सोमवार, 24 दिसंबर 2018

||गाँव में पाए जाने वाले कंद||

ठंड के दिनों में गरमागरम उबले हुए कंद/कांदा खाने  का मजा ही अलग है. गांव की बाड़ियों में प्रायः कई तरह की कंद पाए जाते हैं.इनमें से कुछ तो एक बार उगा लेने पर बारिश के दिनों में स्वत: ही उग आते हैं.आइए जानें कुछ ऐसे ही स्थानीय कंदों के बारे में......

1.लाट कांदा:-ये छत्तीसगढ़ी में डांग कांदा कहलाता है.घर की बाड़ी में उगाया जाने वाला यह बेलयुक्त पौधा है.इसकी बेल पर ही काँदे लटके हुए होते हैं.दीपावली के बाद गोवर्धन पूजा के दिन खिचड़ी में यह कंद भी मिलाया जाता है.

2.पीता कांदा:-लाट कांदा की तरह दिखने वाला यह कांदा एक जंगली बेलयुक्त पौधा है.इसे करु कांदा के नाम से भी जाना जाता है.जड़ के अंतिम छोर में पाया जाने वाला इसका कंद आकार में छोटा होता है.नाम से स्पष्ट है कि इसका स्वाद कड़वा होता है.पर लोग इसे उबालकर बड़े मजे से खाते हैं

3.केसुर कांदा:-यह काँदा उन प्राकृतिक पोखरों या खेतों में पाया जाता है जो साल भर पानी से भरे रहते हैं.दलदल से भरे खेत में पैरों से टटोलकर कांदा का पता  लगाया जाता है.फिर हाथ से काँदा निकाल लिया जाता है.एक पौधे के नीचे एक कंद ही मिलता है.इसे भी उबालकर खाया जाता है.यह बड़ा ही स्वादिष्ट होता है.खैर इसके स्वाद का मजा तो आपने जरूर लिया ही होगा.

4.नांगर कांदा:-शकरकंद को नांगर कांदा के नाम से जाना जाता है.इसकी खेती बरसात के दिनों में की जाती है.इसे प्राय:कलम विधि से उगाया जाता है.जमीन में कतारबद्ध मेड़ बनाकर कुछ दूरी पर इस पौधे के कलम गाड़ दिए जाते हैं.तीन चार-महीने में कंद तैयार हो जाने पर मेड़ की खुदाई कर कंद प्राप्त कर लिया जाता है.इसका स्वाद  मीठा होने के कारण ही यह शक्करकंद कहलाता है.प्राय: तीन किस्म का शकरकंद उगाए जाते हैं-लाल,भूरा और सफेद रंग के.यह कंद उपवास आदि के दौरान फलाहार के रूप में लिया जाता है.

5.आलू कांदा:यह वृक्षनुमा पौधा है.सेमल पेड़ की तरह दिखने के कारण यह सेमर कांदा भी कहलाता है.पौधे के नीचे तैयार होने वाला इसका कंद लगभग कलाई के बराबर मोटा और काफी लंबा होता है.बिलकुल सफेद रंग का यह कांदा बड़ा ही स्वादिष्ट होता है.उबला कांदा बाजार में बेचा जाता है.व्रतादि में इसका सेवन किया जाता है.

6.भैंसा ढेटी कांदा:-इसके कंद भैंस की सींग की तरह जुड़वा होने के कारण ही यह भैंसा ढेटी कांदा कहलाता है.इसकी लता में कांद लगते हैं.साथ ही इसका जड़ भी कंद के रूप में परिवर्तित होता है.इसका भूमिगत कंद जंघा के बराबर आकार का और बड़ा स्वादिष्ट होता है.

7.कोचई कांदा:-अरबी कंद का स्थानीय नाम कोचई है.ये प्राय:घरों घर पाया जाता है.घर की बाड़ी या खेत के मेड़ पर इसका कंद गाड़ दिया जाता है.फिर ये हर साल अपने आप उग आते हैं.यह गले में खुजली पैदा करता है इसलिए खटाई के साथ इसकी सब्जी बनाई जाती है.खुजली रहित कोचई उबालकर खाई जाती है.

8.जिमी कांदा:-जिमी कांदा छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध कांदा है.जिमीकंद भी साग  बनाने में प्रयुक्त होता है.यह भी खुजली उत्पन्न करता है.खटाई के साथ इसकी सब्जी बनाई जाती है.इसे उबालकर काटकर व सुखाकर लम्बे समय तक उपयोग में लाया जा है.पीड़ित व्यक्ति को इसकी सब्जी बवासीर से  खिलाई जाती है.

इस प्रकार कांदा और ग्रामीण जीवन का आपस में एक अटूट रिश्ता है.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

बुधवार, 31 अक्तूबर 2018

||सौम्या के लिए||

प्रतिमा की भाँति,
बिलकुल मौन हो.
स्वप्न हो कि सत्य हो,
कहो तुम कौन हो?

नील नयन,
लहराते केश.
स्वभाव सरल,
और सादा वेश.

निकलते हैं जब,
मुख से वचन.
लगता ज्यों,
बरस रहे हों सुमन.

आह ईश्वर की अद्भुत-
सुन्दर ऐसी  रचना.
जो देखे तुम्हें,
असंभव है उसका  बचना.

लिखूँ तुम पर कुछ और,
पर मिलते नहीं है शब्द.
देखकर तुम्हें सदा,
मैं हो जाता हूँ निश्शब्द.

तुम बिन रस नहीं,
किसी भी रस में.
कहो न रखूँ कैसे मैं,
हृदय को अपने वश में.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

रविवार, 21 अक्तूबर 2018

||हाइकू||

रहो तैयार.
वो सजके आएँगे.
तुम्हारे द्वार.

