गुरुवार, 18 जनवरी 2018

||हाइकु||

रुकना नहीं.
सामने पर्वत हो.
झुकना नहीं.

बाहर नहीं.
सुख है अंतर में,
खोजो मिलेगा.

पुस्तक मित्र.
सब छूट जाएँगे.
ये होंगे साथ.

हँसो-हँसाओ.
हँसना औषधि है.
सबको बाँटो.

हाथ की रेखा.
नहीं बनाती भाग्य.
तू कर्म कर.

प्रेम है रब.
कर उसकी पूजा,
मिलेगा सब.

गर्व न कर.
अपने तन पर.
ये तो मिट्टी है.

अशोक नेताम "बस्तरिया"

सोमवार, 15 जनवरी 2018

||कुरुभूमि से-2||

कृष्ण बोले-हे अर्जुन तुम,
अकारण ही रोते हो.
क्या होगा परिणाम सोचकर,
तुम व्यर्थ चिंतित होते हो.

अभी तो युद्ध के लिए,
हुए थे तत्पर.
अब हुआ क्या,
तुम्हें हे!धनुर्धर.

सत्य का है भान तुम्हें,
तुम हो धर्म धुरंधर.
फिर अपने-पराये का मोह,
कैसे जागा तुम्हारे अंदर.

ये परिजन-कुरुभूमि और,
ये तन तुम्हें बहुत प्यारा है.
क्या ज्ञात नहीं कि जग में,
कुछ भी नहीं तुम्हारा है.

धर्मरक्षा हेतु शस्त्र उठाना,
बिलकुल भी अनुचित नहीं.
पापियों-अपराधियों को,
दण्ड देना क्या उचित नहीं?

कहा अर्जुन ने-पितामह,द्रोण,कर्ण,अश्वत्थामा,
तो बंधे हैं वचनों से,वे बिल्कुल निर्दोष हैं.
कूद पड़े हैं इस युद्ध में और भी कई,
उन असंख्य योद्धाओं का आखिर क्या दोष है?

हे धीर बुरे कर्म करके मानव,
भले थोड़ी देर मुस्कराता है,
पर हर कोई एक दिन अपनी
करनी का फल अवश्य पाता है.

द्यूतसभा में जब दुशासन ने,
द्रौपदी का आँचल छुआ था.
तब एक नारी का ही नहीं बल्कि,
पूरी नारी जाति का अपमान हुआ था.

पर सभासद सभी जड़वत खड़े थे,
कहा नहीं किसी ने एक भी शब्द.
बिलखती-चीखती रही एक अबला,
पर सभासद थे बिलकुल नि:शब्द.

और सुनो हे!पार्थ अर्धर्मी,
धर्म को जितनी हानि पहुचाता है.
उससे अधिक अधर्मी तो वो हैै जो,
धर्मज्ञानी होकर भी चुपचाप रह जाता है.

धर्मी जब स्वयं को,
असहाय पाते है.
और दुराचारी
अपना सिर उठाते हैं.

जब पुत्र ही,
माता-पिता से वाद करे.
जब मनुष्य भोगी बन जाए,
जुआ खेले,बकवाद करे.

जब खेलने की एक वस्तुमात्र,
बन जाए नारी.
जब  पड़ने लगें दुर्जन,
सज्जनों पर भारी.

तब-तब प्रकृति,
स्वयं को संतुलित करती है.
नवनिर्माण हेतु सृष्टि का,
विनाश करती है.

लोकहितार्थ किया गया,
अधर्म भी एक प्रकार से धर्म है.
क्षत्रिय हो तुम,
युद्ध करना तुम्हारा कर्म है.

पर माधव!पुनर्निर्माण के नाम पर,
मैं पाप का भागी क्यूँ बनूँ?
धर्म की रक्षा के लिए मैं,
अधर्म का पथ क्यूँ चुनूँ?

यही तो मानव का भ्रम है कि,
सब कुछ करता है वही.
पर सत्य तो यह है,कि वह
अकेला,मेरे बिना कुछ भी नहीं.

