बुधवार, 12 जुलाई 2017

||पाँच बातें||

शिक्षित और युवा व्यक्ति के पास कोई काम का न होना सचमुच दुखद है. हरपाल सिंह के साथ भी कुछ ऐसा ही था.गांव में थोड़ी बहुत जमीन थी पर उससे परिवार का गुजारा होना बड़ा कठिन था.वह अपनी बूढ़ी माँ,पत्नी-बच्चों के लिए आवश्यक वस्तुएँ नहीं जुटा पाता था.इसलिए आज उसने विचार कर लिया था कि वह किसी राजा के पास जाकर कोई चाकरी ही कर लेगा.

उसे अपने परिवार से बहुत प्यार था. पर उनकी बेहतरी के लिए अपने मन को कठोर करके आज वह किसी को बिना बताए चांदनी रात में चुपचाप घर से निकल पड़ा.गांव में सन्नाटा पसरा हुआ था.कुछ कुत्तों के भौंकने का स्वर सुनाई दे रहा था.
रात के अंधकार में तारे टिमटिमा रहे थे.

गांव से थोड़ी ही दूर एक बूढ़ा व्यक्ति अपनी झोपड़ी में रहता था.लोग उसे पागल कहा करते थे.पर वह जब भी कोई बात कहता,ज्ञान की बात ही कहता.हरपाल ने सोचा कि क्यों न उस बूढ़े बाबा से ज्ञान की कुछ बातें सुनता चलूँ.परदेस जा रहा हूं,न जाने कौन सा संकट आन पड़े.
सो वह उस बूढ़े की कुटिया में पहुंच गया और अपनी बात कही.
बूढ़े ने कहा बेटा परदेस जा रहे हो तो मेरी ये पांच बातें सदैव याद रखना-

1.जो तुम्हारी सेवा करे तुम ही उसकी सेवा करो.
2.किसी को दिल दुखाने वाली बात मत करना हर काम इमानदारी से करो.
3. हर काम इमानदारी से करो.
4.बिना योग्यता के दूसरों से बराबरी का दावा मत करो.
और
5.जहां भी ज्ञान की दो बातें मिले ध्यान से सुनो.

हरपाल सिंह ने उस वृद्ध की पांचों बातें गाठ बांधली और निकल पड़ा एक बड़े से नगर की ओर....|

प्रातः काल वह एक बड़े से नगर में पहुंचा.महाराज की दरबार पहुँचकर उसने प्रधान सेवक से विनय की.
प्रधान सेवक ने उसकी दिन था और सरलता से प्रभावित होकर उसने भृत्य का कार्य मिल गया.हरपालसिंह ने प्रधान सेवक का बहुत आभार माना.

एक बार राजा साजो-सामान सहित किसी यात्रा पर निकला.रास्ता लंबा था, गर्मी के दिन थे.यात्रा दल के पीने योग्य पानी समाप्त हो गया.राजा और प्रजा दोनों व्यास से व्याकुल हो उठे.

राजा ने प्रधान सेवक को आदेश दिया कि-अविलंब मेरे और सबके लिए पेयजल का प्रबंध करो अन्यथा तुम बुरे परिणाम के लिए तैयार रहो.

भयभीत प्रधान सेवक अपने साथियों के साथ वन में जल की तलाश करने निकल पड़ा पर,उनका सारा प्रयास व्यर्थ रहा.
वह यात्रा दल के पास निराश होकर वापस लौटा.

हरपाल सिंह भी निकट ही खड़ा था.उनसे उसकी यह दशा देखी न गई. क्योंकि उसी के कारण ही तो आज वह
राज दरबार की सेवा कर रहा है.
उसी बूढ़े की पहली बात याद आई-जो भी तुम्हारी मदद करें तुम भी उसकी मदद करो.

उसने प्रधान सेवक से प्रश्न किया प्रधान जी क्या आसपास कहीं पर भी जल का पता नहीं चला?
प्रधान ने कहा-हाँ हरपाल.सभी ताल नदी सूखे हुए हैं.जल का नामोनिशान तक नहीं है हां एक बावड़ी है लेकिन....|"

लेकिन क्या?-हरपाल सिंह ने पूछा.

"आसपास के लोगों ने बताया कि वहां एक भूत रहता है.आज तक जो भी उस कुएं में उतरा वो कभी वापस नहीं लौट सका.इसलिए हम में से कोई भी वहां जाने की हिम्मत न कर सका." प्रधान सेवक ने अपनी बात पूरी की.

