रविवार, 30 जुलाई 2017

||बचपन को न मारो||

बाल मन को,
स्वतंत्र उड़ान भरने दो.
करते हैं वे,यदि चांद तारों की चर्चा,
तो उन्हें,जी भर बातें करने दो.

देखने दो उन्हें घर में बनाने वाले पकवानों में,
सांप,केकड़े,हाथी आदि की आकृतियां.
खेलने दो उन्हें घर में पड़े तार के टुकड़ों से,
और
काग़ज के हवाई जहाज और नाव बना कर.
लगाने दो दौड़ अनायास ही इधर उधर,
गाड़ी की आवाज निकालते हुए.
बनाने हल,रथ,बैलगाड़ी लकड़ियों से,
करने दो बातें रेलगाड़ियों,हेलीकॉप्टरों की.

इनके भी कुछ सपने हैं,
मन में कई अभिलाषाएं हैं.
छिपी इनके भीतर,
असीम संभावनाएं हैं.

करने दो उन्हें मनमर्जी,
उन्हें हर बात पर न टोको.
सतत प्रवाह उनके विचारों का,
तुम कभी न रोको.

है कौन सा धन तुम्हारे पास?
रहते हो सदा अकड़के-तन के.
खेलो कभी इनके साथ,
देखो कभी खुद भी बच्चे बनके.

क्योंकि बच्चे  बनकर ही,
तुम्हें मिल सकेगा जीवन का सच्चा ज्ञान.
जान जाओगे तुम कि हैं झूठे,
तेरे ये धन,पद,यश और सम्मान.

होगा इनका सुंदर कल,
तुम तो बस आज,जीवन इनका सँवारो.
इन पर इन पर बंधन,
तुम इनके बचपन को न मारो.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

||जिनगी के गाड़ी||

जब ले देखेंव,
में तोला वो टुरी.
ओ दिन ले मोर छाती म,
दिन रात चलते छुरी.

नसा म तोर मे अपन,
रद्दा भुला जथँव.
कुछु भावय नहीं मोला,
बस तोरेच सुरता करथँव.

मोहनी रूप तोर देखके,
पुन्नी अमावस हो जथे.
जे तोला देखथे न,
ओ ह बिन मउत मर जथे.

ओहो अइसन रूप बनइस,
सुघ्घर बिधाता के गजब खेल हे.
तोर आघु म तो गोरी,
माधुरी-कटरीना सब फेल हें.

तोर लालच म मे ह तोर,
जी जान लगा पाछू पड़ेंव.
पाँव ले लेके मुड़ी
मया के चिखला म गड़ेंव.

बड़ मुस्किल से कहि पाएँव
में ह तोर से अपन दिल के बात.
फेर नी मिले तें ह,
उम्मीद रिहिस दिन के,हो गे रात.

ले कोइ बात नहीं कि,
कि तें ह मोला नइ मिले.
अब तो आस हे बस अतकेच,
कि अइसनेच धिरे-धिरे,
मोर जिनगी के गाड़ी ह चले.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

||तू है किस सुख की खोज में?||

ये रजताभ सुन्दर श्वेत वारिद.
नील नभ पे विचरते.
ये हरित साल वृक्षों की पंक्तियाँ,
तन-मन की ताप हरते.

आकाश का आलिंगन करते,
ऊँचे-छोटे गर्वित अचल.
रवि के स्वर्ण किरणों से नहाया,
कमल ताल का तरंगित जल.

कानों में मिश्री घोलती,
पक्षियों के गायन की मधुरता.
कल-कल सरिता की ध्वनि,
भंग करती वन की नीरवता.

आह ये धरा वधू का,
सुन्दर श्रृंगार.
जी करता कि देखें
इसे हम बारम्बार.

तू इस सुख से परे,
है किस सुख की खोज में,ओ बावरा मन.
ये सौंदर्य कल फिर न मिलेगा,
इसलिए आज ही कर ले इसके दर्शन.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

||नागराज की चिट्ठी मनुष्य के नाम||(व्यंग)

प्रिय स्वजातीय मानव!
फन फैला कर प्रणाम!
(प्रणाम इसलिए कि तुम मुझसे बड़े हो विष उगलने के क्षेत्र में)

समय बदलने के साथ तुम्हारे जीवन में आमूलचूल परिवर्तन हुए.आज तुम्हारी जीवनचर्या एकदम व्यस्त हो गई है. हरे भरे पेड़ों को काट कर तुमने बड़े ऊंचे ऊंचे सुन्दर महल बनाए हैं,जो वास्तव में प्रसंशनीय है.(पर तुम्हें क्या पता है कि उन पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलाकर तुमने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है.)