सजेगा गाँव.
होगी पूछ-परख.
चलेंगे दाँव.

छल ओढ़के.
करेंगे मीठी बातें.
हाथ जोड़के.

मांगेगे वोट.
विकास के नाम पे.
फेंकेंगे नोट.

पूछेंगे हाल.
मौसम है ठंड का,
बाँटेंगे शॉल.

मिलेगा दारू.
पर न बिक जाना.
तुम सोमारू.

ये जो नेता है.
ले लेता कई गुना.
जो भी देता है.

वोट मंत्र है.
राजशाही नहीं ये.
लोकतंत्र है.

सबकी सुनें.
होगा जो भी लायक.
उसी को चुनें.

किससे डरें?
हम सब मिलके,
वोटिंग करें.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

शनिवार, 20 अक्तूबर 2018

||रेंगते जा||

रेंगते जा ना,तुय गिरतो के नी डर.
गिरुन उपरे ले घुमर दख,कितरो सुँदर लागेसे.

ए जीवना आय चलते रहेसे इता,
घाम साँय चो खेल.
बिन दुखा खादलो नी निकरे,
टोरा भीतर ले तेल.

हुनि हाँसेसे एक दिन,जे आउर काजे गागेसे.

एक ठान अंडकी,
काँई तीज के धरुक नी सके.
एकलोय मनुक,
खुबे बड़े काम करुक नी सके.

खत,पानी,घाम पाएसे तेब भूँये बीजा जागेसे.

आउर के ठगुन खासे,
तुचो पेट ने कसन जिरेदे.
जसन तूय करसे करम,
हुसने तुके फर मिरेदे.

सुक ने रहेसे हुन जे,सब काज सुक माँगेसे.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||रिश्तों की नींव||

इमारत बने जब संबंधों की,
तो नींव में स्वार्थ नहीं,डाला जाए प्रेम.
फिर वो महल खड़ा रहेगा,
सदियों तक अपनी जगह  .

लेकिन मतलब के कमजोर नींव पर टिकी,
रिश्तों की बड़ी से बड़ी इमारत भी,
बहुत जल्दी भरभराकर गिर जाएगी.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||निर्दय मृत्यु||

बड़ी ही निर्दय है मृत्यु.
बच्चे-औरत,जवान-वृद्ध,
किसी की नहीं सुनती,
वो आती है और चक्रवात की तरह,
और सब कुछ अपने संग उड़ाकर ले जाती है.
कल भी वो आई अपनी उसी रफ्तार से,
और अपने सैकडों लोहे के पैरों के नीचे,
कुचल गई कइयों को.
मृत्यु का तांडव चला बस पल भर.
पर न मिला किसी को संभलने का कोई अवसर.
बिछ गए लोगों के क्षत-विक्षत शव.
अचानक वातारवरण हुआ नीरव.
किसी की माँ,किसी की पत्नी,
किसी का पिता किसी का लाल.
बिखर गए रक्त और मांस पथ पर,
धरती हुई अपनों के रुधिर से लाल.
छोड़ गई मृत्यु,
अपने कठोर पैरों के निशान.
किसी सुहागिन का रक्तरंजित मंगलसूत्र-
टूटी हुई रंगीन चूड़ियाँ.
किसी गुड़िया का लहू से तर वो फ्रॉक-
वो प्यारी सी गुड़िया,
जो खरीदी थी उसकी माँ ने,
दशहरे के मेले में.
चाचा जी का टूटा हुआ चश्मा,
टूटी हुई वो सुनहरी घड़ी.
पर उस चश्मे से मौत आती न दिखी,
न ही घड़ी बता सकी ,
सके आने का सही समय.
और भी कई वस्तुएँ पड़ी हैं पटरियों पर.
जो कह रहीं हैं मृत्यु की निष्ठुरता का,
वीभत्स और करुण वृत्तांत.
सुनकर हृदय हुआ आहत-
व्यथित और अशांत.

(अमृतसर जोड़ा फाटक रेलवे दुर्घटना में मृतकों को श्रद्धाँजलि....)

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

सोमवार, 17 सितंबर 2018

||प्रेम शाश्वत रहेगा||

आज कोण्डागाँव के साप्ताहिक बाजार में खासी भीड़ थी क्योंकि मंगलवार को क्षेत्र में नवाखानी तिहार मनाया जाएगा.

जिला मुख्यालय और बड़ा बाजार होने के कारण
15-20 कि.मी.दूर से लोग आवश्यक वस्तुएँ
क्रय-विक्रय करने यहाँ पहुँचते हैं.साग-भाजी,लोहे के औजार,कपड़े,मिठाइयाँ,श्रृंगार,राशन-तेल व अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुएँ यहाँ बड़ी सरलता से मिल जाती हैं.

आज हाट में मिट्टी के बर्तन,रंग-बिरंगे बैल व खिलौने लोगों के आकर्षण के केन्द्र थे.नवा खानी पर्व पर लोग नए वस्त्र धारण करते हैं,नए बर्तनों में भोजन पकाये जाते हैं.

आज चिवड़ा व गुड़ विक्रय करती कई महिलाएँ भी दिखीं.दरअसल नवाखाई दिन लोग सपरिवार अपने देवी-देवताओं को गुड़ व चिवड़ा अर्पित करते हैं व इसे ही प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं.भोजन ग्रहण करने के पश्चात् वे अपनों से बड़ों के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेते हैं.बच्चे मिट्टी बैल व अन्य खिलौनों से खेलते हैं.
दूसरे दिन को बासी तिहार कहा जाता है.

आज हाट में एक साँवली औरत चिवड़ा बेचने बैठी थी.

"चिवड़ा कैसे दे रही हो?"

"दस रूपया सोली."

हमारे कहने पर उसने दो सोली चिवड़ा सोली में नापकर और कुछ "पुरोनी" देकर पॉलीथीन की थैली में डाल दिया.