हे यशोदानन्दन,
गोवर्धन गिरिधारी,हे सुरभूप.
मैं हूँ दर्शन का इच्छुक,
दिखाएँ अपना वास्तविक रूप.

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को,
दिव्य नेत्र दिया.
उन्होंने हरि के,
विराट रूप के दर्शन किया.

पाताल से आकाश को छूती,
मनोरम-श्यामल देह विशाल.
मानो आकार लेकर,
साक्षात् सामने खड़ा हो काल.

जब-जब जग में धर्म,
करता है चीत्कार.
तब-तब मानवता के रक्षार्थ,
लेता हूँ मैं अवतार.

जड़ चेतन समस्त जगत के,
मैंने ही बनाए हैं.
ग्रह-तारे,शशि-सूरज ये,
मैंने ही सिरजाए हैं.

भूमि-आकाश,जल-अग्नि,
जन्म-मृत्यु,हर्ष-विषाद मैं ही हूँ.
आदि-अन्त,जय-पराजय,
दिवस-रात्रि,निशब्द-निनाद मैं ही हूँ.

मोह-माया से घिरकर,
न बनो पार्थ मनोरोगी.
करो कर्म,फल की इच्छा त्यागो,
बनो तुम कर्मयोगी.

न होवो अत्यधिक प्रसन्न,
किसी तरह के सुख में.
और न कभी,
दुख मनाओ दुख में.

धर्म हो चुकी कलुषित अब,
अर्जुन इसे शुद्ध करो.
वीर हो तुम पांडुपुत्र,
शस्त्र उठाओ और युद्ध करो.

अब तक वह था मानो,
कोई नन्हा बालक अबोध.
सुनकर प्रभु की अमृत वाणी,
हुआ कुन्तीसुत को सत्य का बोध.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

शनिवार, 13 जनवरी 2018

||राम नाम नित बोल रे||

मुख से राम नाम नित बोल रे.
बाहर भटके हरि न मिलेंगे,
अंतर के पट खोल रे.
कटु वचन हैं तीखे तीर,
वचन सदा मीठे ही बोल रे.
पाप में न लिप्त रह,
समझ समय का मोल रे.
कभी किसी के जीवन में,
तू पीड़ा विष मत घोल रे.
छुपा ले लाख कर्म अपने,
खुल जाएगी तेरी हर पोल रे.
औरों का न उपहास कर.
कभी अपना हृदय टटोल रे.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

रविवार, 7 जनवरी 2018

||प्रियतम को पत्नी का पत्र||

हे प्रियतम!आपके युगलचरणकमलों का सादर वन्दन!