आज तुम्हारा जीवन बिल्कुल सरल बन गया है.तुम एक ही दिन में कई देशों की यात्राएं कर लेते हो.हम पगविहीन जीव तो इन सबके बारे में सोच भी नहीं सकते.लेकिन तुम्हारा मन बिल्कुल भी स्थिर नहीं है.तुम्हारा मन उसी गति से बदलता है जैसे फर्स्ट फ्लोर पर लिफ्ट के अंदर खड़ा व्यक्ति पलक झपकते ही दसवें माले पर पहुंच जाता है.

आज जब तुम विकास की नई कहानियां गढ़ रहे हो,तब तुम्हारे भीतर से लुप्त हो रही मानवता की समस्या कोई बहुत बड़ी चिंता का विषय नहीं है,क्योंकि इसमें तुम्हारा कोई भी दोष नहीं.मशीनी युग में आज तुम स्वयं मशीन बनते जा रहे हो,और मशीनों में भावनाएं होती हैं भला?

आज हमारी संख्या तेजी से कम होती जा रही है पर तीव्र वेग से बढ़ रही तुम्हारी प्रजाति तुम्हारे पुरखों को अवश्य गौरवान्वित करती होगी.

कभी-कभी बड़ा आश्चर्य होता है कि तुम विकास की अंधी दौड़ में हमसे आगे कैसे निकल गए? आज जब हम किसी व्यक्ति को काटते हैं तो वह मरता तक नहीं. पर तुमने आज हम से भी अधिक विषैले अस्त्रों-शस्त्रों का निर्माण कर लिया है जो संभवत: कल तुम्हारे ही गले की फांस बन जाएंगे.

ये आवागमन-संचार के साधन,ये मशीनें केवल तुम्हारे जीवन की बेहतरी के लिए है.उनके उपयोग से बचे हुए समय का सदुपयोग न करके,उसे आराम करने और सोये रहने में बिताने में ही समझदारी है.दुनिया के महान वैज्ञानिकों ने इसलिए ही तो बड़े-बड़े यंत्रों का आविष्कार किया है ताकि उनकी आने वाली पीढ़ी के लोग अजगर की भांति सोए रहें.

आपके बारे में अधिक लिखकर(विषैले स्वभाव के बारे में)मैं स्वयं को लज्जित नहीं करना चाहता.वैसे तो आपको कभी फुर्सत नहीं है,पर यदि फुर्सत हो तो मैं आपसे विष लेने अवश्य आऊंगा.
अंत में आपको द्विअंग(केवल वक्ष और सिर से)प्रणाम!( 2 पैर,2 हाथ और  2घुटने न होने के कारण मैं तुम्हारी तरह साष्टांग प्रणाम नहीं कर सकता)

प्रेषक:-नागराज
स्थल-नाग लोक

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

गुरुवार, 27 जुलाई 2017

||ये मासूम बच्चे||

ये मासूम बच्चे जो रोज बस्ते पीठ पर लटकाए,
छोटे-छोटे कदमों से,स्कूल के लिए निकलते हैं.
कम न समझना इन्हें क्योंकि,
इनके मन में,कई महान स्वप्न पलते हैं.

कर जाएंगे यही कल कोई बहुत बड़ा काम.
इनमें से ही निकलेगा कोई विवेकानंद-गांधी और कोई कलाम.
आज सबको शीश झुका रहे ये,कल  करेगी दुनिया इन्हें सलाम.
देखो साथियों संग ये कैसे हाथ थामे चलते हैं.

ये मासूम बच्चे जो रोज बस्ते पीठ पर लटकाए,
छोटे-छोटे कदमों से,स्कूल के लिए निकलते हैं.
कम न समझना इन्हें क्योंकि,
इनके मन में,कई महान स्वप्न पलते हैं.

चेहरे पर न चिंता न भय,न कोई घबराहट देखो.
सुमनों सी सुंदर इनकी मुस्कुराहट देखो.
कदमों से इनके आ रही,सुखद भविष्य की आहट देखो.
देखकर तो इनकी मासूमियत,पत्थर भी पिघलते हैं.

