बुधवार, 18 दिसंबर 2019

अद्भुत सौंदर्य स्थल:झारा लावा जलप्रपात

प्रकृति की गोद में बसे दंतेवाड़ा जिले में कई ऐसे झरने हैं,जो दुर्गम मार्गों के कारण अाज भी गुमनाम बने हुए हैं.ऐसा ही एक प्यारा सा झरना है-झारा लावा जलप्रपात.
  
दंतेवाड़ा बैलाडीला मार्ग पर धुरली गाँव से दाईं ओर बासनपुर मार्ग है.धुरली-बासनपुर मार्ग से लगभग 8 किलोमीटर के सफर तथा उसके बाद 5 किलोमीटर पहाड़ की खड़ी चढ़ाई के पश्चात् आप झारा लावा जल प्रपात पहुँच जाते हैं.दरअसल झारा लावा एक गाँव है,जिससे इसका नाम झारा लावा जलप्रपात है.इस झरने का वेग अत्यंत प्रचंड है,तथा इसकी जलधारा भीषण गर्जना के साथ प्रवाहित होती है.बताया जाता है जलप्रपात के ऊपर विशाल मैदानी स्थल स्थित है.साथ ही वहाँ 11वी-12 वीं शताब्दी का शिवलिंग भी स्थापित है.

  झारा लावा गाँव की हरी-भरी पहाड़ियाँ,पक्षियों का मधुर कलरव,और झरने का सौंदर्य व उसके झर-झर की ध्वनि तन-मन को अद्भुत आनन्द से भर देती है.
 इस सुंदर जल प्रपात तक पहुँचना बड़ा ही कठिन है,ऐसा प्रयास किया जाना चाहिए कि सैलानी यहाँ आसानी से पहुँच सकें और इस प्रपात के दिव्य सौंदर्य के दर्शन कर सकें.

(लिंक के लिए राकेश कुमार मंडावी बचेली सैलानी बचेली/जानकारी के लिए पत्रकार बंधु-शैलेंद्र ठाकुर दैनिक भास्कर दन्तेवाड़ा/और छायाचित्र के लिए शहनवाज़ खान आप सभी का धन्यवाद आभार)

✍अशोक कुमार नेताम

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

नाम बड़ा या काम?

शांति का पति बहुत मेहनती और चतुर था.वह उनके साथ बहुत खुश थी.पर उसे अपने पति का नाम बिल्कुल पसंद नहीं था.उनके पति का नाम था बुद्धूराम.शांति ने कई बार उनसे कहा कि वो अपना नाम बदल दें,पर हर बार बुद्धूराम ने यही जवाब दिया कि आदमी नाम से नहीं अपने काम से पहचाना जाता है.इसलिए मेरा नाम वही रहेगा,जो मेरे माता-पिता ने रखा है.एक दिन तो शांति नाम बदलने की जिद पर अड़ गई,पर उसके पति बुद्धूराम भी टस से मस नहीं हुआ.बड़े गुस्से में आकर शांति मायके की ओर निकल गई.

रास्ते में शांति ने देखा कि एक आदमी जरूरतमंदों को धन बाँट रहा था.लोगों की भीड़ लगी हुई थी.सभी उस दानवीर की जय-जयकार कर रहे थे.शांति ने एक से पूछा-"क्या हो रहा है?"

जवाब मिला-"कुछ नहीं बहन सेठ फ़कीरचंद बड़े नेक आदमी हैं,गरीबों को धन-दौलत और कपड़ों का दान कर रहे हैं."

"दानदाता और नाम फ़कीरचंद."कुछ सोचती हुई शांति आगे बढ़ गई.

कुछ दूर जाने पर उसे एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी दिखी.शांति ने पूछा -"क्या हुआ भैया ये पंचायत किसलिए?'

"क्या कहें बहन!कोमलचंद ने शेरसिंह की पिटाई कर दी.उसी की सुलह के लिए पंचायत बैठी है."एक ने उत्तर दिया.

''कोमलचंद ने शेरसिंह की पिटाई कर दी?"आश्चर्यचकित शांति आगे बढ़ गई.

