शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

||पाएगा अपने प्रियतम को||

संसार के कण-कण में रहता वो,
बसता सबके घट-घट.
न मिला ईश्वर यदि,तुझे अब तक,
तो समस्या नहीं ये  विकट.
जीवन रंगमंच यह प्यारे,
तू है,पल भर का नट.
रह जग में,न कर जगत से प्रीति,
नित्य तू हरिनाम रट.
मोह निद्रा से जाग जरा,
हटा अवगुणों के पट.
फिर पाएगा अपने प्रियतम को,
हृदय के अत्यंत निकट.

अशोक नेताम "बस्तरिया"

||जी लें इसी पल को||

आज हैं,है तय कि.
कल हम नहीं रहेंगे.
लोग कर्मों से हमें,
अच्छा या बुरा कहेंगे.

ये काल्पनिक-
सांसारिक बंधन तोड़कर.
जाना होगा,
सबको ये दुनिया छोड़कर.

समय न गवाँ व्यर्थ,
पुण्य कमा ले थोड़ा.
समय नहीं रुकता कभी,
ये तो है बेलगाम घोड़ा.

कल की चिंता त्यागकर,
बेहतर बनाता जो आज को.
शत प्रतिशत् सत्य कि,
पाता वही सफलता के ताज को.

भला किसने देखा है,
कल को.
क्यूँ न हँसकर जी लें,
इसी पल को.

✍अशोक नेताम 'बस्तरिया'

||हमें सद्बुद्धि का वर दे||

हो प्रसन्नता,सुख-संतोष
प्रत्येक के जीवन में.
प्रेम का ही भाव भरा हो,
जन-जन के मन में.

सबको मिले पर्याप्त,
जीवन के संसाधन.
दरिद्रता भीख माँगे,
न हो यहाँ कोई निर्धन.

प्रकृति की रक्षा करें सब,
सबको निज धर्म का ज्ञान हो.
भगिनी-पुत्री-जननी-अर्द्धांगिनी है नारी,
नित नारियों का सम्मान हो.

न हम डिगें चलते हुए,
कभी सत्य की राह में.
भटके नहीं मन कभी,
विषय सुख की चाह में.

लोकहित हो सर्वोपरि,
धर्म-जाति-भाषा भेद न रहे.
भारत की पुण्य धरा पर
सदैव स्नेह की सरिता बहे.

रक्त अपनों के बहे नहीं,
अहिंसा हो हर युद्ध का अस्त्र.
हर मानव धारण करे,
सत्चरित्ररूपी उज्जवल वस्त्र.

कुछ और न चाहें जगज्जननी,
इतनी कृपा हम पर कर दे.
न यश चाहें,न धन माँगे,
हमें केवल सद्बुद्धि का वर दे.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||जइसन करबे वइसन पाबे||

दूसर बर गड्ढा खनइय्या,
उही गड्ढा म गिर जाथे जी.
करम करथे जे जइसन.
वो वइसन फल पाथे जी.

अपनेच के कमइ खा,
दूसर के धन के ललच झन कर.
अपने लुट जाथे ओ ह,
जे दूसर ल लूट के खाथे जी.
करम करथे जे जइसन.
वो वइसन फल पाथे जी.

आज हे दुख त तैं,
निरास काबर होवथस संगवारी.
रहय कतको बड़े रतिहा,
बिहनिया तो फेर अाथे जी.
करम करथे जे जइसन.
वो वइसन फल पाथे जी.

उँच-नीच,छोटे-बड़े,जाति-धरम,
ए सब भरम हरें मनखेमनके.
मरे के बाद तो जम्मो झन,
एकेच जगा जाथें जी.
करम करथे जे जइसन.
वो वइसन फल पाथे जी.

ए दुनिया के मड़ई म,
लगे रहिथे सबके आना-जाना.
ओखरे जिनगी होथे धन्य,
इहाँ जे पुन्य कमाथे जी.
करम करथे जे जइसन.
वो वइसन फल पाथे जी.

अशोक नेताम 'बस्तरिया'

||मेरे पिया गए परदेश||

न सुहाता मुझे मेरा देश.
मेरे पिया गए हैं परदेश.

नित जलती हृदय में,
दुखों की आग.
विरह प्रतिक्षण डसता,
बनकर मुझे नाग.