हरपाल सिंह ने कहा-"मित्र तुमने मेरी सहायता की है तुम्हारा मुझ पर बड़ा एहसान है इसलिए मैं अवश्य जल लेने जाऊंगा."
सभी ने हरपाल सिंह को रोकना चाहा, पर हरपाल सिंह अपने दोनों हाथों में मटका लेकर निडर होकर चल पड़ा,उसी भूतिया बावड़ी की ओर.

हरपाल सिंह चलते-चलते बावड़ी के पास पहुंचा. बड़े-बड़े और ऊंचे पेड़ों के बीच घिरा हुआ वह कुआँ सचमुच डरावना लग रहा था.ऐसा प्रतीत होता था की वर्षों से यहां कोई नहीं आया है.
कुएँ से नीचे तक जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थी,और नीचे बिल्कुल अंधेरा था. एक बार तो हरपाल सिंह का हृदय भी काँप गया. पर वह हिम्मत करके धीमी कदमों से कुएँ से जल लेने उतरा.
बावड़ी के जल स्तर तक पहुंच कर और झुककर उसने दोनों अपने मटके पानी से भर लिए.दोनों हाथों में जल से भरे घड़े लिए वह जैसे ही ऊपर सीढ़ियां चढ़ने को तैयार हुआ. उससे ठीक सामने एक भयानक सा आदमी खड़ा था. बिल्कुल काला कलूटा बाल बड़े बड़े और बिखरे हुए.कमर से ऊपर का भाग नग्न था.और उसने किसी नर कंकाल को अपने सीने से लगाए रखा था.
हरपाल सिंह स्तंभित रह गया.

उस डरावने आदमी ने हरपाल से प्रश्न किया ओ नौजवान!मेरी पत्नी के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है?
हरपाल कुछ कह नहीं जा रहा था कि उसे वृद्धि की दूसरी बात याद आई किसी के दिल दुखाने वाली बात मत करो.
उसने जवाब दिया-''ऐसी सुंदर स्त्री तो मैंने जीवन में कभी नहीं देखा."

हरपाल सिंह का उत्तर सुनकर वह व्यक्ति बहुत प्रसन्न हुआ उसने कहा-" नौजवान मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं.
मैं अपनी पत्नी से इतना प्रेम करता था कि आज तक उसे लेकर यहां वहां फिर रहा हूं.आज तक जो भी इस कुएँ में आया उन सब से मैंने यही प्रश्न किया.पर उन्होंने इसे हड्डी का ढांचा कह दिया इसलिए मैंने उन सब को मार डाला. पर तुमने मेरी पत्नी की प्रशंसा करके मुझे खुश कर दिया है.बोलो नौजवान तुम क्या चाहते हो?"

हरपाल सिंह ने कहा-"मान्यवर आसपास के लोगों को आपके भय के कारण पानी नहीं मिल पाता है.
यदि आप मुझसे सचमुच प्रसन्न हैं तो कृपा करके आप इस बावड़ी को छोड़कर चले जाइए."

उस आदमी ने कहा बिल्कुल ऐसा ही होगा और तुरंत वह सदा सदा के लिए उस कुएँ को छोड़कर चला गया.

हरपाल सिंह जब मटके में पानी लेकर वापस  पहुंचा तो सबके खुशी का ठिकाना न रहा. राजा प्रजा सब को भरपूर पानी मिला.

राजा ने हरपाल सिंह से प्रसन्न होकर उसके पद और वेतन में वृद्धि कर दी.

अब हरपाल सिंह को राज्य का खजांची बना दिया गया. यानी कि  राजकोष के देखरेख का जिम्मा अब उसके ही हाथों में था. अपना काम करते हुए उसे बूढ़े की तीसरी बात हमेशा याद आती थी कि-हर काम इमानदारी से करो.

हरपालसिंह की ईमानदारी से काम करने और पाई-पाई के हिसाब रखने की वजह से भ्रष्ट कर्मचारी उससे नाराज  रहने लगे क्योंकि अब उनके अतिरिक्त आय का रास्ता बंद हो गया.