आगे उसने एक औरत को आते देखा,जो अपने सिर पर घास का बोझा उठाए हुए थी.
शांति ने उससे भी पूछ लिया- बहन आपका नाम क्या है?और ये घास का गट्ठा लेकर आप कहाँ चल दीं?"

"मेरा नाम राजरानी है बहन,और मैं घास बेचने जा रही हूँ."उस औरत ने हँसकर जवाब दिया.

जवाब सुनकर शांति फिर से आश्चर्यचकित रह गई.वह  सोचने लगी-फ़कीरचंद,कोमचलचंद,शेरसिंह,राजरानी इन सबके नाम तो उनके गुणों से एकदम अलग हैं.यानी आदमी नाम से नहीं अपने काम से बड़ा होता है.मेरे पति का नाम चाहे कुछ भी हो पर हैं तो वे बड़े बुद्धिमान और परिश्रमी.

उसे अपने पति के साथ किए बुरे बर्ताव पर बहुत पछतावा होने लगा.शाम ढलने को आई थी,वह बड़े तेज कदमों से अपने घर की ओर लौट गई.

(यह कहानी बचपन में स्कूल में पढ़ाई गई कहानी "नाम बड़ा या काम" पर आधारित है)

-अशोक कुमार नेताम 

गुरुवार, 11 जुलाई 2019

हार के बाद ही जीत है

साल 20011 का.खेत में काम करते विविध भारती सुन रहा था.सखी सहेली कार्यक्रम में एक महिला ने बड़ा शानदार खत लिखा था.सुनकर मन गदगद हो गया.चिट्ठी कुछ इस तरह की थी.

"नमस्कार!.....मेरे पति क्रकेट के दीवाने हैं.2003 के वर्ल्ड कप फाइनल के दिन उन्होंने ढेर सारे पटाखे खरीद लाए.मुझसे बोले देखना आज विश्व विजेता बनकर रहेगा.पर भारत की 125 रनों  से  करारी हार के बाद वो टूट से गए.
कुछ देर बाद वे संभलकर बोले-भारत जीतेगा और जरूर जीतेगा आज नहीं तो कल जातेगा.और उस दिन मैं ये पटाखे चलाऊँगा,कहकर उन्होंने वो पटाखे आलमारी में संभलकर रख दिए.2007 में भारत बंग्ला देश और श्रीलंका शिकस्त खाकर पहले दौर में ही बाहर हो गया.पर मेरे पति को यकीन था कि कभी न कभी वो दिन आएगा जब उनके आलमारी में रखे पटाखों की शोर से सारा मोहल्ला गूँज उठेगा.

और 8 साल बाद वो दिन आ ही गया.2अप्रैल  2011का दिन हमारे लिए हमेशा-हमेशा के लिए यादगार बन गया जब भारत और श्रीलंका विश्व कप फाइनल में आमने-सामने थे.जैसे ही भारतीय कप्तान धोनी ने छक्का मारकर भारत को विश्व विजेता का खिताब दिलाया,मेरे पति झूम उठे,वे आलमारी से सारे पटाखे निकाल लाए और देर शाम तक पटाखे चलाते रहे,खुशियाँ मनाते रहे,उनकी खुशियों में मैं भी शरीक हो गई.

जिंदगी में हार से निराश होने की जरूरत नहीं है.धैर्य रखिए-निरंतर प्रयास करते रखिए.देखिएगा एक दिन ईश्वर आपकी झोली खुशियों से भर देगें."

गाने की फरमाइश कौन सी थी मुझे याद नहीं शायद ये गाना रहा हो -

ज़िंदगी की यही रीत है.
हार के बाद ही जीत है.
थोड़े आँसू हैं थोड़ी हँसी.
आज गम है तो कल है खुशी.