मैं बैठी निराश-बावरी सी,
मैले-असंयत,मेरे वस्त्र-केश.
न सुहाता मुझे मेरा देश.
मेरे पिया गए हैं परदेश.

किए तुम्हें सहस्त्रों सुमन अर्पित,
जिस रोज मुझे मेरा प्रियतम दिखा था.
ज्ञात न था मुझे उस क्षण कि तुमने,
मेरे जीवन में ऐसा दुर्दिन भी लिखा था.

क्षण भर झुलाया सुख हिंडोले पर,
दूसरे ही क्षण भर दिया,मेरे आँचल में क्लेश.
न सुहाता मुझे मेरा देश.
मेरे पिया गए हैं परदेश.

विधि के विधान के आगे,
हैं नतमस्तक सब.
करूँगी प्रतीक्षा उनकी,
कोई और रास्ता नहीं बचा अब.

करुँगी मैं कैलाशनाथ का ध्यान.
है विश्वास पिघलेंगे,मेरे दुखों से उमापति महेश.
न सुहाता मुझे मेरा देश.
मेरे पिया गए हैं परदेश.

अशोक नेताम 'बस्तरिया'

||द्रौपदी का श्राप||

कहा द्रौपदी ने,
सभासदों से क्रुद्ध होकर.
धिक्कार है,
तुम सबके मनुज होने पर.

आज नारी दाँव पर?
क्या समझा तुमने इसे एक वस्तुमात्र.
या फिर ये हेै,
माँस-अस्थि-रक्त-चर्मयुक्त केवल गात्र.

कभी धर्मपुरी हस्तिना की,
फिरती थी तिहुँलोक दुहाई.
आज ऐसी दुर्दशा कि,
नहीं रक्षित,भगिनी-सुता-माई.

व्यर्थ छाती पीटते हो तुम,
कहते हो स्वयं को वीर.
ये कैसा है पौरुष कि,
हरे कोई,किसी अबला के चीर.

तुम सबने पार की,
आज मर्यादा की रेखा है.
कि मूक बनकर स्त्री को,
रोते-बिलखते देखा है.

स्मरण रहे,जब-जब किसी ने,
स्त्री की आँचल को छुआ है.
तब-तब इस संसार में,
कोई महासंग्राम हुआ है.

एक संतप्त नारी का श्राप है ये,
कि एक दिन,समय ऐसा खेल रचेगा.
देख अन्याय जो मौन रहे हैं आज,
उनमें से कोई भी जीवित नहीं बचेगा.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||सच्चा मानव||

है वो मानव सच्चा जिनके,
अश्रु परपीड़ा में बहते हैं.
ऐसे मनुज के हृदय में सदा,
परमपिता परमेश्वर रहते हैं.

करे त्याग असत्य का,
करे सत्य का सदा वरण.
पाप-पुण्य के रण में जो,
धरे सच्चरित्र आवरण.

निज धर्म रक्षा के लिए जो,
कठिन कष्ट सहते हैं.
ऐसे मनुज के हृदय में सदा,
परमपिता परमेश्वर रहते हैं.

सुख-दुख में रहता जिनका,
एक जैसा ही आचरण.
हार में भी न डिगे जो,
धोता जय एक दिन,उसके चरण.

संकट में भी जो धीर धरे,
उसे ही सब वीर कहते हैं.
ऐसे मनुज के हृदय में सदा,
परमपिता परमेश्वर रहते हैं.

अशोक नेताम "बस्तरिया"

||वैदेही वेदना||

समस्या है,
बड़ी विकट.
प्रियतम नहीं,
मेरे निकट.

रह-रहकर होता,
उनका स्मरण.
दुख द्विगुणित,
हो रहा प्रतिक्षण.

न सुहाता मुझे,
अशोक उपवन.
केवल प्रभु दर्शन को,
नित तरसे मन.

जब से बिछड़े स्वामी,
हम-तुम दोनों वन में.
जैसे प्राण ही न रहा,
तब से,मेरे तन में.

सुशोभित विविध सुमन,
हरित पत्र,वृक्ष-लतिका.
हैं व्यर्थ सब यदि,
संग न हो स्नेह पति का.

ओह!किया व्यर्थ मैंने,
तुम्हारे बल पर संदेह.
आह गल क्यूँ न गई,
तत्क्षण मेरी देह.

