपकी आंखें गीली हो जाती हो.भल्लाल व बिज्जलदेव  शिवगामी को बताते हैं कि राज्य से निष्कासित अमरेंद्र भल्लाल देव की हत्या करना चाहता है.शिवगामी कटप्पा को बाहुबली को मारने को हुक्म देती है.कटप्पा के असमर्थता जताने पर शिवगामी कहती है कि अन्यथा मैं बाहुबल की हत्या करूँगी और इस तरह बेचारा कटप्पा अपने प्रिय भांजे की हत्या को मजबूर हो जाता है.धोखे से अमरेंद्र की हत्या कर जब कटप्पा रक्त रंजित तलवार को फर्श पर घसीटते हुए शिवगामी को बाहुबली की मृत्यु का समाचार सुनाता है और साथ ही भल्लाल देव और बिज्जलदेव के षड्यंत्र की जानकारी देता है,तो शिवगामी के जैसे प्राण ही सूख जाते हैं,उसकी ममता छलक उठती है,एक माँ के चेहरे के करुण भाव देखकर दर्शकों का हृदय पीड़ा से भर उठता है.

देवसेना बंदी बना ली जाती है.शिवगामी अपने पोते को बचाते हुए अपने प्राण त्याग देती है.अमरेंद्र बाहुबली के मरने के बाद बाहुबली 2 की कहानी वर्तमान में लौट आती है.

उसके बाद लगभग आधे घंटे तक क्लाइमेक्स में महेंद्र बाहुबली और भल्लाल देव की सेनाओं के बीच की लड़ाई दिखाई गई है.कंप्यूटर के माध्यम से क्लाइमेक्स को बहुत ही बेहतरीन तरीके से शूट किया गया है.फिल्म के आखिर में उन्हीं लकड़ियों के चिता पर भल्लाल देव जलकर मर जाता है जिन लकड़ियों को 25 सालों से देवसेना ने इकट्ठा किया था.

मैंनेे  मोबाइल पर ही पढ़ा था कि फिल्म के खलनायक यानी कि भल्लालदेव का रोल निभा रहे राणा दग्गुबति एक आंख से ही देख पाते हैं और वह आँख भी किसी के द्वारा डोनेट की गई है,पर फिल्म में उसका प्रदर्शन बहुत ही गजब का है.

चलते-चलते एक बात और,पता नहीं कि इस बात में कितनी सच्चाई थी पर फिल्म बनते समय यह बात बहुत वायरल हुई थी कि इस फिल्म में हमारे छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के हांदावाड़ा जलप्रपात का सौंदर्य दिखाई देगा.किसी फिल्मी पर्दे पर अपने बस्तर के मनमोहन झरने को देखना कितना सुखद अनुभव होता न?पर अफसोस कि ये नहीं हो सका.

और एक खबर सुनाई दी थी कि इस फिल्म के पहले दिन के 121 करोड़ सुकमा नक्सली हमसे में शहीद परिवारों को सहायतार्थ दिए गए.पर यह खबर भी बाद में झूठी निकली.

कुछ भी हो,पर यकीन मानिए कि एस.एस.राजामौली की यह फिल्म थियेटर में जाकर देखना कोई घाटे का सौदा नहीं है.

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"
📞9407914158

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