गुरुवार, 28 मार्च 2019

//तुमपे किताब लिखूँ//

चेहरे को कँवल-आंखों को शराब लिखूँ.
सोचता हूँ तुमपे एक किताब लिखूँ.
दिल को काग़ज,ख़यालों को बना लूँ स्याही,
फिर चर्चा-ए-हुस्न तेरा,बेहिसाब लिखूँ.
चेहरे पे इतना नूर,तू इनसान है कि हूर?
मैं हक़ीकत कहूँ तुझे कि ख्वाब लिखूँ.
कोई गर पूछे कि दिखती कैसी है वो,
तो अपने जवाब में,मैं लाजवाब लिखूँ.
मुल्कों में हिंद,महलों में ताज,
और फूलों में तुझे मैं गुलाब लिखूँ.
बेघर के लिए घर-राही के लिए मंज़िल,
प्यासे के लिए तुझे मैं आब लिखूँ.
तेरी खातिर भूल जाऊँ ख़ुदा की बंदगी,
सुबह-शाम तुझे आदाब लिखूँ.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

बुधवार, 27 फ़रवरी 2019

||संसार में शान्ति हो||

पाकिस्तान की नादानी के चलते,
भारत सैन्य कार्यवाही को मजबूर हुआ.
ध्वस्त हुए दहशतगर्दों के ठिकाने,
उसका हौसला चकनाचूर हुआ.
निस्संदेह आज जो कुछ भी हुआ,
वो पाक के दुष्कर्मों का फल है.
पर इससे ये नहीं समझना चाहिए
के युद्ध ही इस समस्या का हल है.
पूरे विश्व में आतंकियों के विरुद्ध,
एक बहुत बड़ी क्रांति हो.
न युद्ध हो कहीं-न अश्रु बहें किसी के,
संसार में शाश्वत शान्ति हो.

✍ए.के. नेताम

||संतोष धन||

न आँकिए किसी को
उसके मलिन वस्त्र-अर्धनग्न तन से.
क्योंकि निर्धनता का,
तनिक भी संबंध नहीं है धन से.
अन्यथा एक संपन्न व्यक्ति,
संसार का सबसे सुखी प्राणी होता.
और विपन्न व्यक्ति,
जीवन भर अपने अभावों पर रोता.
संतोष ही जीवन का,
सर्वोत्तम धन है.
ये नहीं जिसके पास,
समझो वही निर्धन है.
(तस्वीर:किरन्दुल बाजार स्थल)
ए.के.नेताम

||ये कैसी जन्नत?||

उस भयानक धमाके के बाद,
मैं जहाँ पहुँचा,
वहाँ रौशनी नहीं थी.
बिल्कुल अंधेरा था.
"उन्होंने" जन्नत का
जो पता बताया था.
ये तो कोई और ही जगह थी,
जहाँ मैं आया था.
यहाँ न सोने-चाँदी की इमारतें थी,
और न ही सोने के पेड़ थे.
पानी,दूध,शहद और शराब की नदियाँ भी,
नहीं बह रही थीं यहाँ,
यहाँ खूबसूरत आँखों वाली कोई हूर भी नहीं थी.
न कस्तूरी की खुश्बू,
न कोई सुरीली तान सुनाई दे रही थी यहाँ.
यहाँ बह रही थी नदियाँ,
अपनों के ही खून की.
माँ बेहोश थीं अपने लाल के,
लाल लहू से सने जिस्म देखकर.
बाप का कलेजा भी छलनी था,
पर था वो मौन.
सोचता अब हमारा जहाँ में
रह गया आखिर कौन?
बहनें भी रो रही थीं,
अपने भाई से लिपटकर.
पत्नियों के माथे से,
मिटाए जा रहे थे सिंदूर,
तोड़ी जा रही थीं,
कलियों सी नाजुक हाथों की चूड़ियाँ.
ज़िंदगी और मौत से अन्जान,
उन मासूमों को ये पता भी न था,
के उनके सर से पिता का साया,
उठ गया था,हमेशा-हमेशा के लिए.
देखकर ऐसे गमगीन नज़ारे,
मेरी भी आँखें नम हैं.
सच इसके बदले मुझे,
जो भी सज़ा मिले कम है.
नासमझ था मैं,
अपना-पराया समझ में नहीं आया.
अब सोचूँ अपनों को दर्द और आँसू देके,
मैंने कौन सा जन्नत पाया?

✍ए.के. नेताम

||वही मनुष्य है||

विपत्तियाँ परीक्षा लेती हैं सबकी,
विकट परिस्थियों में भी जो धीर धरे.
वही मनुष्य है.

रंग रूप जैसा भी हो सब संतान हैं ईश्वर की.
सबसे समता का व्यवहार करे.
वही मनुष्य है.