"चिवड़ा तो पूरा खत्म ही हो गया है.20 रु.में सारा चिवड़ा दे दो."

"नहीं बेटा इससे कम से कम और 20 रु.तो आराम से मिल जाएँगे."

चिवड़ा लेकर हम आगे बढ़ गए  लेकिन उन्होंने हमें फिर से आवाज़ देकर बुला लिया.और इस बार बिना माँगे ही उसने सारा चिवड़ा हमारी झोली में डाल दिया.

"आपने ऐसा क्यों किया?आपको तो नुकसान हुआ न?"मैंने पूछा.

उसके उत्तर ने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया.

"बेटा पैसे तो हाथ की मैल है.आज है,कल नहीं रहेगा.पर हमारा प्रेम तो शाश्वत रहेगा न?"

कभी-कभी सोचता हूँ एकदम सरल और साधारण से दिखने वाले लोग इतना बड़ा और सच्चा ज्ञान कहाँ से प्राप्त कर लेते होंगे.सम्भवत: "अनुभव की पाठशाला" से.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

मंगलवार, 11 सितंबर 2018

||दीया||

मुझे निशा से प्रेम नहीं.
क्योंकि डर है उसका आलिंगन,
मुझे अंधा न कर दे.
बिजली पर भी विश्वास नहीं.
तूफान में वह भी छोड़कर चली जाती है.
कल से आज तक एक वो ही तो है,
जिसने मेरा साथ नहीं छोड़ा.
हर परिस्थिति में मेरा साथ दिया.
अंधकार में मेरा पथ आलोकित किया.
पर बदले में मुझसे कुछ भी नहीं लिया.
आज भी हमारे आँगन में,
जल रहा है चुपचाप वही दीया.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

रविवार, 26 अगस्त 2018

||उपहार||

आज पहली बार ऐसा हुआ जब निशा अपने भाई को रोते हुए राखी बांध रहे थी.वो भी घर पर नहीं बल्कि हॉस्पिटल में.पर उनकी आँखों खुशी के आँसू थे.
दरअसल कल शाम को ही विजय अपनी बाइक से गिर गया था जिससे उसे काफी चोट आई थी. विजय है तो एक सरकारी क्लर्क पर 1-2 महीने से वेतन नहीं मिल पाने के कारण आर्थिक स्थिति खराब चल रही थी.कुछ महीने पहले पिता का साया सर से उठ जाने के बाद वह और भी अधिक दुखी रहने लगा था.इस कारण वह कुछ दिनों से बहुत अधिक शराब पिया करता था. उसकी पत्नी भी उसके इस रवैये से बहुत परेशान रहने लगी थी.
"बहन बड़े दुख की बात है कि मैं इस राखी में तुम्हें कुछ भी नहीं दे पा रहा हूं."
"नहीं भैया इस बार आपके पास मुझे देने को जीवन का सबसे बड़ा उपहार है."
"कौन सा उपहार बहना?"
"भैया यदि सचमुच आप मुझे कुछ देना चाहते हैं तो त्याग दीजिए ये नशे की लत जिसने आपको शारीरिक-मानसिक रूप से दुर्बल बनाया है.जीवन पर मनुष्य मात्र का अधिकार नहीं होता बल्कि उसके सुख-दुख अपनों को भी प्रभावित करते हैं. आपके कारण भाभी को कितनी परेशानियां झेलनी पड़ रही हैं,और भैया हमें भी आपकी हालत देखकर बहुत-बहुत-बहुत तकलीफ होती है.यदि आप मुझे ये उपहार दे पाए तो रक्षाबंधन के अवसर पर ये मेरे जीवन का सबसे बड़ा उपहार होगा."
और इस तरह एक भाई ने अपनी बहन को रक्षाबंधन का सबसे बड़ा उपहार दिया.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
       केरावाही(कोण्डागाँव)

बुधवार, 22 अगस्त 2018

||पाषाण और पवन||

एक पाषाण और एक चंचल पवन.
दोनों ही लगते हैं मुझे अपने.
दोनों से है मुझे बराबर स्नेह.
पवन दिखती नहीं.
न ही उसे छुआ जा सकता.
किया जा सकता है मात्र उसका अनुभव.
शरीर को छूते ही उसके,होती है अनुभूति,
एक दिव्य आनन्द की.
पाषाण है श्याम-शुष्क-कठोर.
किंतु कर सकता हूँ मैं स्पर्श,
उसे हाथों की अंगुलियों से.
दुख की घड़ी में उस पर शीश टिकाकर,
और रोकर,विस्मृत कर देता हूँ मैं,
अपने समस्त दुख सदा के लिए.
है हृदय भूमि मेरी,
पवित्र प्रेम पीयूष से सिंचित.
सब कुछ पाया मैंने,
किस विषय पर रहूँ चिंतित.
दोनों ही का प्रेम,
हृदय के भीतर बसा है.
मेरे पिता(ईश्वर) ही समझ सकते हैं,
जो अब मेरी दशा है.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

शनिवार, 11 अगस्त 2018

||समया फेरे नी अये||

नहाकलो समया फेरे नी अये,
मान्तर हुनचो सुरता अएसे.

हुन चमास चो झड़ धरतो.
नंदी-ढोड़ी चो उसलुन जातो.
जमाय जुहुन पूरा के दखुक जातो.
पानी ने सड़क के बोहाउन नेतो.
गरी ने केंचुआ गुथुन मछरी फसातो.
आउर बेड़ा पार ने चोड़या रोपतो.

नहाकलो समया फेरे नी अये,
मान्तर हुनचो सुरता अएसे.