प्रधानमंत्री ने हरपालसिंह को लालच देकर कहा कि यदि तुम हमसे मिलकर रहोगे तो मैं और हमारे साथी मिलकर तुम्हें एक प्रतिष्ठित पद दिलवा देंगे.जिससे तुम्हारे सम्मान और यश में वृद्धि होगी.
पर हरपाल ने बूढ़े की चौथी बात का स्मरण किया-बिना योग्यता के किसी से बराबरी का दावा मत करो.
उसने प्रधानमंत्री का अनुचित प्रस्ताव ठुकरा दिया.

इससे नाराज होकर दूसरे ही दिन सुबह चापलूस मंत्रियों ने राजा के पास जाकर शिकायत की,कि हरपालसिंह अपने कार्य  में हेरा-फेरी करता है.और मना करने पर उसने हमें खरी-खोटी सुनाई और उसने राजपरिवार को भी अपमानजनक शब्द कहे हैं.

राजा यह सुनकर आगबबूला हो गया.उसने कहा-"हरपालसिंह का यह दुस्साहस?कि हमारे ही टुकड़ों पर पलकर हमें ही अपशब्द कहे.हम जब तक हरपालसिंह का कटा सिर नहीं देख लें,हमारे परिवार का कोई भी सदस्य पानी तक नहीं पिएगा."

राजा ने तुरंत एक सैनिक को बुलाकर उससे कहा-"सैनिक हमारे नगर से कुछ दूर के गाँव में एक भवन निर्माण का कार्य चल रहा है.आज एक व्यक्ति तुमसे आकर यह पूछेगा कि काम कितना बाकी है? यह सुनते ही तुम उसकी गर्दन काटकर मेरे पास ले आना."

राजा की आज्ञा पाकर वह सैनिक चला गया.

कुछ देर बाद राजा ने हरपाल से को अपने पास बुला कर कहा-"हरपाल सिंह पास के एक गांव में बहुत बड़ा भवन बन रहा है तुम शीघ्र जाओ और वहां के कारीगर से पूछकर आओ कि काम कितना बाकी है?

"जो आज्ञा महाराज!"

हरपाल सिंह एक घोड़े पर सवार होकर अनजाने में अपने ही मृत्यु की ओर बढ़ चला.
हरपाल सिंह अश्व पर सवार हो कुछ विचार करते हुए यात्रा में मग्न था.

उसने देखा कि रास्ते पर ही एक बड़ा सा आयोजन हो रहा था जिसमें ज्ञान की चर्चा हो रही थी. हरपाल आगे बढ़ जाना चाहता था पर उसे बूढ़े की पांचवी बात याद आई-जहां भी ज्ञान की दो बातें मिले ध्यान से सुनो.
वह घोड़े को एक वृक्ष से बांधकर कथा सुनने में रम  गया. चर्चा जब ज्ञान की हो तो समय कैसे बीत जाता है,पता ही नहीं चलता. हरपाल सिंह के साथ भी ऐसा ही हुआ.कैसे दिन डूबने को आई,पता ही न चला.

इधर राज परिवार के सदस्य भूख प्यास से तड़पने लगे. क्योंकि उन्होंने हरपाल सिंह के मरने के बाद ही अन्य जल ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की थी. राजा का बेटा भूख-प्यास सहन नहीं कर सका.वह जानना चाहता था कि हरपालसिंह का सिर अब तक क्यों नहीं पहुंचा?

वास्तविकता जानने के लिए राजकुमार एक साधारण पुरुष का वेश बनाकर उसी सैनिक के पास जा पहुंचा जिसे राजा ने हरपाल सिंह का सिर काटने की आज्ञा दी थी.

वहां जाकर उसने सैनिक से पूछा-" काम अब तक पूरा क्यों नहीं हुआ?
वह सैनिक वेश बदले हुए राजकुमार को नहीं पहचान पाया. उसने समझा कि यही वो व्यक्ति है जिसका सिर काटने के लिए मुझे महराज ने यहाँ  भेजा है.

उसने झट राजकुमार का सिर काट दिया.

यदि हरपालसिंह बूढ़े की पांच बातें नहीं मानता तो क्या होता?

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"

22 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

Thanks for this story I am searching for long time thank you very much

Unknown ने कहा…

very inspirational story. Thanks

Unknown ने कहा…

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Unknown ने कहा…

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Unknown ने कहा…

thanks, i was also searching for those five inpirational statements for a long time. here i ot them.