क्यों न मृत्यु ही सामने आकर खड़ी हो जाए,
धर्म और सत्य के पथ से न टरे.
वही मनुष्य है.

स्वयं हँसता रहे सदा जो,
और सबके जीवन में प्रसन्नता के रंग भरे.
वही मनुष्य है.

मात-पिता की करे सेवा.
अपने जन्मभूमि के सम्मान के लिए जिये-मरे.
वही मनुष्य है.

परमपिता परमात्मा को जो देखे सबके भीतर.
हिंसा-छल-कपट से हमेशा रहे परे.
वही मनुष्य है.

अपनी पीड़ा पर अश्रु तो सभी बहाते हैं,
पर जो औरों की पीड़ा हरे.
वही मनुष्य है.

✍अशोक कुमार नेताम

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2019

||रखिया बड़ी||

बड़ी की बात करें तो दुकानों में प्राय: सोयाबीन की बड़ी ही उपलब्ध होती है.जो सस्ती और मजेदार तो होती है,लेकिन अपने घर पर,अपने हाथों से बनाई रखिया बड़ी के स्वाद के आगे हर स्वाद फीका है.बड़ियाँ तलने की खुशबू से ही मुँह में पानी आ जाता है.रखियाके अलावा अरबी,केऊ(स्थानीय कंद),पपीता,मूली,पत्ता गोभी,फूलगोभी आदि से बड़ी बनाई जाती है.इन सबसे बड़ी बनाने की विधि एक जैसी ही है.
आइए रखिया बड़ी बनाने के लिए हमें चाहिए एक रखिया,उड़द की दाल,हरा धनिया,मेथी,अदरक आदि.

क्या है रखिया?
रखिया कुम्हड़ा प्रजाति का पौधा है.रखिया के चारों ओर राख की परत होने के कारण इसे "रखिया कुम्हड़ा" कहते हैंं.यह बहुत.इसी से पेठा बनाया जाता है.

सबसे पहले रखिया को टुकड़ों में काट लें व बीज अलग कर लें और इसे कद्दूकस कर लें.अब कपड़े से छानकर इसका पानी निकाल लें.रात भर भिगाए गए उड़द दाल में से छिलके निथारकर अलग कर लें.अब दाल को सील बट्टे या मिक्सर से पीस लें.पिसी दाल और रखिया के पेस्ट को एक में मिलाकर फेंट ले.धनिया,मेथी,अदरक आदि भी डाल दें.अब इसे धूप में साफ कपड़े पर एक-दो अंगुल की दूरी गोल-गोल रखते जाएँ.तीन चार दिनों में बड़ियाँ अच्छी तरह सूख जाने पर किसी डिब्बे में भरकर रख लें.जब भी बड़ी खानी हो शौक से बना लीजिए.आप जब-जब रखिया बड़ी की सब्ज़ी खाएँगे तब-तब आपको अपनी मिट्टी से जुड़े होने का सुखद अहसास होगा.

||तेतर||

गीदम-जगदलपुर मार्ग से उत्तर दिशा की ओर आरापुर गाँव में दो आदिवासी युवतियाँ सिर पर डलिये में कुछ ले जा रहीं थीं.हल्बी(भाषा)में पूछने पर उन्होंने बताया-''तेतर.''
मैंने समझा नहीं,झाँककर देखा तो समझ गया.खाने को माँगने पर उन्होंने कहा कि ये  गंदे हो गए हैं.तेतर खाना हो तो कभी फुर्सत में आना.तेतर भले खाने को न मिला,पर उनकी तस्वीर लेने का मौका तो मुझे मिल ही गया.इस चित्र में ये औरतें तेतर वृक्ष की छाँव में ही खड़े हैं.तेतर यानी कि इमली.यह भोजन में खटाई के लिए प्रयुक्त होती है.व्यापारी प्राय: छिलकारहित व साबुत इमली क्रय करते हैं.ये हर वर्ष 20 से 25 रु.प्रति किलोग्राम की दर से बिकता है.बाजारों में लोग छिलकारहित इमली भी बेचते हैं.इस प्रकार यह लोगों की आय का अच्छा स्त्रोत है.हाँ,बेमौसम बारिश हो जाने पर  इसका भाव गिर जाता है.वैसे आप तो जानते ही हैं कि बस्तर एशिया की सबसे बड़ी इमली मंडी के रुप में  विख्यात है.

||वक्त बदल जाएगा||

खुशियों के रौशनी से,
ग़म का पहाड़ पिघल जाएगा.
हमेशा ऐसा नहीं रहेगा,
वक़्त एक दिन बदल जाएगा.