मरहान ने माचा बनाउन जोंधरा राका रतो.
लकड़ी चो नाँगर,माटी चो गाड़ी बनातो.
राति बेरा खीरा-मूँगफली चोरुक जातो.
झाड़ बेंदरा,पोटा लामा,नोन चोर खेलतो.
हासते-खेलते खमन ने बयला चरातो.
रुक ले कोसा कीड़ा जुहाउन घरे आनतो.

नहाकलो समया फेरे नी अये,
मान्तर हुनचो सुरता अएसे.

आया-बाबा संग गोंचा बाजार दखुक जातो.
अमुस ने डेंग-डेंग गोड़ोंदी बनातो.
नवाखानी चो हुन हुलकी मंदर नाचतो.
दसराहा ने कोंडागाँव चो रावन मारतो.
दियारी ने गाय-बयला के खिचड़ी खोवातो.
मंडई ने देव मन चो काय मंजा बिहरतो.

नहाकलो समया फेरे नी अये,
मान्तर हुनचो सुरता अएसे.

राति दाँय आया बाबा चो कहानी साँगतो.
ओंडकेरा चो नाव ने आमके डरातो.
गाड़ीमन के दखुन लुकुकलाय परातो.
हुन बिगर बिजली चो चिमनी बीती जीवना.
छानी उपर ले पानी चुहलेक गंजी के मंडातो.
हुन मसनी-चाप ओसाउन भुँए सवतो.

नहाकलो समया फेरे नी अये,
मान्तर हुनचो सुरता अएसे.

माहला ने लाई गुड़ चिवड़ा खातो.
बिहाव दाँय चो रेला गीत गावतो.
लगिन दाँय नकटा-नकटी बनतो.
गुर्रुम-गुर्रुम गरजुन मन्दर बाजतो.
छट्टी ने थारी पेटुन नाव साँगतो.
मरनी ने गागते-गागते माटी देतो.

नहाकलो समया फेरे नी अये,
मान्तर हुनचो सुरता अएसे.

समया चो कडरा सबके काटली.
हरीक उदीम चो तरइ आज आटली.
बदलली अदाँय जीवना चो ढंग.
बेटा माय-बाप के छांडुन रहेसे बायले संग.
जीवना आय दुय दिन चो सत गोट के धरा.
काचोय जीव दुखो असन काम केबय नी करा.

✍अशोक कुमार नेताम
   केरावाही(कोण्डागाँव)

||हम आदिवासी हैं||

सदियों से वन के वासी हैं.
कहलाते आदिवासी हैं.
रहते हम हरे-भरे वन में.
छल-कपट नहीं मन में.
अभावों में हँसके जीते हैं.
नदियों का मीठा जल पीते हैं.
धान मंडिया-कोदो बोते हैं.
परिणाम पर कभी नहीं रोते हैं.
संग्रह करते हम महू-सरगी-चार.
पशु-पक्षियों से हमें बहुत है प्यार.
गाँव में देवी-देवताओं का वास.
करते जो सब दुखों का नाश.
नाचते माँदर,गाते रिला गीत.
खुशी से जीवन जाता है बीत.
अनोखी हमारी हर परम्परा है.
हमारे श्रम से खिली वसुन्धरा है.
क्यों भलासमस्या कोई आएगी विकट.
जब हम हैं प्रकृति के इतने निकट.

(तस्वीर:- इन्टरनेट से)

✍अशोक नेताम
   केरावाही(कोण्डागाँव)

||सावन में जेठ ||

भीषण अग्नि से,झुलस रहा सबका रूप.
है तो ये सावन का महीना,पर जेठ की है धूप.

सूखा ताल,मेंढ़क प्यासे-प्यासी मीन.
बरस रहा अनल,तप रही ज़मीन.

साल वनों के विशाल वृक्ष खड़े हैं बिलकुल मौन.
पंछी भी तरसें जल को आखिर गीत सुनाए कौन?

हुआ मिलना दूभर पशुओं को,भरपेट चारा.
थोड़ी दूर चलके छाँव ढूँढता पथिक बेचारा.

अंतिम साँसे गिन रही,खेत में खड़ी फसल.
पोखर नदी-नालों में,बूँद भर भी नहीं जल.

बैठा है माथ पर हाथ रखे कृषक,सशंकित मन.
"हे ईश्वर!क्या अब फाँके में ही कटेगा शेष जीवन?"

✍अशोक कुमार नेताम
    केरावाही(कोण्डागाँव)

||जीवना दुय दिन चो हाट||

अवधरम के छाँड तुय,धर धरम चो बाट.
जीवना दुय दिन चो हाट,जीवना दुय दिन चो हाट.

गोदी खनला-बनी गेला,दुखा धराला हाथ-पाँय के.
सेवा करा हुनमन चो,नी भुलका आपलो बाप-माय के.

नी सरे काँई तुचो,खरचा नी होय पताय नोट.
जमाय आमि भाइ-भाइ,हाँसुन गोटयाव गोट.

मया चो सूत ने बाँध सबके,भरम चो डोरी के काट.
जीवना दुय दिन चो हाट,जीवना दुय दिन चो हाट.

आपुन के लाट साहब,नानी नि समज तुय आउर के.
पियेसे कोनी पेज-पसया,तुय बले खासित हुनि चाउर के.
बड़े नी होय कोनी मनुक,रुपया-पयसा गाड़ी ने.
सन्तोस रलो ने सुक मिरेसे,डारा पाना चो लाड़ी ने.

मिलुन रा सबाय संग,नानी बड़े चो खोदरा के पाट.
जीवना दुय दिन चो हाट,जीवना दुय दिन चो हाट.

सवकार हवो कितरोय कोनी,कोनी रहो बे कमया.
पराते जायसे थेबे नइ केबय,काचोय काजे समया.
माटी आय देंह आमचो,कोनी दिन बले माटी होयदे.
नी रहेदे ए काँई काम चो,भुँय खाले पाटी होयदे.