ये मासूम बच्चे जो रोज बस्ते पीठ पर लटकाए,
छोटे-छोटे कदमों से,स्कूल के लिए निकलते हैं.
कम न समझना इन्हें क्योंकि,
इनके मन में,कई महान स्वप्न पलते हैं.

आज  दिखता नहीं,मानव कहीं भी कोई सच्चा.
क्यों?क्योंकि शायद मर गया है,उसके भीतर का बच्चा.
काश सभी बच्चे होते,तो होता न कितना अच्छा?
वे होते स्वप्रकाशित और हम,बस दूसरों से जलते हैं.

ये मासूम बच्चे जो रोज बस्ते पीठ पर लटकाए,
छोटे-छोटे कदमों से,स्कूल के लिए निकलते हैं.
कम न समझना इन्हें क्योंकि,
इनके मन में,कई महान स्वप्न पलते हैं.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

||असफता में छुपी सफलता||

बहुत कुछ मिला तुमसे और,
बहुत कुछ मुझे मिला नहीं.
फिर भी ऐ मेरे ईश्वर,
मुझे तुमसे कोई गिला नहीं.

क्योंकि आज थोड़ा,
जो कुछ भी मेरे पास है,
कई विहीन हैं उनसे,
अधूरी उनकी आस है.

अज्ञानी है वो जो,
असफल होने पर तुम्हें कोसता है.
उसी असफलता में तो छुपी है सफलता,
ये कोई कहाँ सोचता है.

युद्ध में कोई कमी रह गई,
तभी तो हुआ कोई योद्धा परास्त.
पर इतने भर से न समझ लेना,
कि हो गया संभावनाओं का सूर्यास्त.

परिश्रम तो किया नहीं,
फिर औरों पे क्यों दोष मढ़ता है.
जो ले सबक असफलताओं से,
वही तो सफलता की सीढ़ियां चढ़ता है.

कड़ी मेहनत कर तू,
और मन में रख दृढ़ विश्वास.
फिर देखना तुम कि कैसे,
पूरी नहीं होती है,तुम्हारी आस.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

||मन के आँखी खोल||

वहू अदमी,तहूँ अदमी,
नइ हे कोनो अंतर.
कुछु नइ मिलय बिन मेहनत के,
मारले कतको मंतर.

सबके तन म,
एके खून बोहाथे.
जिनगी म सबके,
दुख अउ पीरा अथे.

झन समझ तैं,
आपन आप ल डेड़ हुसियार.
बना बेवहार ला सुघ्घर,
जइसे होथे मीठ,खुसियार.

का चीज के गरब करथस बाबू,
तोर जइसे अइन-जइन कतको हजार.
समय के कीम्मत ल समझ,
बगरा चारो कोती मया-दुलार.

सत के रद्दा रेंगे बर,
तैं जादा झन सोच.
हो जही जिनगी तोर सारथक,
कोनो गरीब दुखी के आँसू पोंछ.

ए भरम के चसमा ल,
तैं उतार के फेंक.
सब तो अपनेच आँय जी,
मन के आँखि खोल के तो देख.

हौ हाँसही तोर उपर ए दुनिया,
तोला पगला-दिवाना कही.
फेर एक न एक दिन,
अम्मर जग म,तोर नाव रही.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

||क्या है जग में तेरा ||

एक सेठ जी के पास अकूत संपत्तियाँ भरी पड़ी थी.पर उसने कभी धन का थोड़ा भी अंश परहित के लिए खर्च नहीं किया.लेकिन उसे धार्मिक कार्यों में बहुत रुचि थी, और वह साधु संतों की बड़ी सेवा-सुश्रूषा करता था.

एक बार उसके घर में एक संत आए. सेठ जी ने उसकी खूब आवभगत की. संत ने कहा क्या तुम अपने धन का कुछ भाग गरीबों असहायों के लिए खर्च करते हो. सेठ ने उत्तर दिया नहीं.

भला क्यों संत ने पूछा सेठ जी ने जवाब दिया-"क्योंकि मैंने यह सारा धन अपने परिश्रम से अर्जित किया है और मेरी कमाई मैं औरों को क्यूँ दूँ?"

"तो तुम्हारी सारी कमाई,ये महल आदि सब तुम्हारा है?"