मैं यहाँ सन्तानों के साथ ईश्वरकृपा से सकुशल हूँ,किन्तु हे प्राणनाथ!जब से आजीविका हेतु आपने हमारा त्याग किया है,तब से हमारी दशा अत्यंन्त दयनीय हो गई है.इस शीतकाल में रवि की मधुर रश्मियाँ भी अग्निबाण सी पीड़ादायक प्रतीत होती हैं.आपके स्मरण में दिवस और रात्रि का आभास ही नहीं होता.वाटिका में विकसित कुसुम भी मूर्छित और प्राणहीन से जान पड़ते हैं.शर्करा का स्वाद नीम सा कटु प्रतीत होता है,कोयल की मधुर ध्वनि भी कर्कश जान पड़ती है.
हमारा पुत्र जो वानर की भाँति चंचल है,नित्य पाठशाला तो जाता है,पर वहाँ से वापस आते ही चलित भाषयंत्र से खेलने में लग जाता है या दूरदर्शन पर रोल नं. 21, मोटू-पतलू,डोरेमोन,बेन10 या छोटा भीम के दर्शन करने में लिप्त हो जाता है.दूरदर्शनयंत्र अवरुद्ध कर देने पर वह भूमि पर हस्त-पाद पटक-पटककर कई प्रकार से रुदन प्रदर्शित करता है.विभिन्न प्रकार के यत्न करने पर वह नियंत्रित हो पाता है,तत्पश्चात् ही मैं उसके गृह कार्यों को संपादित करा पाती हूँ.दूसरी सन्तान जो घुटनों की सहायता से गमन करती है.वह भी बड़ी चंचला है.वह गृह के बाहर-भीतर यत्र-तत्र-सर्वत्र विचरण करती है.शीत ऋतु में निर्भय होकर शीतल जल से खेला करती है.और यदा-कदा तो मृत्तिका भी खा लेती है.इन दोनों संतानों की उपद्रवों के कारण मैं अत्यंत चिंतित रहती हूँ.
आपको ये सब पढ़ते हुए अत्यन्त आश्चर्य होगा कि इस कलयुग में जब संपूर्ण विश्व यंत्रों और संचार साधनों का उपयोग कर रहा है,मैं पत्र व्यवहार किसलिए कर रही हूँ.परंतु हे प्राणेश्वर!हमारे ग्राम में अंतर्जाल की विकट समस्या के कारण मैं ऐसा करने को विवश हूँ.
प्रियतम चूँकि नववर्षागमन के पश्चात् भी हम जीर्ण-शीर्ण वस्त्राभूषणों में ही निर्वहन कर रहे हैं,अत: औरों को सुसज्जित और सुन्दर देखकर हमारे हृदय में ईर्ष्या की भयंकर अग्नि प्रज्वलित होने लगती है.
प्रियवर मुझे कुछ वस्त्र,आभूषण शाक व पुत्र हेतु लघु द्विचक्रवाहन क्रय करने हेतु १०००० पत्र मुद्राओं की बड़ी आवश्यकता है.
उक्त राशि धन आदेश द्वारा प्रेषित करें या सीधे मेरे ग्रामीण कोष के खाते में स्थान्तरित कर दें.मैं आपको आश्वस्त करती हूँ कि आगामी तीन मास तक मैं आपके समक्ष किसी भी प्रकार की कोई माँग नहीं रखूँगी.
पुन:आपके चरणस्पर्श!

आपकी सहचरी
     सुशीला

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

||मनुज हैं,मनुज बनें हम||

मानव रूप में यहाँ,
दानवों की भरमार.
क्षणिकावेश में आके जो,
करें प्राणघातक प्रहार.
धैर्य-सहनशक्ति न रही,
बात-बात पे करते हैं रार.
सम्बंधों के तार अब,
हो रहे हैं तार -तार.
वृद्ध माँ-बाप लगते आज,
सन्तानों को भार.
धर्म-दान,शिक्षा-सेवा,
बन गया व्यापार.
पैसेवाले खरीद लेते हैं अपनी जीत,
योग्य बेचारों की होती है हार.
सत्यमार्ग पर चले कोई,
होंगे यही कोई दो-चार.
मनुज हैं,मनुज बनें हम,
हो यही जीवन का सार.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

गुरुवार, 4 जनवरी 2018

||मान-मया धन||

जसन बरतया मन,
दुल्ही घर लगे अमरला.
दखुन दूलहा के,
पीलामन ठाने थरथरला.
मस असन करया डुँडा देंह,
पिंदलोसे बागछाला.
भुत बयहा कान ने बिछु,
टोडरा ने सापमाला.
गोटयासेत डौकीमन ए रे हुन,
जे धरलोसे उटपटांग भेस.
काय हुनि आय,
मैना चो दमाँद बीता महेस?
हाय धनी पारबती,
काचो गोट के धरली.
मसान संग बिया होउक,
बन ने तप करली.
रथ-हाती-घोड़ा नइ,
बयला ने बसलोसे.
पंडरी राखड़ी के आपलो,
देंह भर घसलोसे.
एक झन बलली-नी गावा रे,
केबय आउर चो चाड़ी.
नी होए मनुक बड़े.
सादाय रलोने पैसा-गाड़ी.
पारबती संकर के मया करली,
पड़ुन-समझुन हुनचो मन के.
मान-मया धन तो रहो जीवोत भर,
काय करुआस आउर धन के.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||संगे मंडई जावाँ||

