एक दिन जीवों पर,
मैंने गौर फ़रमाया.
उन के अध्ययन से,
मैं थोड़ा घबराया.
जैसे इंसान के भीतर से,
इंसानियत खतम हो रही है.
ठीक उसी तरह जीवों की,
कई प्रजातियां भी कम हो रही हैं.
सोचा अोह!जीव अब क्यों नहीं दिखते?
कुछ तो उन्हें होगी ही परेशानी.
एक दिन मैंने,
उन सबको खोजने की ठानी.
निकल पड़ा ढूंढने उन्हें,
खेतों-खलिहानों,वन की ओर.
पर नहीं सुनाई दिया मुझे,
किसी भी प्राणी का कोई शोर.
आगे देखा मैंने उनको एक गुफा के भीतर,
देख मुझे वो सब दुबकने लगे.
थी शायद उनकी कुछ पीड़ा,
जिसे याद करके वे सुबकने लगे.
"तुम तो मनुष्य नहीं हो,
तुम तो सदा स्वतंत्र रहते हो.
फिर भला तुम सब,
क्यों व्यर्थ ही रुदन करते हो."
मेरी बात सुनकर शायद,
उनमें कुछ साहस आया.
एक-एक करके सब ने,
मुझे अपना दुखड़ा सुनाया.
बाघ-
"भले दिखते हो मानव,
और मानव होने का श्रेय लेते हो.
मुझसे अधिक हिंसक तो तुम हो,
जो क्रोध में अपनों का ही गला काट देते हो."
बिच्छू-
"विधाता ने रचाया,
कैसा ये खेल है.
तेरे डंक के आगे तो,
मेरा डंक भी फेल है."
साँप-
"कुछ और नहीं मुझे,
बस इतना ही कहना है
तेरे काटे का विष तो,
मेरे विष से भी पैना है."
सियार-
"आजा कि चूम लूं मैं,
तुम्हारा गर्वभरा मस्तक.
तुम लोगों की धूर्तता के आगे,
मैं तो हुआ नतमस्तक."
कौआ-
"ओह तेरी कड़वी-कर्कश बोली.
जैसे दिल को आर-पार भेदती,
किसी बंदूक की गोली."
गधा-
"क्या करुं?क्या न करुं?
मुझे कुछ सूझता ही नहीं.
आज हैं दुनिया में इतने गधे कि,
हमें कोई पूछता ही नहीं."
खटमल-
"गरीब-किसान,मजदूर,
हैं जो जग के पोषक.
उनके लहू चूसकर,मेरी भूमिका,
बखूबी निभा रहे हैं शोषक,"
गिरगिट-
"छोटा सा हुनर लेकर मैं,
भला किसे मुंह दिखाऊंगा.
मैं तो तुम लोगों से रंग बदलने का
प्रशिक्षण लेने आऊंगा."
अजगर-
"वाह रे अवसरवादी मानव,
मौका पाकर तुम कैसे बदल जाते हो.
मैं तो निगलता था बस दूसरों को,
तुम तो अपनों को ही निगल जाते हो."
गिद्ध-
"होगी ये भी बहन-बेटी किसी की,
ये बात भला तुम कहां सोचते हो.
चोंच नहीं है तेरे लेकिन,
उन्हें अपनी गिद्ध नजरों से नोचते हो."
हमारी प्रवृति अपनाकर,
मानव बड़े शान से ऐठे हैं.
और शर्मिंदा होकर हम सब,
यहां भयभीत-छुपकर बैठे हैं.
बातें सुनकर उन सबकी,
मुझे आई बड़ी ही शरम.
कोई बताए क्या वास्तव में,
इतने गिर गए हैं हम?
✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)