"हां मैं ऐसा ही समझता हूं.पर सत्य क्या है,ये मैं नहीं जानता? आप ही मेरा मार्गदर्शन कीजिए!"

संत ने कहा-"तुम अपनी आंखें बंद करो और देखो.जो कुछ भी दिखाई देता है मात्र वही तुम्हारा है शेष कुछ तुम्हारा नहीं है."

सेठ जी ने आंख बंद कर देखा.

उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया.न धन दौलत,न रिश्ते-नाते बल्कि उसे स्वयं का शरीर भी दिखाई नहीं दिया.

वह सब कुछ समझ गया,और दूसरे दिन से ही वह अपना अर्जित धन पर हितार्थ व्यय करने लगा.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

शनिवार, 22 जुलाई 2017

||किसानों के हर्ष-उल्लास का पर्व:हरियाली||

सावन महीने की अमावस्या के दिन मनाया जाने वाले हरियाली त्यौहार के साथ ही छत्तीसगढ़ में पर्वों का क्रम आरंभ हो जाता है.इसके बाद लगातार रक्षाबंधन,श्रीकृष्ण जन्माष्टमी,तीजा पोला, गणेश चतुर्थी, नया खानी, दशहरा,दिवाली, देव उठनी जैसे त्यौहार मनाए जाते हैं.

हरियाली मुख्य रुप से कृषकों का पर्व है.छत्तीसगढ़ "धान का कटोरा"के नाम से प्रसिद्ध है.किसानों की धान बुवाई के बाद इस समय खेतों में चारों ओर हरितिमा छाई होती है.जिसे देख कर किसान का हृदय प्रसन्नता से भर जाता है,और हृदय की उसी खुशी को किसान हरियाली का त्यौहार मना कर प्रकट करता है.

इस समय खेतों में जो फसल लहलहाती हुई दिखाई देती है.उसके पीछे कृषक का अथक परिश्रम तो होता ही है,साथ ही वह धरती,चौपाये व अपने कृषि यंत्रों को भी देवतुल्य मानकर उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है और ये एक महान सोच का परिचायक है.

हरियाली अमावस्या के कुछ दिनों पूर्व गांव के विशेष यादव भाइयों द्वारा जंगल से शतावर,केउकंद जैसे दिव्य जड़ी-बूटियां खोदकर लाई जाती जिसे "रसना जड़ी" कहा जाता है,ये पशुओं के लिए  बलवर्धक  होते हैं.उन जड़ी-बूटियों के मिश्रण को हरियाली अमावस्या के दिन हर घर बाँटा जाता है,किसान इसे अपने पशुओं को खिलाते हैं.
छत्तीसगढ़ में अधिकांश स्थानों पर किसान अपने पशुओं को गेंहूँ के आटे से निर्मित "लोंदी" खिलाते हैं.

बस्तर में इसे "अमुस तिहार" के नाम से जाना जाता है.इस दिन कृषक खेतों में जाकर धूप आदि जलाकर धरती माता का नमन-वन्दन करते हैं.साथ ही वे अपने खेतों के मध्य में भेलवाँ अथवा सल्फी की टहनी गाड़ देते हैं.ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से खेतों की फसल कीट प्रकोपों से सुरक्षित हो जाती है.घर में औरतें हर त्यौहार की भाँति ही "बड़ा" व ''सँजरा" बनाती हैं.परिवार के सभी लोग साथ मिलकर त्यौहार का आनन्द मनाते हैं.

बस्तर संभाग को छोड़कर शेष छत्तीसगढ़(कांकेर जिला भी शामिल)में इस दिन सारे कृषि के उपकरणों जैसे हल,कुदाल,कुल्हाड़ी,आरी,बसूला आदि को पवित्र करके घर के तुलसी चौरा के सामने रखकर उनकी पारंपरिक तरीके से पूजा की जाती है व अपने इष्ट देवी-देवताओं का धन्यवाद किया जाता है. घर-घर पारंपरिक पकवान जैसे बरा,सोंहारी,ठेठरी,भजिया आदि बनाए जाते हैं.

लोकमान्यता है कि सावन अमावस की अर्धरात्रि दुष्ट शक्तियों के जागरण का अनुकूल समय होता है.इस दिन "टोनही"(चुड़ैल)दैवीय शक्तियाँ अर्जित करती है.फलत: उनसे से रक्षा हेतु लोग अपने घर-आँगन को गोबर से लीपते हैं व घर के दरवाजे पर नीम की डाल बाँधते हैं.