हरदम कहाँ,
अंधेरा होता है.
हर रात के बाद,
सवेरा होता है.
फैलेगा चारों ओर उजाला,
जब ज्ञान का दीया जल जाएगा.

बदलाव के लिए तू,
कमर कस ले आज.
कल तेरी मुट्ठी में होगा,
कामयाबी का ताज.
मत कर आराम,चलता चल,
सबसे आगे निकल जाएगा.

गिरने पे तेरे हँसेगा जग,
कहेगा तुम्हें जोकर.
बैठ न जाना ऐसे में,
तुम कहीं निराश होकर.
मंजिल तक पहुँचेगा वही,
जो गिरके संभल जाएगा.

समय के आगे,
हर आदमी झुकेगा.
ये न रुका है,
और न कभी रुकेगा.
अभी सुबह हुई,होगी दोपहर,
धीरे-धीरे दिन भी ढल जाएगा.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||मेरे मीत,मत हो भयभीत||

मेरे मीत.
हार से मत हो भयभीत.

आज जीवित हो,
भले कल तक थे मृत.
अपनी विफलताओं को,
कर दे विस्मृत.

भूल जा अपना दुखद अतीत.

रवि कब नहीं निकला?
कभी छोड़ा नदी ने बहना?
थमना तो मृत्यु है,
जीवन है सतत चलते रहना.

न सोच क्या वर्षा,घाम,शीत.

करनी है तुम्हें,
एक नए जगत की सृष्टि.
न भटकना,रखना सदैव
अपने लक्ष्य पर दृष्टि.

अवश्य होगी तुम्हारी जीत.

खुद को
कसौटियों पे कसते रहो.
दुख हो सुख हो,
हमेशा हँसते रहो.

गाओ नित खुशियों के गीत.

जगत मंच पर,
अपनी भूमिका निभाना है.
नाटक खत्म कि इक दिन,
सबको लौट जाना है.

यही दुनिया की रीत.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||पूनि होयदे||

अघन महीना,पूनि दिन.
उदलिसे पंडरी जोन सुँदरी.
कोठार ने बिकरलो आसे धान.
बैला मन के हाँकुन,
हुता बेलन किंजरालो मालू.
झड़ली धान तेबे
आपलो बायले-पीलामन संग,
फोपड़ुन-सकलुन,गुचालो पैरा मन के.
खिंडिक पैरा के जराउन,
मालू बनालो करया मस.
आउर धान दीबा चो एक भोंआर,
झीकलो डांड.
बलुन कि चोरुन नी नेओत,
डुमा मन हुनचो धान के.
आउर बनालो पैरा के अलटुन,
एक झन डोकरा.
हुन करुआय राखा अदाँय,
धान के रात भर कोठार ने.
पाछे मंगलदई भात आनली,
पूरे दिली हुन भात डोकरा के.
फेर जमाय झन संगे बसुन खादला,
भात-साग हुनि लगे.
काय मंजा साग,
कोचई संग झिर्रा टोपा.
पीला मन सवला,
ओड़ुन साल के.हुनि आगि धड़ी.
आमा रुक खाले बसलासत
मालू अरु मंगलदई.
आगि लुठा डिगडिगलिसे.
मंगलदई बलली-
"कमउन्से कितरो साल ले,
फेर छेरी चो लेंड़ी चारेच अंगुर.
आमचो जीवना ने बले केबेय पुनि होयदे?"

