पिताजी के भृत्य की नौकरी कांकेर जिले में होने के कारण हमें कई बार अपने गांव केरावाही से पुरी जाना होता था.गांव में रहने वाले एक बच्चे के लिए गाड़ियों-मोटरों को देर तक निहारना बडे़ ही गर्व और खुशी की बात थी.लंजोड़ा से कांकेर और कांकेर से हम गाड़ी बदल लेते थे. बस में मुझे खिड़की के किनारे बैठना ही अच्छा लगता था.दौड़ते हुए पेड़, खेतों में काम करती औरतें,दाएँ-बाएँ गुजरती हुई गाड़ियां मुझे बहुत भाती थीं.केशकाल की घाटी में तो मारे डर के मैं अपना दिल थाम लेता.
कांकेर में रुकने पर हम पुराने बस स्टैंड के जय हिंद होटल में नाश्ता अवश्य करते थे,नाश्ते में प्राय: दोसा ही होता था. स्कूल में जब कभी शिक्षक पूछते कि बताओ बच्चों किस-किस ने दोसा खाया है?मैं झट अपना हाथ ऊपर कर देता. सभी बच्चों की नजरें मेरी ओर मुड़ जाती थीं, क्योंकि और किसी की हाथ ऊपर नहीं उठती थी. यह देख कर मैं बड़ा गर्व महसूस करता था.
वो होटल आज भी वही में स्थित है.आज भी मैं उसे देख कर खुशी से फूला नहीं समाता,मेरा बचपन जो उसके साथ जुड़ा हुआ है.
होटल के बाईं और एक बुक स्टाल था,नाम याद नहीं आ रहा. नाश्ता करने के बाद पिताजी मेरे लिए उसी पुस्तक की दुकान से नंदन,बालहंस, चंपक,नन्हे सम्राट व कॉमिक की कुछ पुस्तकें खरीद लेते थे.ये पुस्तकें मुझे एक नए और अद्भुत संसार की सैर कराती थीं.
इन पुस्तकों को पढ़ते-पढ़ते कब मेरे भीतर किसी कलाकार ने जन्म लिया पता ही नहीं चला.मुझे लगता था कि शायद मैं भी इस तरह की छोटी-मोटी रचनाएं कर सकता हूं.
सन 1999 शायद अगस्त का महीना.उम्र 13 वर्ष,मैं 9वीं कक्षा में पढ़ता था.मेरे पिताजी की ड्यूटी भी उसी स्कूल में थी.
9वीं कक्षा में एक शिक्षक अपने बच्चों से बात कर रहा है.
"अशोक!तुम इस बार स्वतंत्रता दिवस के लिए कोई गीत नहीं गाओगे?"
"जी सर मैं गाऊँगा."
मैं सामने गया और गीत गाता गाया.
"ये भारत देश है हमारा.
हमें प्राणों से बढ़कर प्यारा........."
कविता समाप्त हुई.
"सुंदर है किसने लिखा है?"
"सर मैंने लिखी है."
"हां मैं जानता हूं कि तुम ने लिखी है.पर कहां से देख कर लिखी है?"
"सर मैंने ये कविता खुद से ही बनाई है."
"वाह फिर तो तुम कवि बन गए."
शिक्षक ने मजाक के मूड में कहा,सभी बच्चे भी हँस पड़े.किसी ने भी नहीं माना कि वो कविता
मैंने ही लिखी थी.
उस साल के 15 अगस्त के कार्यक्रम में मैंने वही कविता पढ़ी थी.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"