इसी दिन गेंड़ी का भी आनंद  लिया जाता है.बस्तर में इसे "गोड़ोंदी" कहते हैं.जिसे बस्तर में नयाखानी पर्व के दूसरे दिन "गोड़ोंदी देव" के समक्ष  तोड़ा जाता है. अन्य स्थानों पर इसे तीज पर्व के दूसरे दिन तोड़ा जाता है.
पर अब गेंड़ी बनाने की परम्परा भी धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है.

जगदलपुर शहर के दंतेश्वरी मंदिर के आंगन में "पाट जातरा" रस्म के साथ इसी दिन से लगभग 75 दिनों तक  चलने वाले बस्तर के विश्व प्रसिद्ध दशहरे की शुरुआत हो जाती है,जो कि कुंवार महीने की शुक्ल चतुर्दशी तक चलता है.पाट जात्रा पूजा के बाद रथ निर्माण का सिलसिला शुरू कर दिया जाता है।(बस्तर में रावण दहन की परम्परा नहीं है,बल्कि यहाँ दशहरे में रथ चालन किया जाता है.)

इस तरह हरियाली अमावस किसानों की प्रसन्नता और प्रकृति के प्रति प्रेम व कृतज्ञता प्रकट करने का पावन पर्व है.
(जानकारी जैसा की मैंने पढ़ा,सुना,देखा है.त्रुटियों पर  क्षमा करें व अपने सुझाव दें,ताकि अपेक्षित सुधार किया जा सके.)

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

||शहर कैसे बन गया,मेरा गाँव||

तुमसे जुड़ा था अतीत मेरा,
तुम थे मेरे बचपन के यार.
अब,जब बदल गये तुम,
न रहा तुमसे,वो पहले जैसा प्यार.

चढ़ जाते थे होकर निडर,
हम जिन पर,
न रहे वो शहतूत-नीम के पेड़.
न रहे वो आँगन में खिले,
गुलाब,मोगरे,गेंदे के फूल.

मिट गई हरे-भरे-मूक,
वृक्षों की सुन्दर दुनिया.
आज धुआँ छोड़ते-
भयानक शब्द करते,
वहाँ गरज रहे हैं,
दैत्याकार कारखाने.

खेल के मैदानों में,
तन कर खड़े हैं,
बड़े-बड़े और ऊँचे,
सीमेंट,ईंट-पत्थरों के महल.

कहाँ गया वो,
स्वच्छ जलयुक्त,
मनोरम कमलताल.
और तट पर खड़े,
गुलमोहर-खजूर के पेड़.

कल तक तेरी खुशबू से,
मदहोश हुआ जाता था मैं.
आज तो तेरी जहरीली हवा में,
जैसे घुटता है मेरा दम.

नदी गंगा सी पावन,
तब्दील हो गई गंदे नाले में.
कल तक क्या था,
आज ये क्या हो गया.
मेरा स्कूल भी अब,
जैसे खंडहर हो गया.

आए कई बदलाव,
कम हुई सबकी दुश्वारियाँ.
पर बढ़े दिलों के फासले,
घट गई हों भले,भौतिक दूरियाँ.

पर मैं तुम्हारे बदलाव से,
बिलकुल भी ख़फा़ नहीं.
क्योंकि इसमें तुम्हारी,
थोड़ी भी खता नहीं.

क्योंकि मुश्किल में सब लोग,
किनारे से निकल जाते हैं.
दुनिया की चकाधौंध में,
कई लोग बदल जाते हैं.

नहीं रहे अब वो,
आम-पीपल-बरगद के छाँव.
आखिर एकाएक,
शहर कैसे बन गया मेरा गाँव.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

||करते रहें आत्म मूल्यांकन||

विद्यार्थी हो,कृषक हो,या फिर कोई वैज्ञानिक.एक लक्ष्य निर्धारित करे बगैर कोई भी अपना कार्य नहीं करता.
विद्यार्थी एक लक्ष्य निर्धारित करता है कि वह इस वर्ष अधिक से अधिक अंकों के साथ सफलता प्राप्त करेगा.वहीं एक कृषक की अभिलाषा होती है कि उसे आपेक्षित उपज प्राप्त हो.साथ ही वैज्ञानिक अपने नित-नए प्रयोगों से अपने खोज अथवा शोध को पूर्ण करना चाहता है.
परिणाम आने पर वे अपने कार्यों का विश्लेषण और मूल्यांकन अवश्य करते हैं.जहां असफल होने पर वे असफलता के कारणों को खोजते हैं,वहीं सफल होने पर और अधिक प्रोत्साहित होते हैं.अपना मूल्यांकन करने पर व्यक्ति को अपनी दुर्बलताओं और शक्तियों का पता चलता है. जिसे जानकर व्यक्ति सफलता के दिशा में अग्रसर होता है.