"पुनी होयदे रे होयदे.
आमि पीलामन के इसकूल पठाउनसे.
आपुन भुके रहुन हुन मनके खोआनसे.
दखसे एइ मन काली गियान पाउन,
आमचो जीवना ने उजर भरदे.
आउर अछा काम करुन,
आपलो नाव के अम्मर करदे."
मालू बिस्वास करुन बललो.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
(फोटो:-इन्टरनेट से)

||शान्ति||

औरों की तरह,
मैं भी चाहता था उसे.
बड़ी तीव्र इच्छा थी,
उसे पाने की.
कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा उसे.
मन्दिरों के चक्कर काटे.
देवों के आगे,
सिर झुकाया.
कि प्राप्त हो जाए,
वो मुझे एक बार.
फिर आनन्द से,
भर जाएगा मेरा संसार.
पर भटकना मेरा,
उसकी खोज में यत्र-तत्र,
नहीं हुआ सार्थक.
किन्तु जगत को विस्मृत कर,
नेत्र बन्द करके और साधकर-
चञ्चल मन अश्व को.
जैसे ही झाँका,मैंने अपने भीतर.
मुझे वो(शान्ति)मिल गई.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||चलते रहो||

कभी तो मिलेगी मंज़िल चलते रहो.
चाहे जो भी हो हासिल चलते रहो.

मतलबी जहाँ में न कर किसी पे यकीं,
ताक में खड़ा है कातिल चलते रहो.

हार से लेते रहो कोई न कोई सबक,
बन जाओगे काबिल चलते रहो.

मेहनत कर,और रख खुद पे भरोसा,
कुछ भी नहीं है मुश्किल चलते रहो.

तुम पे आज हँसती है तो हँसने दो,
कल सलाम करेगी महफिल चलते रहो.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||ग्रामीण जनजीवन का हिस्सा:दातुन||

रोज सुबह उठने के बाद मुँह धोया जाता है व दाँतों की सफाई की जाती है.इसके लिए ब्रश,टूथपेस्ट व जीभी का उपयोग किया जाता है.जो न केवल पर्यारण को नुकसान पहुचाते हैं,बल्कि टूथपेस्ट में मिलाए गए कैमिकल्स भी मसूड़ों के लिए तकलीफदेह साबित होते हैं.पर गाँवों में आज भी दाँतों की सफाई के लिए दातुन ही उपयोग में लाया जाता है.

गाँवों में पेड़-पौधों की अधिकता के कारण दातुन बड़ी आसानी के उपलब्ध हो जाता है.पेड़ की टहनियों से प्राप्त ये दातौन ऊंगलियों के बराबर पतले व 20-30 से.मी. तक लम्बे होते हैं.दातुन करने के लिए अलग से टूथपेस्ट की जरूरत नहीं होती.केवल दाँतों से कूची बनाकर दाँत साफ कर लिए जाते हैं.कुछ लोग दातुन के साथ नमक व कोयले का उपयोग दंत मंजन के रूप में करते हैं.दातुन करने के बाद इन्हें बीच से फाड़कर दो भाग कर लिया जाता है तथा उन्हें बीच से यू आकार में मोड़कर व जीभ साफ कर फेंक दिया जाता है. प्राय: साल,करंज,नीम,कहुआ(अर्जुन),महुआ,साजा,बेर,इमली,छींद,बबूल आदि के दातौन उपयोग में लाए जाते हैं.कड़वे व कसैला स्वाद वाला दातुन दाँतों के लिए बहुत फायदेमंद माना जाता है.दातुन का रस लार के साथ शरीर के भीतर जाकर हमारी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है.दातुन सूख न जाएँ इसलिए उन्हें पानी में डुबाकर रखा जाता है.गाँव की औरतें जब भी जंगल जाती हैं तब लकड़ी,पान और दातुन अपने साथ जरूर लाती हैं.कई औरतें शहर में दातुन विक्रय कर आय भी अर्जित करती हैं.
इस प्रकार दातुन ग्रामीण जनजीवन का एक अनिवार्य हिस्सा है.यह एकदम सस्ता और पर्यावरणहितैषी है.
गाँव में असुविधाओं के बीच रहना कइयों के लिए सजा है.पर वृक्षों की शीतल छाँव में जीने का अपना एक  अलग ही मजा है.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||पूनी दिन||

