"कितने रुपये हुए?"
ऑटो ये उतरते ही मैंने पूछा.
"पैसे नहीं लूँगा भैया."
"क्यों?"
"लगभग एक महीने पहले जब आपकी गाड़ी छूट गई थी,तब ऑटो से पीछा कर मैंने आपको बस तक पहुँचाया था.चिल्लर न आपके पास थी और न मेरे पास.इसलिए आपके बीस रुपए मेरे पास ही बाकी रह गए थे."
"ओह आपने याद रखा?"
"हाँ भैया.क्योंकि वो आपके पसीने की कमाई का हिस्सा था.और दूसरे की कमाई कहाँ फलती है."
"अपना नाम बताइए.मैं आपकी ये कहानी दूसरों तक जरूर पहुँचाऊँगा."
पर उसने नाम बताने से साफ मना कर दिया.
"अगर मैं दोबारा न मिला होता तो?"मैंने आखरी सवाल किया.
"तो इन रुपयों से मैं कलम या चॉकलेट लेकर बच्चों में बाँट देता."
तब तक उसे दूसरी सवारियाँ मिल गई,जिन्हें बिठाकर वो मुस्कुराता हुआ आँखों से ओझल हो गया.
अशोक कुमार नेताम