हर मनुष्य को चाहिए कि वह अपना लक्ष्य निर्धारित करें. प्राय: हम या हमारे मित्र चौक-चौराहों पर बैठकर किसी की निंदा करते हैं,अथवा व्यर्थ की बातें करते रहते हैं.हम इस बात पर चर्चा करते हैं कि उनके घर का लड़का शराबी जुआरी है.फलां के घर लड़की या लड़का बिगड़ गया.अरे वह तो बहुत कंजूस है आदि-आदि.पर कभी हम अपने बारे में नहीं सोचते .हम इस बात पर चर्चा नहीं करते कि हमारा जीवन किस प्रकार सुधरे,हमारे समाज,देश का उत्थान किस प्रकार हो.

आज मानव कमजोर या दुर्बल नहीं है.बल्कि दुर्बल है उसकी सोच.आवश्यकता है तो बस अपने चिंतन को सकारात्मक दिशा में मोड़ने की.आज हम जैसे हैं,बहुत हद तक वैसा ही हमारी भावी पीढ़ी बनेगी.इसलिए क्यों न हम आज से ही अपने विचार-चिंतन व कर्म को सुधारने का प्रयत्न करें.

हम समय-समय पर आत्म मूल्यांकन अवश्य करें. उस परम शक्ति का धन्यवाद करें कि जिसने हमें दुर्लभ मानव शरीर प्रदान किया है.यदि हम मानवीय मूल्यों को धारण कर सकें,हमारा जीवन औरों के काम आ सके,तभी हमारा मानव होना वास्तव में सार्थक है.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

बुधवार, 19 जुलाई 2017

||बरस वो बरखा रानी||

गिरत हे झिमिर-झिमिर
पानी.
होवत हे बड़ परेसानी,
काबर कि चुहत हे,
मोर गरीब के छानी.
तभ्भो ले बरस वो,
तैं बरखा रानी.
तभे त होही,
मोर खेती-किसानी.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

||अबकी बार,मेरी एक और हार||

कल ही उसे,
पहली बार देखा.
नजर आई,
उसमें मुझे रेखा.

सोचा हो कोई भी ये,
जैसा भी हो ब्रह्मा का लेखा.
पा कर रहूंगा मैं इसे,
मैंने उस पर जाल अपना फेंका.

मेरी जान मैं,
तुम पर मरता हूं,
एक बड़े से शहर में,
बड़ा सा काम करता हूं.

मेहरबानी होगी तुम्हारी,
यदि तुम मेरी बात सुनोगी.
बहुत सुख पाओगी,
गर मुझे अपना हमसफ़र चुनोगी.

ठीक है देखेंगे और,
बड़े गौर से सोचेंगे.
लगे तुम अगर ओ के,
तो तुम्हें ही अपना दिल दे देंगे.

पर पहले तो जान लूँ,
मैं तुम्हारा हालचाल.
ये नंबर है मेरा करना तुम,
आज रात इस पर काल.

रात को मैं,
खाना तक नहीं खाया.
कई बार नहीं लगा,
उसे बार बार फोन लगाया.

बड़ी देर बाद लगा मेरा फोन.
वो पूछी कौन?
मैं तेरा आशिक,
और कौन?

फिर तो घंटा जैसे,
मिनट की तरह बीत गया.
वो हार गई,
और मैं जीत गया.

वो बोली हां ठीक है पर,
कहती हूं मैं तुमसे इक बात.
न मिल सकेंगे हम,
भला एक कहां है अपनी जात?

अरे कुछ भी हो अपनी जात.
पर न छूट सकेगा अपना साथ.
क्योंकि यह साल भी तो है 1-7.