कारतिक मइना,
काय मंजा पूनी दिन.
उदलिसे पंडरी जोन उपरे.
अरु घसरायसे मंजपुर ने,
चांदी असन छकछका उजुर.
उजुर ने सब दखा दयेसे.
अमली-आमा,सींद-सलफी,
बाँवोस-सिवना,महू-सरगी.
जमाय ठीया आसत,ओग्गाय.
होलासत बे हरिक आज,
रसया उजुर ने नहाउन.
नंदी-तरई चो पानी ने बले,
लहर संग नाचेसे जोन सुँदरी.
सीतकार चो बेरा.
लोग बसलासत कोठार ने,
मंजी आइग के धरउन.
उचलासत जोंधरा,
गोटयासत सुक-दुक चो गोट के.
सुरता करसत आगे बेरा चो.
पूरे चो गोटुल चो.
पूरे चो सियान मन चो कीरति चो.
पूरे चो धरम अरु सतजुग चो.
बलसत बेर-जोन तो केबय नी पलटला.
मान्तर मनुक आज कितरो पलटलो.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||धान मिसाई||

छत्तीसगढ़ में धान,मक्का,ज्वार,कोदो-कुटकी,मंडिया,रामतिल,तिल,उड़द,मूँग,कुलथी
जैसे अनाज,दलहन व तिलहन फसलें उगाई जातीं हैं.
धान प्रमुख फसल होने के कारण यह धान का कटोरा कहलाता है.आजकल धान की कटाई के बाद धान मिसाई का काम जोरों पर है. धान मिसाई के कई तरीके यहाँ प्रचलित हैं.

आइए कुछ तरीकों के बारे में जानें.

1.आदमी के पैरों से:-पकने की अवधि के आधार पर धान दो तरह के होते हैं.लम्बी अवधि में तैयार होने वाला धान माई व जल्दी पकने वाला धान तुरिया कहलाता है.तुरिया धान मैदानी इलाकों में व बहुत कम मात्रा में बोया जाता है.बस्तर में इसकी मिसाई पैरों से ही कर ली जाती है.

2.दौरी फाँदना:-कोठार के बीचों बीच लकड़ी का एक खंभा होता है.खंभे से रस्सी द्वारा तीन-चार बैलों को जोड़कर धान के उपर चारों ओर घुमाया जाता है. धान के अलग हो जाने तक यह प्रक्रिया चलती रहती है.

3.बेलन द्वारा:-कोठार में धान की बालियों को गोलाई में बिखेर दिया जाता है.फिर बेलन की सहायता से धान की मिजाई की जाती है.बैलों को पीछे से या बेलन के ऊपर बैठकर हाँका जाता है.धान अलग हो जाने तक फसल को दो-तीन उलट-पलटकर उस पर बेलन चलाया जाता है.

4.ट्रैक्टर द्वारा़:-ट्रैक्टर से की जाने वाली मिसाई भी बिल्कुल बेलन की मिसाई के समान है क्योंकि इसमें भी वही क्रम अपनाना होता है.अंतर बस इतना है कि इससे कम समय में उसकी अपेक्षा अधिक काम हो जाता है.

5.थ्रैशर से:-मशीनों ने आदमी के जीवन को एकदम अासान बना दिया है.अब धान की मिसाई के लिए लोग थ्रैशर मशीन का ही उपयोग करते हैं.यह सबसे कम समय लेता है.इसमें चावलयुक्त व चावलरहित धान स्वत: अलग हो जाते हैं.जबकि अन्य तरीकों में धान को सूप या पंखे की सहायता से अलग करने की विधि अपनानी पड़ती है.

आज वैज्ञानिक तरीकों ने मनुष्य की जीवन शैली को बदल दिया है.आज आदमी के पास समय ही समय है.पर ये उसी पर निर्भर है कि वह उस समय का सदुपयोग करे या दुरुपयोग.

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"

||मय बोट दएँदे||

मय बलते रहें कि
एसु बोट नी दँयें.
मान्तर अदाँय,
मँय बोट देउ चे आँय.
बोट दिन लाइन ने ठाड़े रहुन,
अरु धरुन बोटर कारड के.
मय दखेंदे बाट ,
मचो बोट देतो पारी अमरतो चो.

हुसने,
जसन बाट दखलें मैं तुचो,
मचो सकत भर.