कितरोय लाम रहो बे राति,सरुन चे जायसे नाट.
जीवना दुय दिन चो हाट,जीवना दुय दिन चो हाट.

✍अशोक कुमार नेताम
   केरावाही(कोण्डागाँव)

गुरुवार, 2 अगस्त 2018

||बियासी||

किसानी के काम मेें बहुत श्रम और धन खर्च होता है.अच्छी फसल की आस में किसान अपना सर्वस्व खेतों में झोंक देता है.कई बार वर्षा के अभाव में फसलें सूख जाती हैं और कभी कृषकों को अपने उपज की सही कीमत नहीं मिल पाती.लेकिन काश्तकारी बड़े मजे का काम है.सदैव प्रकृति के समीप रहकर अपने प्यारे पशुओं पर प्यार लुटाना,हरे-भरे खेतों का दीदार करना और परिजनों के संग आनन्दमय जीवन व्यतीत करना,संभवत: यही संसार का सबसे बड़ा सुख है.

छत्तीसगढ़ में मुख्यत: धान की फसल ली जाती है.धान की बुआई के बाद खेत में बियासी देना बहुत महत्वपूर्ण काम है.आइए जानें बियासी देना आखिर क्या है?

धान की बुआई में बीज एक-दूसरे के एकदम आस-पास गिरते हैं जिससे धान के पौधे बहुत धने हो जाते हैं.जिससे उन्हें वृद्धि व विस्तार करने का प्रर्याप्त स्थान नहीं मिल पाता.इसलिए बुआई के लगभग 20-25 दिन बाद जब खेतों में पर्याप्त पानी भरा होता है,हल चलाया जाता है.हल चलाते समय लाइन की दूरी लगभग 15-20 से.मी. होती है.रोपाई वाले धान में बियासी नहीं दिया जाता.

क्या होता है बियासी देने से?

बियासी देने से खेत की मिट्टी ढीली हो जाती है व आपस में पौधों की दूरी बढ़ जाती है जिससे उन्हें बढ़ने का पर्याप्त अवसर मिल जाता है.बियासी के बाद निंदाई कर खेतों से खरपतवार उखाड़कर नष्ट कर दिया जाता है.

इस प्रकार खेत में बियासी देना धान की फसल के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है.

कहा जाता है कि पहले खेतों में बियासी नहीं दी जाती थी.इससे संबंधित एक कहानी भी कही जाती है.
जो इस प्रकार है..

किसी गाँव में दो भाई रहते थे.दोनों दोनों के खेत अलग-अलग थे.जहाँ वे धान बोया करते थे.छोटा भाई बड़े से किसी कारणवश नाराज था.इसलिए एक दिन उसने सोचा कि क्यों न बड़े भाई के धान की फसल बरबाद कर उसे दुख पहुँचाया जाय.इसलिए उसने रातों रात भाई की फसल पर हल चला दिया और पकड़े जाने के भय से गाँव छोड़कर भाग गया.
बड़ा जान गया कि ये उसके छोटे भाई की करतूत है.वह दुखी तो हुआ पर उसने हिम्मत नहीं हारी.और अपने काम में लगा रहा.आश्चर्यजनक रूप से उस वर्ष उसके धान की उपज कई गुना बढ़ गई.कहा जाता है तब से धान के खेत में बियासी देने की शुरुआत हुई.

✍अशोक कुमार नेताम
     केरावाही(कोण्डागाँव)