पति पर अविश्वास का,
फल मैं आज रही हूँ भोग.
मैं काठ जल रही प्रतिपल,
है अग्नि प्रिय का वियोग.

भले हो गया हो मुझसे,
कभी-कोई कतिपय भूल.
भूलकर सब दोष-दुर्गुण,
मिटाइए मेरे मन के शूल.

करती विनती वैदेही मैं ,
जोड़कर अपने दोनों हाथ.
नाथ मेरे कृपा करके,
कर दो मुझे फिर से सनाथ.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||ग्राम रसिक मेरा मन||

ग्रामरसिक मन मेरा,
शहर से दूर भागता है.
निश्चिंत सोने वाला,
अब रात भर जागता है.
इक दिन तो,
मन में जन्मेगी आशा.
उस दिन ही,
दूर होगी मेरी निराशा.
किसी से नहीं ये है,
मेरा बस खुद से संघर्ष.
जिस रोज जीत सका मैं निज को,
होगा मुझे बहुत ही हर्ष.

अशोक नेताम "बस्तरिया"

||छूट गया मेरा गाँव||

छूट गया मेरा गाँव.
शहर में पड़े पाँव.
गाँव में बचा भोजन,
गाय के आगे डालते हैं.
पर लोग यहाँ गाय नहीं,
बल्कि कुत्ते पालते हैं.
और अपना बासी खाना,
गंदे नालियों में डालते हैं.
वहाँ सभी सवेरे उठकर,
नहा-धोकर तैयार हो जाते हैं.
और बहुत जल्दी ही,
अपने काम पर  निकल जाते हैं.
यहाँ रहता नहीं ठिकाना जल का.
बस बैठे इंतजार करो नल का.
बिछड़के अपनों से,
सच कहूँ मैं तो रो दिया.
शायद कुछ पाने के लिए,
मैंने अपना सब कुछ खो दिया.

अशोक नेताम "बस्तरिया"

||अपनी जमीन मत छोड़ना||

कहा अलविदा,
मैंने घर से निकलते.
बोले पिताजी,
मुझसे चलते-चलते.

भले ही कल तक थे,
मुझसे बड़े कद में.
और आज हो गए हो,
बड़े मुझसे तुम पद में.

लेकिन बन जाए तू,
कितना ही बड़ा.
पर याद रखना,कि किया किन्होंने तुझे,
अपने इन पैरों पे खड़ा.

कभी महान होने का,
मन में झूठे विचार आए.
यदि अहंकार का,
कोई भी अंश,तुझे छू जाए.

तो देख लेना,
अपनी नजरें उठाकर,
बैलाडीला की पहाड़ियों के,
शीर्ष पर ,

उन सूखे वृक्षों को,
जो वहाँ पर कई सदियों से खड़े हैं.
बड़ी गहराई तक मिट्टी में,
जमी जिनकी जडें हैं.
दिखते छोटे,हैं विशाल,पर
कहते नहीं कभी वो,कि हम बड़े हैं.

सदा सादगी का ही,
तुम पट ओढ़ना,
हो जाओ कितने ही ऊँचे,
पर कभी,अपनी जमीन मत छोड़ना.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

||भारत का वास्तविक चित्र||

भले आदिम युग से,
उन्नति कर रहा मानव.
भौतिक विकास तो हो रहा पर,
बन रहा मन उसका दानव.
पर धन-नार देख,
हो जाती उसकी नीयत बुरी.
मुँह से कहता राम-राम,
पर बगल में रखता है छुरी.
दो दिन का जीवन है,
क्या भी करेंगे जीकर.
सड़कों पे लुढ़के रहते हैं,
कई लोग शराब पीकर.
कोई दूसरा जब,
डूबा होता है गहरे दुख में.
खिल जाती है खुशी,
तब उसके मुख में.
कम वस्त्र पहनने के,
हम नए कीर्तिमान गढ़ रहे.
सभ्य हुए थे लेकिन,
फिर नग्नता की ओर बढ़ रहे.
तन-मन को पवित्र करने,
जिस गंगा नदी में नहाते हैं.
पर जाते-जाते वो उसी को,
अपवित्र कर जाते हैं.
मंदिरों की पाषाण प्रतिमाओं पर,
रुपये पैसे,सोने-चाँदी बरसते हैं.
वहीं बाहर बैठे भिखारी,
एक-एक दाने को तरसते हैं.
दुनिया आगे निकल गई,
करके हमारी नकल.
हम जा रहे गर्त में,
घास चरने गई है अकल.
सुनने में तो ये,
लगता है बड़ा विचित्र .
पर तुम तनिक भी,
आश्चर्य न करो मेरे मित्र.
क्योंके यही तो है,
मेरे भारत का वास्तविक चित्र.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