बोट अमरलो ने जसन,
नेतामन छोलसत बड़े-बड़े.
असन करेंदे,उसन करेंदे.
जे माँगासे,हुन दँयदें.
आउर जीतने ने हुनिमन,
मुरुम सड़क ने धुड़का उड़ाते,
टींट-टींट करते जासत,
झाकुन दखत बले नहीं.
पूछत नहीं
कि कोन जिवला-कोन मरला
हुनि नेता असन तुय बले,
मके दिलीस धोका.
दखाउन रंग-रंग चो सपना.

मके छांडुन एकलाय,
होउन गेलिस आउर चो.
तुय काय जानिस आज कितरो,
चिपा होयसे मके दार-चाउर चो.
हाय तुके मय नी चिनलें.
तुचो असन लबरा के पतयालें.

मचो एक झन चो,
बोट नी दीलो ने,
राजा बनुन जायदे,
तुचो असन चो कोनी ठग.
आउर पाँच साल चुहकेदे,
गरीब जनता चो रकत के,
पानी चो जड़ु असन.

हुनि ने बारा तारिक ने,
एक दिन काजे,
मचो जमाय काम के छाँडुन,
मय बोट देउक जायँदें.
बोटिंग ठान ने जाउन, ,
मसीन चो बटन के चेपाँयदे.
आउर अंडकी चो सिहई के,
सबके हरिक होउन मय दखाँयदे.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

रविवार, 10 फ़रवरी 2019

||वही मनुष्य है||

विपत्तियाँ परीक्षा लेती हैं सबकी,
विकट परिस्थियों में भी जो धीर धरे.
वही मनुष्य है.

रंग रूप जैसा भी हो सब संतान हैं ईश्वर की.
सबसे समता का व्यवहार करे.
वही मनुष्य है.

क्यों न मृत्यु ही सामने आकर खड़ी हो जाए,
धर्म और सत्य के पथ से न टरे.
वही मनुष्य है.

स्वयं हँसता रहे सदा जो,
और सबके जीवन में प्रसन्नता के रंग भरे.
वही मनुष्य है.

मात-पिता की करे सेवा.
अपने जन्मभूमि के सम्मान के लिए जिये-मरे.
वही मनुष्य है.

परमपिता परमात्मा को जो देखे सबके भीतर.
हिंसा-छल-कपट से हमेशा रहे परे.
वही मनुष्य है.

अपनी पीड़ा पर अश्रु तो सभी बहाते हैं,
पर जो औरों की पीड़ा हरे.
वही मनुष्य है.

✍अशोक कुमार नेताम

मंगलवार, 1 जनवरी 2019

||मैं दीया हूँ||

मैं दीया हूँ.
तुम्हारी तरह सजीव तो नहीं
पर औरों के लिए मैं जलता हूँ,
जीवन के अंतिम क्षण तक.

मैं जलता हूँ..

ताकि मेरे आलोक में
बढ़ सके कोई दिक्भ्रमित पथिक,
अपने लक्ष्य की ओर.

ताकि मेरे आगे करबद्ध हो,
कोई माँ करे ईश्नर से प्रार्थना
अपने पुत्र के लम्बी उम्र की .

ताकि मेरी रौशनी में पढ़ सके,
उस गाँव का गरीब बच्चा,
जहाँ नहीं पहुँच सकी है
बिजली अाज तक.

तुमने खड़े कर रखे हैं,
जहाँ में कई मजहबी दीवार.
पर मेरा कोई मजहब नहीं,
हिन्दू हो या मुस्लिम,
सिक्ख हो या इसाई.
मैं घर-घर बाँटता हूँ रौशनी.
और लाता हूँ सबके जीवन में खुशियाँ.

हाँ जलते हुए पीड़ा होती है मुझे,
पर देखके औरों के चेहरे पे रौनक,
मैं भूल जाता हूँ अपने सारे दर्द.

दुनिया हँसती है हँसे,
अपने रास्ते चलता रहूँगा.
औरों से जलना नहीं आता,
बस औरों के लिए जलता रहूँगा.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

चाटी_भाजी

 बरसात के पानी से नमी पाकर धरती खिल गई है.कई हरी-भरी वनस्पतियों के साथ ये घास भी खेतों में फैली  हुई लहलहा रही है.चाटी (चींटी) क...