शनिवार, 28 जुलाई 2018

||कोसा कीड़ा||


बाजारों में रेशमी वस्त्रों की बहुत माँग होती है.आकर्षक,चमकदार रंग और सर्दी-गर्मी दोनों मौसम में अनुकूल होने के कारण रेशमी वस्त्र लोगों में काफी लोकप्रिय होते हैं.आजकल तो रेशमी साड़ियों के अलावा रेशमी रुमाल शर्ट,टाई,सलवार,बेडशीट,पिलो कव्हर,टेबल क्लॉथ,पर्दे आदि भी बहुत पसंद किए जाते हैं.
पर क्या आप जानते हैं कि ये सिल्क या रेशम,एक कीट से प्राप्त होता है.जिसे रेशम कीट कहते हैं.इसे पालने के का काम रेशम कीट पालन या सेरीकल्चर  कहलाता है.
बस्तर में भी विशेषत: वे क्षेत्र जो कि साल वनों के अंतर्गत आते हैं,घरों में रेशम कीट पाले जाते हैं व आर्थिक लाभ प्राप्त किया जाता है.कैसे?
आइए जानें.
बस्तर में अधिकतर मानसूनी खेती होती है.धान की कटाई के बाद फसल लगभग नहीं ली जाती है,इसलिए गर्मी भर मवेशियों को स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है.
आषाढ़ महीने में धान बुआई के बाद खेत फिर से हरे-भरे हो जाते हैं और पशुओं को चराने का क्रम पुन: आरंभ हो जाता है.गांव के लोग सुबह 8 बजे से 11 बजे तक फिर दोपहर 2 बजे से 5 बजे तक अपने मवेशियों को जंगलों में ले जाकर जाकर  चराते हैं.जब भी वे अपने पशुओं के साथ घर वापस लौटते हैं तब उनके हाथ में साल वृक्ष की एक डारा(शाखा)होती है जिसमें हरे रंग के लगभग 10-12 से.मी. के बड़े-बड़े कीड़े होते हैं.जिसे वो कोसा कीड़ा कहते हैं.
क्या है कोसा कीड़ा?
वैसे तो कई तरह के रेशम कीट पाले जाते हैं.जिनमें से मलबरी(शहतूत)रेशम कीट बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है.पर जंगल में पाया जाने वाला ये रेशम कीट बड़ा प्यारा और सुन्दर होता है.यह बिल्कुल रेशम सा मुलायम होता है.हाथ से पकड़ लेने के बाद इसे छोड़ने का मन ही नहीं करता है.लोग पेड़ के नीचे गिरे कीट के मल से इसे खोज लेते हैं.बिल्कुल पत्ते के रंग का होने के कारण यह आसानी से नजर नहीं आता.
एक बड़े साल के पेड़ से लगभग 5 से 10 कोसा मिल ही जाते हैं.ग्रामवासी अपने घर में इस कीड़े को उस पेड़ पर डाल देते हैं जहाँ ये जीवित रह सके.ये कीट प्राय: सरई,महुआ,अमरूद,अर्जुन(कहुआ),आदन(साजा)आदि वृक्षों में ये आसानी से अपना जीवन चक्र पूर्ण कर कोसा का निर्माण करता है.
15-20 दिनों बाद ये कीड़ा कुछ पत्तों को जोड़कर अपने चारों ओर तंतुओं का एक आवरण तैयार करने लगता है.ये तंतु उसके मुँह से निकलते हैं.फिर एक कोश का निर्माण कर वह कीड़ा उसी के भीतर कैद हो जाता है.अगस्त महीने के आसपास वह कीट कोश में छिद्र कर तितली के रूप में बाहर आ जाती है.और पत्तों पर अंडे देती है.इस तरह कोसा कीड़ा का जीवन चक्र चलता रहता है.छिद्रयुक्त कोसा की कीमत कम होने के कारण इन्हें गर्म पानी में उबाला जाता है ताकि कोसा के भीतर का कीट मर जाए व कोसा साबुत बना रहे.
वैसे कुछ लोग सीधे जंगल से ही रेडीमेड कोसा प्राप्त कर लेते हैं.आप माने या न मानें एक व्यक्ति साल वनों से एक दिन में 50 से 100 कोसा जमा कर लेता है.एक कोसा बाजार में लगभग 5 रुपये में बिक जाता है.पर दुख की बात ये है कि कुछ कोसा की चाह में लोग पूरा पेड़ तक काट देते हैं.कई बार लोग पेड़ से गिरकर घायल भी हो जाते है.
इसलिए हम तो यही कहेंगे कि कोसा के लिए वन को नुकसान न पहुँचाया जाय साथ ही पूरी सावधानी बरती जाय.
(संलग्न सारी तस्वीरें नेट से)
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

रविवार, 22 जुलाई 2018

||बहुत लाभकारी है खेक्सी||

वनों ने अपने सीने में मानव जाति के लिए कई दिव्य और लाभकारी उपहार छुपा रखे हैं और उन्हीं उपहारों में से एक है-खेक्सी.बिल्कुल करेले की तरह दिखने के कारण बस्तर में इसे रान करेला यानी कि जंगली करेला के नाम से भी जाना जाता है.आजकल यह बाजारों में ₹ 200 प्रति किलोग्राम की दर से बिक रहा है.
क्या है खेक्सी:-खेक्सी का वानस्पतिक नाम मोमोकॉर्डिया चेरेन्शिया है जोकि कुकुरबिटेसी प्रजाति का पौधा है.अंग्रेजी में इसे स्पाइनी गॉर्ड कहते हैं. करेले की तरह दिखने के बावजूद ये स्वाद में बिलकुल भी कड़वा नहीं होता.

कहाँ पाया जाता है :-खेक्सी का पौधा पर्वतीय इलाकों में पाया जाता है.जोकि बेलयुक्त होता है.इसकी लताएँ पेड़ पर लिपटी हुई होती हैं.बरसात के दिनों में इस पर फल लगते हैं.वैसे तो यह जंगली पौधा है पर इससे होने वाली कई तरह के फायदों और इसकी बढ़ती माँग के चलते मैदानी क्षेत्रों में भी इसकी खेती की जा रही है.इसका बीज परवल के बीज की भाँति हल्का होता है जिससे नया पौधा उगाना संभव नहीं हो पाता.इसलिए लोग बरसात के दिनों में इसके पौधे को जंगल से जड़ व कंद सहित उखाड़ लाते हैं और अपने घर की बाड़ी में रोप देते हैं और खेक्सी प्राप्त करते हैं.इसकी सब्जी बहुत ही मीठी और स्वादिष्ट होती हैं.
खेक्सी के फायदे:-
खेक्सी की सब्जी बहुत फायदेमंद है.जो निम्नानुसार है:-
1.कैंसर की रोकथाम में सहायक : इसमें मौजूद ल्यूटेन जैसे केरोटोनोइड्स विभिन्न नेत्र रोग,हृदय रोग और यहां तक कि कैंसर की रोकथाम में सहायक है.
2.सर्दी-खांसी से राहत दिलाए:-इसके एंटी-एलर्जन और एनाल्जेसिक गुण सर्दी-खांसी से राहत प्रदान करने और इसे रोकने में भी सहायक हैं.
3.स्वास्थ्य को बढ़ावा देने में सहायक:-खेक्सी में मौजूद फाइटोकेमिकल्स स्वास्थ्य को बढ़ावा देने में मदद करते हैं.एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर इस सब्जी से शरीर को साफ़ रखने में मदद मिलती है.
4.वजन घटाने वालों के लिए अच्छी : प्रोटीन और आयरन से भरपूर खेक्सी में कम मात्रा में कैलोरी होती है.100 ग्राम खेक्सी में केवल 17 कैलोरी होती है, जिस वजह से ये वजन घटाने वाले लोगों के लिए बेहतर विकल्प है.
5.डायबिटीज के रोगियों के लिए अच्छी:-यह ब्लड शुगर कम करने और डायबिटीज को नियंत्रित करने में सहायक है.
6.पाचन सही रखने में मददगार:-इस सब्जी में भरपूर मात्रा में फाइबर और एंटीऑक्सीडेंट होते हैं,जिस वजह से ये आसानी से हजम हो जाती है.ये मानसून में कब्ज़ और इन्फेक्शन को नियंत्रित कर आपके पेट को सही रखती है.
आपने भी जरूर रान करेला यानी कि की खेक्सी की लज़ीज सब्ज़ी का मजा उठाया होगा.
खेक्सी के फायदे:-
लिंक https://onlyayurved.com/vegetables/कंटोला-या-ककोरा/miraculous-health-benefits-of-kantola/ से
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