इससे पहले कि सब जान जाएँ हमारी कहानी,
जैसे जंगल में फैल जाती है आग.
उससे पहले ही हम दोनों,
रायपुर जाएंगे भाग.

मैं आऊंगा कल सुबह पुल के पास,
बैग में सामान समेट कर.
तुम आना उधर से गठरी में,
कपड़े,चावल-दाल लपेटकर.

उसने कहा,
गुड नाइट ओके.
मैंने भी कहा सेम,
बड़ा खुश होके.

बस मीठे सपनों में ही खोया था.
कल मैं रात भर नहीं सोया था.

कहा मैंने बादलों से-किसी की खातिर
मेरा मन अब तक रहा था तरस.
ऐ सावन इस बार तो,
तू जरा जम के बरस.

पर वाह रे सावन,
बरसाया इतना पानी.
कि याद आ गई,
मुझको मेरी नानी.

जैसे ही आज मैं,
पहुंचा पुल के पास.
देखकर चारों ओर के नजारे,
हुआ मैं बहुत निराश.

हे विधाता ये कैसी मुश्किल आन पड़ी है.
यह प्रेमियों के लिए बड़े ही दुख की घड़ी है.
पुल के ऊपर से बह रहा है पानी,
मैं इधर खड़ा हूं,और वो उधर खड़ी है.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

||भगवान की मूरत माँ||

तुम्हारा मेरे लिए बाजार से,
मिठाईयां और नमकीन लाना.
पिताजी के दण्ड के भय से मेरा,
तेरी आंचल के पीछे छुप जाना.

बचपन की जिद सारी,
झट से मान लेना.
बच्चे के कहने से पहले ही
उसकी भूख जान लेना.

कर दे लाल पर सब न्योछावर,
आह!तेरी करुणा-तेरी ममता.
कर सकती सब कुछ,मिली ईश्वर से,
जैसे कोई असाधारण क्षमता.

तुझ बिन जीवन मेरा,
जैसे बिना रंगों की कोई अल्पना.
माँ कर नहीं सकता मैं,
तुझ बिन जीने की कल्पना.

क्या खाक देखूँ,
मैं किसी और की मूरत.
माँ दिखती है मुझे तो तुझमें,
जैसे साक्षात् भगवान की सूरत.

(अल्पना=रंगोली)

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

||तुचो बिगर मचो जीवना||

तुचो सुरता में डाहा होलें,
नी इली तुके खिंडिक बले दया.
खुबे भरोस करु रलें मान्तर,
नी मिरली मके तुचो मया.

तुचो सुरता ने जीव मचो,
सांजे-बिहाने गागेसे.
सांगुक नी सकें कि तुचो बिगर,
मके कसन लागेसे.

तुचो बिगर मचो जीवना
लागेसे असन...

जसन...
बिगर पानी चो मसरी.
बिगर डेरी चो लाड़ी.
बिगर इंजन चो गाड़ी.
बिगर जोन चो राती.
बिगर बाती चो चिमनी.
बिगर देव चो गुड़ी.

जसन...
बिगर जीव चो देंह.
बिगर फार चो नाँगर.
बिगर रुक चो खमन.
बिगर नोन चो साग.
बिगर सकर चो चाहा.
बिगर बड़गी चो काना.

जसन....
बिगर महूड़ चो दूलहा.
बिगर आगी चो चूलहा.
बिगर पटकी चो चिड़ई.
बिगर खपरा चो घर.
बिगर सिहई चो कलम.
बिगर सींग चो भैंसा.

हिन्दी अनुवाद

||तुम्हारे बगैर मेरा जीवन||

तुम्हारी याद ने मुझे बहुत दिया दर्द,
लेकिन नहीं आई तुम्हें मुझ पर दया.
बहुत उम्मीद थी मुझे तुमसे,
पर न मिल सका मुझे तुम्हारा प्यार.

तुम्हारी याद में मेरा हृदय,
दिन-रात रोता है.
मैं कह नहीं सकता कि तुम्हारे बगैर,
मेरा हाल कैसा है.

तुम्हारे बगैर मेरी जि़ंदगी एेसी.

जैसे....
बिना जल के मछली.
बिना स्तंभ की झोपड़ी.
बिना इंजन की गाड़ी.
बिना चंद्रमा की रात्रि.
बिना बाती की चिमनी.
बिना देवता के कोई मंदिर.