गुरुवार, 7 सितंबर 2017

|| रहते हम गाँव में||

हम रहते भले गाँव में.
चप्पल तक नहीं पाँव में.
वस्त्रहीन भले हो तन.
पर मलिन नहीं,अपना मन.
न आया दूसरों से जलना.
औरों से छले जाते,न जानें हम,किसी को छलना.
बस अपनी कमाई खाते हैं.
सुख हो,दुख हो,बस मुस्कुराते हैं.

अशोक नेताम "बस्तरिया"

मंगलवार, 5 सितंबर 2017

||कालिया नाग मर्दन||

रहता था यमुना में एक कालिया सर्प.
था जिसे अपनी शक्ति पर बड़ा ही दर्प.
उनके हलाहल से जीव-जंतु मरने लगे.
निकट जाने से सरिता के,सभी डरने लगे.
था गोपाल को,सबके सुख-दुख का संज्ञान.
सोचा,खंडित किया जाए काली का अभिमान.
खेलते साथियों संंग फेंकी गेंद,नदी में जान बूझकर.
तुरंत कूदे,बोले-"अभी लाता मैं गेंद नदी से ढूँढकर."
भीतर यमुना में कान्हा,नागराज से लड़ रहे.
परस्पर वो योद्धा,एक दूजे पर भारी पड़ रहे.
कृष्ण के प्रहार से,बहने लगा शत्रु के मुख से रक्त.
इधर-उधर डोलने लगा नागराज होकर निशक्त.
कालिय नाग का तो जैसे,सारा अहंकार पिघला.
परास्त-विवश हो वह सरिता से बाहर निकला.
बजा वंशी नटवर करने लगे फन पर नर्तन.
हुआ कालिया नाग का अभिमान मर्दन.

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"

||गुरु को नमन||

खाया जितना उनसे मार.
उनसे मिला,उतना ही दुलार.
मिला जिनसे,जीवन का सच्चा ज्ञान.
कि बड़ों का करो तुम,सदा सम्मान.
कभी न करो,सपने में भी अभिमान.
तजो अवगुण,बनो सद्गुणों की खान.
अपने पथ पर,कभी न रूकना.
आए पर्वत,फिर भी न झुकना.
वो रास्ता,जो आपने हमेंकल था दिखाया.
सचमुच वो,आज हमारे बहुत काम आया.
थे हम अज्ञानी,हम थे अबोध.
आपने कराया हमें आत्मबोध.
ईश्वर तो मिट्टी के तन में,केवल प्राण भरता है.
गुरु उसे तराशकर,सच्चे मानव का निर्माण करता है.
पाकर जिनसे ज्ञान,सार्थक हो जाता जीवन.
उस गुरु को हमारा,हृदय से बारम्बार नमन. 

अशोक नेताम "बस्तरिया"

शनिवार, 2 सितंबर 2017

||प्रकृति दर्शन||

प्रभात काल एक यायावर.
निकल पड़ा अपनी यात्रा पर.

चारों ओर विटप दिख रहे,
लिपटे घने कोहरे के साए से.
शान्त-सुप्त नींद से जागे,
स्थिर खड़े अलसाए से.

रक्तिम नभ की पृष्ठभूमि से होकर,
खग उड़ चले जाने किस ओर.
मन में हैं उनके उम्मीदें नई,
कहते सबसे जागो,हुई अब भोर.

चमकते चांदी से,
खेत की मेड़ पर खड़े कास के फूल.
ओस गिर रहा धीरे-धीरे,
लगता गोधूलि बेला में,उड़ रही हो धूल.

सौंप जग का राज्य,दिवस को,
निशा गई अब सोने को.
सप्तरंगी रथ में सवार हो,
हुआ रवि अब उदित होने को.

नीला नभ,देखो पिघला.
प्राची से,सूरज निकला.