बुधवार, 18 जुलाई 2018

||खेलुक मिरती ता फेरे....||

घाम-बरसा-सीत खादली,
पोसली आमके चार महू-टोरा ने.
खेलुक मिरती ता फेरे मके,
मचो माय चो कोरा ने.
गेली केबय केसुर कांदा,
पीता काँदा कोड़ुक.
बुलली खमन ने,
सरगी-टेमरु पान टोड़ुक.
पीला-पीचका चो सुक काजे,
हिंडली बाटे -बाटे.
बिकली केबय धूप केबय,
पान-दतुन जाउन हाटे.
केबय केरा बिकुक नीली,
मुंडे बोहुन बोरा ने.
खेलुक मिरती ता फेरे मके,
मचो माय चो कोरा ने.
आमचो काजे आउर घरे,
आया करलिस बुता.
पड़उक लिखउक आमके,
आपलो बिकुन दिली सुता.
नी घेने आपलो काजे,
केबय नुआ लुगा.
घेनु देउआय आमचो काजे,
मोटोर गाड़ी फुगा.
हाट ले चना-चरबन आनुआय,
भरुन आपलो झोरा ने.
खेलुक मिरती ता फेरे मके,
मचो माय चो कोरा ने.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

रविवार, 15 जुलाई 2018

||धान की खेती||

छत्तीसगढ़ में कई तरह की आनाज,दलहन व तिलहन फसलें ली जाती हैं.पर चावल यहाँ के भोजन में प्रमुख रूप से शामिल है.धान की सर्वाधिक पैदावार होने के कारण छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है.छत्तीसगढ़ में धान की कुछ ऐसी प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं जो अपना औषधीय महत्व रखती हैं.आइए हमारे इलाके में धान की खेती पर चर्चा करें.
धान खरीफ की फसल है जिसका वैज्ञानिक नाम ओराइजा सटाइवा है.इसकी बुआई जून-जुलाई में हो जाती है.
फसल के पकने की अवधि के आधार पर धान दो तरह के होते हैं-
1.तुरिया धान:-ये कम अवधि(लगभग 3 महीने)में पककर तैयार हो जातें है.ये मैदानी भागों में जहाँ पानी ठहर नहीं पाता,बोए जाते हैं.इसके पौधों की लंबाई कम होती है.इसके अंतर्गत कुटबुड़ी,करेला आदि नाम के स्थानीय धान आते हैं.
2. धान:-ये धान देर से(करीब 4 महीने में)पककर तैयार होते हैं.गहराई भूमि में बोए जाते हैं.इसके पौधो ऊँचे होते हैं व धान की बालियाँ भी अधिक होती हैं.कृष्णा,एच एम टी,दूबराज व अन्य संकर(हाइब्रिड)प्रजातियाँ आती हैं.
खाद का प्रयोग-प्राय: किसानों के घर में एक बड़ा गड्ढा होता है जहाँ गाय-बैलों के गोबर एकत्र कर लिया जाता है.जिसे खातू गड्ढा कहा जाता है. साल भर में वह  खाद में परिवर्तित हो जाता है.अभी इस खाद के साथ-साथ बेहतर पैदावार के लिए यूरिया व डी.ए.पी.जैसे रासायनिक खाद का भी उपयोग किया जा रहा है.
धान की बुआई/रोपाई:-
धान दो प्रकार से लगाया जाता है
1.बुआई:-बुआई  में बारिश की नमी के बाद हल चलाकर धान के बीज सीधे खेतों में बो दिए जाते हैं.बोने के बाद पाटा या कोपर चलाया जाता है जिससे कि बीज मिट्टी के भीतर ढँक जाएँ.बोआई के पहले दिन को बीज निकालना कहते हैं.बीज प्राय: जून में निकाला जाता है.10-15 दिनों में खेत हरे-भरे हो जाते हैं.अगस्त के महीने में जब पौधे 20-30 से.मी. की लंबाई के होते हैं और खेतों में पानी भरा होता है तब खेत में हल चलाया जाता है जिसे बियासी मारना करते हैं.खेत में अनावश्यक घास यानी कि खरपतवार उग आने पर उसे उखाड़कर नष्ट कर दिया जाता है जिसे निंदाई कहा जाता है.आवश्यकतानुसार ऊर्वरक व कीटनाशक का छिड़काव भी किया जाता है.
2.रोपाई:- रोपाई में धान की पौध तैयार की जाती है. पौधों के 20 से 25 दिन के हो जाने पर खेतों को रोपाई के लिए तैयार कर ले जाता है.पानी से भरे खेत की जुताई कर ली जाती है फिर कीलयुक्त पाटा(कोपर) चला कर खेत को समतल कर लिया जाता है.खेत में डी.ए.पी. का छिड़काव किया.तैयार खेत में धान के पौधे लगभग 15 से 20 सेंटीमीटर की दूरी पर लगाए जाते हैं. रोपाई हो जाने के 2 दिन बाद से खेत में 5 से 6 सेंटीमीटर पानी का भरा होना आवश्यक होता है.रोपाई विधि में में खरपतवार बहुत कम पैदा होते हैं व पैदावार अधिक होती है
सितंबर महीने में धान की बालियाँ निकल जाती हैं और अक्टूबर-नवंबर तक फसल तैयार हो जाती है.फसल काटकर व कूपा बनाकर कोठार में रखा जाता है.कटे हुए धान की फसल को कोठार में व्यवस्थित रूप से जमाकर रखा जाता है जिसे कूपा कहते हैं.बारिश होने की स्थिति में धान  कूपा में पानी से सुरक्षित रह जाता है.फिर कभी बेलन या ट्रै्टर चलाकर धान की मिंजाई की जाती है.दरभा धान यानी कि वो धान जिसमें चावल नहीं होता को पंखे के उड़ाकर अलग कर दिया जाता है.वर्तमान में थ्रेशर का उपयोग किया जाता है जिससे समय की बचत होती है.
बस्तर में धान ढूसी में रखा जाता है.कई स्थानों पर कोठी व बाँस से बने डोलगी में धान को सुरक्षित रख लिया जाता है.
(तस्वीर:-इंटरनेट से)
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