जैसे....
बिना प्राण के शरीर.
बिना फार का हल.
बिना वृक्ष के वन.
बिना नमक की साग.
बिना शक्कर की चाय.
बिना लाठी के अंधा.

जैसे...
बिना सेहरे का दूल्हा.
बिना आग का चूल्हा.
बिना पंख का पक्षी.
बिना खपरैल का घर.
बिना स्याही की कलम.
बिना सींग का भैंस.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

||क्या इतने गिर गए हैं हम?||

एक दिन जीवों पर,
मैंने गौर फ़रमाया.
उन के अध्ययन से,
मैं थोड़ा घबराया.

जैसे इंसान के भीतर से,
इंसानियत खतम हो रही है.
ठीक उसी तरह जीवों की,
कई प्रजातियां भी कम हो रही हैं.

सोचा अोह!जीव अब क्यों नहीं दिखते?
कुछ तो उन्हें होगी ही परेशानी.
एक दिन मैंने,
उन सबको खोजने की ठानी.

निकल पड़ा ढूंढने उन्हें,
खेतों-खलिहानों,वन की ओर.
पर नहीं सुनाई दिया मुझे,
किसी भी प्राणी का कोई शोर.

आगे देखा मैंने उनको एक गुफा के भीतर,
देख मुझे वो सब दुबकने लगे.
थी शायद उनकी कुछ पीड़ा,
जिसे याद करके वे सुबकने लगे.

"तुम तो मनुष्य नहीं हो,
तुम तो सदा स्वतंत्र रहते हो.
फिर भला तुम सब,
क्यों व्यर्थ ही रुदन करते हो."

मेरी बात सुनकर शायद,
उनमें कुछ साहस आया.
एक-एक करके सब ने,
मुझे अपना दुखड़ा सुनाया.

बाघ-
"भले दिखते हो मानव,
और मानव होने का श्रेय लेते हो.
मुझसे अधिक हिंसक तो तुम हो,
जो क्रोध में अपनों का ही गला काट देते हो."

बिच्छू-
"विधाता ने रचाया,
कैसा ये खेल है.
तेरे डंक के आगे तो,
मेरा डंक भी फेल है."

साँप-
"कुछ और नहीं मुझे,
बस इतना ही कहना है
तेरे काटे का विष तो,
मेरे विष से भी पैना है."

सियार-
"आजा कि चूम लूं मैं,
तुम्हारा गर्वभरा मस्तक.
तुम लोगों की धूर्तता के आगे,
मैं तो हुआ नतमस्तक."

कौआ-
"ओह तेरी कड़वी-कर्कश बोली.
जैसे दिल को आर-पार भेदती,
किसी बंदूक की गोली."

गधा-
"क्या करुं?क्या न करुं?
मुझे कुछ सूझता ही नहीं.
आज हैं दुनिया में इतने गधे कि,
हमें कोई पूछता ही नहीं."

खटमल-
"गरीब-किसान,मजदूर,
हैं जो जग के पोषक.
उनके लहू चूसकर,मेरी भूमिका,
बखूबी निभा रहे हैं शोषक,"

गिरगिट-
"छोटा सा हुनर लेकर मैं,
भला किसे मुंह दिखाऊंगा.
मैं तो तुम लोगों से रंग बदलने का
प्रशिक्षण लेने आऊंगा."

अजगर-
"वाह रे अवसरवादी मानव,
मौका पाकर तुम कैसे बदल जाते हो.
मैं तो निगलता था बस दूसरों को,
तुम तो अपनों को ही निगल जाते हो."

गिद्ध-
"होगी ये भी बहन-बेटी किसी की,
ये बात भला तुम कहां सोचते हो.
चोंच नहीं है तेरे लेकिन,
उन्हें अपनी गिद्ध नजरों से नोचते हो."

हमारी प्रवृति अपनाकर,
मानव बड़े शान से ऐठे हैं.
और शर्मिंदा होकर हम सब,
यहां भयभीत-छुपकर बैठे हैं.

बातें सुनकर उन सबकी,
मुझे आई बड़ी ही शरम.
कोई बताए क्या वास्तव में,
इतने गिर गए हैं हम?

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

चाटी_भाजी

 बरसात के पानी से नमी पाकर धरती खिल गई है.कई हरी-भरी वनस्पतियों के साथ ये घास भी खेतों में फैली  हुई लहलहा रही है.चाटी (चींटी) क...