सुखमती सुन संगे सायकिल ने,
सातगाँव मंडई जावाँ.
गोठ गोठयावाँ-गीद गाँवा,
आलू भजया खावाँ.
फूल-फर,फोटो-फुगा,
फीता-फुंदरी  धरवाँ.
मुचकी मारवाँ मनमना,
मनभर मंजा करवाँ.
NO नी कर,नोनी निकर घर ले,
पयसा जब ने धरलेंसे.
खाजा खोवाउक-खिलवाँ पिंदाउक,
मैं बनी भूति करलेंसे.
बाप चो बेटा मैं बस्तरिया,
बिस्वास मचो तुय कर.
लिपिसटिक लगाव-लाल लुगा पींद,
लाल झोरा के धर.
पताय पतयाइस नहीं जाले,
बलेंसे सत्ते पासे पसतासे.
हींडते-हींडते,हाय-हाय करते,
एकलोय गागते मंडइ जासे.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||तू बदल गया||

शायद इसलिए कि,
बहुत आगे निकल गया है
बेटा सच में तू,
बहुत बदल गया है.

देश बसाया तुमने,
बहुत दूर अपनों से.
सच को छोड़के,
नेह लगा बैठे हो सपनों से.

क्या अपना गाँव,
अब तुझे नहीं भाता?
अब कभी भूलकर भी,
तू इधर नहीं आता.

क्या रास नहीं आता तुम्हें,
पक्षियों का गीत,वो स्वर्णिम प्रभात.
क्या मन नहीं करता देखने का,
वो चाँद-तारोंभरी सुन्दर रात?

झरनों की मधुर ध्वनि से,
तुम्हारा मन उचट गया?
गाँव का त्याग कर तू,
शहर से लिपट गया?

जब तेरे पैरों में न चप्पल,
और न ही जूते थे.
तब तुम रोज,
अपनी माँ के पैर छूते थे.

सब कुछ खरीद लेगा अब,
तेरे पास बहुत पैसा हो गया.
मुझे तो यकीन ही नहीं होता,
कि तू अब ऐसा हो गया.

खैर धन पाते ही मानव,
बदल जाता है,तू भी बदल गया.
न बदलेगा तू विश्वास था मन में,
अच्छा हुआ कि वो पिघल गया.

पर याद रख ये विशाल वृक्ष,
मात्र अपने सामर्थ्य पर नहीं खड़े हैं.
जमीन में बड़ी मजबूती से,
गहराई तक जमी उनकी जड़ें हैं.

उसी तरह तू यदि पेड़ है,
तो याद रख गाँव तुम्हारी जड़ है.
अपनी माटी-अपने संस्कार बिन,
कुछ भी नहीं तू,पत्थर की भाँति जड़ है.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||पूरे चो नीती-नियम सब हाजते जायसे||

पटकी अकराउन ,
समया पराते परायसे.
पूरे चो नीती-नियम सब,
अदाँय हाजते जायसे.

एबे चो पीलामन,
खुबे उड़गाड़ी,
नी खेलोत हुनमन,
लकड़़ी अउर माटी चो गाड़ी.
जनम धरला कि,
मोटोर साइकिल-मोबइल के सिखला.
सियान मन के मान नी देवोत,
लाज-सरम के बिकला.

माय-बाप कमासोत,
बेटा बसुन खायसे.
पूरे चो नीती-नियम सब,
अदाँय हाजते जायसे.

आमि भूँय चो मालिक मांतर,
कसन होली दखा आज.
बागमन के डरउन इथा,
कोलयामन करसोत राज.
दिन-राति पसना फुटउ,
कमया आसे दुख ने.
कुर्सी ने बसु सेठ-सौकार,
काय मंजा आसे सुख ने.