शनिवार, 14 जुलाई 2018

||बस्तर में बनी-भूती||

बस्तर के लोग बड़े सीधे-सरल होते हैं.पर यहाँ अधिकांश परिवारों की आर्थिक स्थिति कमजोर होती है.जिसके कारण इन्हें बनी-भूती मजदूरी करनी पड़ती है.

आइए हमारे आस-पास प्रचलित मजदूरी के कुछ प्रकारों को जानें.

1.बनी:-प्राय: रोजी की दर पर किए जाने वाला काम बनी कहलाता है.सुबह 8 से 12 फिर 2 से 5 बजे तक का काम एक दिन की बनी कहलाता है.
ये कई प्रकार के हो सकते हैं-

क)नांगर बनी:-नाँगर बनी में आदमी अपने बैल व हल की सहायता से 6 से 11 बजे तक दूसरे के खेत की जुताई का कार्य करता है.मजदूरी 150 से 200 के लगभग होती है.इसमें एक प्रहर ही कार्य करना होता है.

ख)रोपा बनी:-धान की रोपाई हेतु  की जाने वाली बनी रोपा बनी कहलाती है.

ग)निंदा बनी:-धान के खेतों में खरपतवार उखाड़ने का काम निंदा बनी कहलाती है.

घ)हाट बनी:-बनी करने के दिन औरतें हाट-बाजार नहीं जा पातीं क्योंकि  काम के खत्म होते तक शाम हो चुका होता है.इसलिए अब हाट बनी आरंभ हो गई है.इसमें बनिहार सुबह 6 बजे से  दोपहर तक लगातार काम करता है.उसके बाद छुट्टी हो जाती है.

ड.)कोड़का बनी:-भुट्टे के पौधे 10-15 से.मी. होने पर उसके तने की मजबूती के लिए मिट्टी चढ़ाई जाती है.इसे कोड़का देना या कोड़कना कहते हैं.

2.ठेका:-ठेके में कई मजदूर मिलकर किसी काम को निश्चित दिन तक पूरा करने का जिम्मा लेते हैं.इसमें समय की पाबंदी नहीं होती.तय अवधि से पहले काम पूरा होने पर बनिहारों को फायदा होता है.

3.गोदी:-गोदी के अंतर्गत प्राय: खुदाई का काम होता है.अब गोदी में रोपाई भी की जाती है.खुदाई में तय लंबाई-चौड़ाई व गहराई के अनुसार मजदूरी मिलती है.रोपाई में भी रोपे गए पौधों के क्षेत्रफल के अनुसार कमाई का निर्धारण होता है.

4.बेठिया:-बस्तर में लोग केवल रुपये कमाने के लिए नहीं बल्कि सहयोग व आत्मीयता बनाए रखने के लिए भी काम करते हैं.इसका उदाहरण है बेठिया.बेठिया में किसी भी  काम के बदले  दाम नहीं दिया जाता बल्कि उस दिन सहयोगियों के लिए शाम के भोजन की विशेष व्यवस्था करनी होती है.लेकिन यह प्रचलन से बाहर होता जा रहा है.

5.नग के आधार पर मजदूरी:-कई बार नग के आधार पर भी मजदूरी तय होती हैजैसे ईंट-खपरैल आदि निर्माण में प्रति सैकडा या हजार पर मजदूरी तय की जाती है.हमाली करने वाले भी प्रति बोरे की दर से रुपये लेते हैं.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

सोमवार, 9 जुलाई 2018

||हल्बी ठसा-2||

आजि चो बूता के आजि सार,नी कर काल-काल.
फेरे समया नी मिरेदे बाबू,अमरुन जायदे काल.

आगर रहो पैसा-कौड़ी,कितरोय रहो बल.
जीव दुखातो गोठ केबय,आउर के नी बल.

बेमार होलीसे जे बीती,खा हुन चोय गोली.
अस्तिर ने काम कर,छाँड बंदुक अउर गोली.

बिन नेवतलो नी जा कहाँय,गोट के मचो मान.
बिगर बलालो गेलो ने,नी करत कोनी  मान.

ऊपर बीता करेसे तुचो,जमाय करम चो जोड़.
अवधरम के छांड ना,धरम के मोडरा ने जोड़

साग कढ़ई ने जरुन जायदे,चाटु ने हुनके घाट.
बिन हात-पाँय चलालो कसन,नाहकसे नंदी घाट.

आपलो जमाय हरिक-उदीम,आउर संगे बाट.
धन कमाउन खूबे तुय,धरुन जासे ना कोन बाट.

✍अशोक नेताम

चाटी_भाजी

 बरसात के पानी से नमी पाकर धरती खिल गई है.कई हरी-भरी वनस्पतियों के साथ ये घास भी खेतों में फैली  हुई लहलहा रही है.चाटी (चींटी) क...