प्रकाश से नहा उठा,धरा-आसमान.
हो गए सुनहरे हरे घास-खेतों के धान.

तुहिनबिंदुयुक्त  हरित दूब.
रवि रश्मियों संग निखरा खूब.

दुख के काँटे सहकर ही जीवन में,
खुशियों का सुमन खिलता है.
है बड़भागी वो जिसे प्रात:काल,
प्रकृति दर्शन का सौभाग्य मिलता है.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||शायद मेरे जीवन की पहली रचना||

पिताजी के भृत्य की नौकरी कांकेर जिले में होने के कारण हमें कई बार अपने गांव केरावाही से पुरी जाना होता था.गांव में रहने वाले एक बच्चे के लिए गाड़ियों-मोटरों को देर तक निहारना बडे़ ही  गर्व और खुशी की बात थी.लंजोड़ा से कांकेर और कांकेर से हम गाड़ी बदल लेते थे. बस में मुझे खिड़की के किनारे बैठना ही अच्छा लगता था.दौड़ते हुए पेड़, खेतों में काम करती औरतें,दाएँ-बाएँ गुजरती हुई गाड़ियां मुझे बहुत भाती थीं.केशकाल की घाटी में तो मारे डर के मैं अपना दिल थाम लेता.

कांकेर में रुकने पर हम पुराने बस स्टैंड के जय हिंद होटल में नाश्ता अवश्य करते थे,नाश्ते में प्राय: दोसा ही होता था. स्कूल में जब कभी शिक्षक पूछते कि बताओ बच्चों किस-किस ने दोसा खाया है?मैं झट अपना हाथ ऊपर कर देता. सभी बच्चों की नजरें मेरी ओर मुड़ जाती थीं, क्योंकि और किसी की हाथ ऊपर नहीं उठती थी. यह देख कर मैं बड़ा गर्व महसूस करता था.
वो होटल आज भी वही में स्थित है.आज भी मैं उसे देख कर खुशी से फूला नहीं समाता,मेरा बचपन जो उसके साथ जुड़ा हुआ है.

होटल के बाईं और एक बुक स्टाल था,नाम याद नहीं आ रहा. नाश्ता करने के बाद पिताजी मेरे लिए उसी पुस्तक की दुकान से नंदन,बालहंस, चंपक,नन्हे सम्राट व कॉमिक की कुछ पुस्तकें खरीद लेते थे.ये पुस्तकें मुझे एक नए और अद्भुत संसार की सैर कराती थीं.

इन पुस्तकों को पढ़ते-पढ़ते कब मेरे भीतर किसी कलाकार ने जन्म लिया पता ही नहीं चला.मुझे लगता था कि शायद मैं भी इस तरह की छोटी-मोटी रचनाएं कर सकता हूं.

सन 1999 शायद अगस्त का महीना.उम्र 13 वर्ष,मैं 9वीं कक्षा में पढ़ता था.मेरे पिताजी की ड्यूटी भी उसी स्कूल में थी.

9वीं कक्षा में एक शिक्षक अपने बच्चों से बात कर रहा है.

"अशोक!तुम इस बार स्वतंत्रता दिवस के लिए कोई गीत नहीं गाओगे?"

"जी सर मैं गाऊँगा."

मैं सामने गया और गीत गाता गाया.

"ये भारत देश है हमारा.
हमें प्राणों से बढ़कर प्यारा........."

कविता समाप्त हुई.

"सुंदर है किसने लिखा है?"

"सर मैंने लिखी है."

"हां मैं जानता हूं कि तुम ने लिखी है.पर कहां से देख कर लिखी है?"

"सर मैंने ये कविता खुद से ही बनाई है."

"वाह फिर तो तुम कवि बन गए."

शिक्षक ने मजाक के मूड में कहा,सभी बच्चे भी हँस पड़े.किसी ने भी नहीं माना कि वो कविता
मैंने ही लिखी थी.
उस साल के 15 अगस्त के कार्यक्रम में मैंने वही कविता पढ़ी थी.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

चाटी_भाजी

 बरसात के पानी से नमी पाकर धरती खिल गई है.कई हरी-भरी वनस्पतियों के साथ ये घास भी खेतों में फैली  हुई लहलहा रही है.चाटी (चींटी) क...