मालिक बनलो नवकर,
पर घरे जाउन कमायसे.
पूरे चो नीती-नियम सब,
अदाँय हाजते जायसे.

गप्पा-टुकना,ओडी-डुटी,
चाप,मसनी छतोड़ी हाजते हाजेसे.
रिरिलियो गीद नइ,मन्दर नाचा नइ,
घर-घर ने अदाँय डी जे बाजेसे.
रुक राई सरेसे,
नंदी तरई आटसत.
मिलुन रहूँ पूरे,लोग अदाँय,
भूँय बाड़ी के बाटसत.

काली चो जनमलो पीला एबे,
सियान मन के डरायसे.
पूरे चो नीती-नियम सब,
अदाँय हाजते जायसे.

कोन किले डोबली-दोना,
गाए कोन लेजा-ददरिया.
गाँव चो लुगा-पाटा छाँडला,
होला सबाय सहरिया.

डारा पाना के खाउन,
सौ बरख जीवला दादी-आजी.
एबे खासोत चिकन-चाकन,
नी मनयाओत चोरोटा भाजी.

साग-भाजी खातो बीता,
खुबे लाम उम्मर पाएसे.
पूरे चो नीती नियम सब,
अदाँय हाजते जायसे.

आगे जुग ने तो अप्पड़ रलुँ,
अदाँय तो पडहूँ-लिखूँ.
संवसार कितरो आगे बड़ली,
दखुन-दखुन बले काईं तो सिखूँ.
चिलम सुरती,
मन्द-सल्फी-लाँदा.
एमन आत जीवना के,
नसातो बीती फाँदा.

जे गियान चो बाट धरेसे,
हुनी खुबे नाव कमायसे.
पूरे चो नीती-नियम सब,
अदाँय हाजते जायसे.

पटकी अकराउन ,
समया पराते परायसे.
पूरे चो नीती-नियम सब,
अदाँय हाजते जायसे.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||कर्म ऐसे महान कर||

प्राप्ति नहीं,
ये पथ है.
इति नहीं,
ये अथ है.

तुम्हें मुझसे,
ये गिला था.
कि ऊपर से तुझे,
कुछ भी नहीं मिला था.

अब देख सब कुछ,
सौंप दिया तेरे हाथों में.
कुछ कर,न उलझा जग को,
अपनी मीठी बातों में.

न भिक्षा माँग किसी से दया की,
अपने हाथ जोड़कर.
है सामर्थ्य तुझमें कि रख दे,
हवा की दिशाएँ मोड़कर.

अनुभव-ज्ञान-धन अर्जन तेरा,
है सार्थक यदि वो परहित के काम आए.
अन्यथा धिक्कार उसे,
उचित है कि वो गंदे नाले में बह जाए.

और भी हैं संसार में,
अपने बारे में ही न सोच.
अनुभव कर,परपीड़ा में पीड़ा,
रोते हुए के आँसू पोंछ.

अब तक तो तुम,
गर्व करते रहे हो माटी पर.
वो गर्व करे इक दिन तुमपे,
अब तू कर्म ऐसे महान कर.

(फोटो:-इन्टरनेट से)

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||बस्तर का दोना-पतरी||

बस्तर जहाँ अकूत प्राकृतिक सम्पदाओं और अद्भुत सौंदर्य का धनी है,वहीं आज भी यहाँ के मूलनिवासी प्रकृतिप्रेमी होने के कारण दोने-पत्तल में भोजन करने में ही आनन्द पाते हैं.आज भी यहाँ विवाह,जन्मोत्सव-छठी,मृतक कर्म व अन्य सामाजिक कार्यक्रमों के अवसर पर दोने-पत्तल ही भोजन हेतु प्रयोग में लाए जाते हैं.

बस्तर साल वनों का द्वीप है इसलिए प्राय: इसी के पत्तों का उपयोग दोने-पत्तल बनाने में किया जाता है,इसके अतिरिक्त सिंयाड़ी,बरगद,सागौन,महुआ के पत्तों से भी पत्तल बनाए जाते हैं.औरतें इनका निर्माण करती हैं.

डोबला/डोबली:-बस्तर में 4 से 6 पत्तों को सिकन(बाँस की पतली सींक) से जोड़कर तथा उनके किनारों को गोल मोड़कर पत्तल बनाया जाता है.बड़े और छोटे आकार वाले पात्र क्रमश: डोबला और डोबली के नाम से जाने जाते हैं.इसमें चावल परोसा जाता है.

दोना/दोनी:-पात्र के आकार के आधार पर इसे दोना या दोनी कहा जाता है.ये 2 से 3पत्तों से बनाया जाता है.इसमें प्राय:सब्ज़ी,दाल परोसा जाता है.पेय पदार्थ पीने के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है.पत्ते के दोनों सिरों को मोड़कर भी एक पत्ते की दोनी बनाई जाती है.जिसमें प्राय:लाई-गुड़(माहला सगाई आदि के रस्म में)तिल-कोंडा(शिशु के जन्म के बाद)आदि बाँटे जाता है.

चिपड़ी:-बस्तर में चिपड़ी भी बहुत प्रसिद्ध है.इसमें किसी तरह के जोड़ -तोड़ की जरूरत नहीं होती बल्कि एक पत्ते के एक सिरे के मोड़कर दोनों सिरों को दोनों हाथों से पकड़ लिया जाता है.पेज,सल्फी,शराब आदि चिपड़ी से पिए जाते हैं.

आज हम भले ही विभिन्न अवसरों पर प्लॉस्टिक के पात्रों में भोजन करने में गर्व-प्रसन्नता का अनुभव करते हैं लेकिन प्रकृति से सामंजस्य बनाकर ही अपने पर्यावरण को प्रदूषणमुक्त और सुरक्षित रखा जा सकता है,ये बात शायद ये भोले-भाले और सीधे-सरल वनवासी हमसे बेहतर तरीके से जानते हैं.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||फिर से बस्तर||

अब तक मेरे,
सैकड़ों जन्म हुए.
मैंने अनेक,
शरीर धारण किए.

जन्म-मृत्यु का ये चक्र,
जब से चल रहा है.
तब से हृदय में,
मातृभूमि के लिए प्रेम पल रहा है.

इसलिए तो बार-बार,
मैं जन्म लेता हूँ बस्तर की भूमि पर.
बल्लियोें-लकड़ियों-खपरैल से,
बनाता हूँ मिट्टी का एक नन्हा सा घर.

इन वृक्षों-पर्वतों-नदियों झरनों को देख,
तन रोमांचित हो जाता है .
सघन वन में प्रतिध्वनित होते कलरव सुन,
मन कहीं खो जाता है.

छिंद,सल्फी-ताड़ पेडो़ं पर चढ़ मैं,
उनके मीठे रस से अपनी हाँडियाँ भरता हूँ.
वनोपज संग्रह कर मैं अपना,
जीवन निर्वहन करता हूँ.

घर की बाड़ी में सेमी,करेला-
लौकी-कुमडा जिर्रा भाजी उपजाता हूँ.
और उसे मैं,
साप्ताहिक बाजारों में बेच आता हूँ.

आज भी दोने में खाते हम,
हैं घरों में आज भी माटी के बर्तन.
समय बदला-सब कुछ बदले,
पर न छू सका हमें तनिक भी परिवर्तन.

हर बार जन्म से पूर्व पूछता है,
मुझसे ईश्वर,बता अब किधर?
होता है हर बार,जवाब मेरा,
और कहीं नहीं,फिर से बस्तर.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

चाटी_भाजी

 बरसात के पानी से नमी पाकर धरती खिल गई है.कई हरी-भरी वनस्पतियों के साथ ये घास भी खेतों में फैली  हुई लहलहा रही है.चाटी (चींटी) क...