Unknown ने कहा…

धन्यवाद ! मैं भी कई दिनों से यह कहानी ढूंढ रहा था । बहुत बहुत धन्यवाद । जीवन मे उतारने लायक बातें है ।

Unknown ने कहा…

Thank you very much for this post.

Ritesh Purohit ने कहा…

बहुत बहुत धन्यवाद. बचपन में यह कहानी पढी थी लेकिन अब काफी कुछ भूल गया था. बीते कई दिनों से इस कहानी को तलाश रहा था.

अशोक कुमार नेताम ने कहा…

मैंने भी इसे बचपन की यादों के सहारे लिखने की कोशिश की.आपने पढ़ा प्रतिक्रिया दी शुक्रिया आपका.

Unknown ने कहा…

Thanks for sharing I was also searching for it for a long time....

Unknown ने कहा…

Thank You

Maneelal ने कहा…

हरपाल सिंह ने सौतेली माँ के दुर्व्यवहार से खिन्न होकर घर छोड़ा था।

Unknown ने कहा…

Ashok Bhai Thanks for remember this OLD story _ Old is Gold

Unknown ने कहा…

I was not remembering all 5 saying so I searched

शैलेष वाणी ने कहा…

सचमुच ज्ञान की बातें।

Unknown ने कहा…

बचपन में प्राथमिक शाला मे पड़ें थे बहुत ही अच्छा प्रेरणादायक कहानी है

Rajesh ने कहा…

बहुत धन्यवाद मित्र

Unknown ने कहा…

Ye story bahut hi prernadayak hai.

Mukesh kumar sharma ने कहा…

Ye kahani bahut hi prernadayak hai

Unknown ने कहा…

एक गुरु के चार शिष्य थे जिनकी शिक्षा पूरी हो जाने पर गुरुदक्षिणा देने की बारी आई। गुरु ने उन्हें एक वर्ष का समय दिया। चारों शिष्य अलग अलग दिशा में चल पड़े। एक शिष्य ने राजा के यहाँ नौकरी कर लीऔर खूब सारा धन कमा लिया। दूसरे ने एक व्यापारी के यहाँ नौकरी कर ली और बहुत सा धन कमाया। तीसरे ने एक किसान के यहाँ काम कर लिया और बहुत सारा धन कमाकर एक वर्ष उपरांत अपने गुरु को गुरुदक्षिणा दिया। गुरु बहुत प्रसन्न हुए। किंतु चौथा शिष्य एक मार्ग पर चलते चलते एक उजाड़ गाँव में पहुँच गया। पूरा गांव सूना था।भूख-प्यास से थका हुआ वह एक वृक्ष की छाया के नीचे बैठ गया। इतने में वह क्या देखता है कि कुछ लोग आ रहे हैं और राजा को अपनी सहायता न करने के लिये कोस रहे थे। उस शिष्य ने उन राहगीरों से समस्या पूछा तो उन्होंने बताया कि इस गांव में चार साल से पानी नहीं बरसने के कारण अकाल पड़ा हुआ है और राजा ने भी सहायता करने से इंकार कर दिया है। इस पर शिष्य ने उन्हें समझाया कि कुओं को और खोदो, जमीन के अंदर बहुत पानी है। लोगों ने उनकी बात मानकर कुओं को और गहरा करना प्रारंभ कर दिया। देखते ही देखते उनकी मेहनत रंग लाई,और पाताल से ऐसी जलधारा फूटी कि भगवान की आँखें भी भीग गई। जलस्रोतों के कारण धीरे धीरे उस गांव में पुनः समृद्धि लौट आई।और अब उस शिष्य को भगवान की तरह पूजा जाने लगा। धीरे धीरे उसकी प्रसिद्धि चारों तरफ फैलने लगी यह खबर जब राजा तक पहुंची कि उसके राज्य में भगवान ने अवतार लिया है तो वह भी उनके दर्शन करने के लिए निकल पड़ा। उधर जब एक वर्ष पूरा बीत जाने के बाद भी वह शिष्य नहीं लौटा तो गुरु को बड़ी चिंता हुई और वे अपने तीनों शिष्यों को लेकर उसे खोजने निकल पड़े। चलते चलते वे भी उसी गांव में पहुंच गए जहाँ राजा खड़ा था। राजा ने उन्हें प्रणाम किया। गुरु ने पूछा कि आप कहाँ जा रहे हैं तो राजा ने कहा कि मेरे राज्य के इस गांव में भगवान ने जन्म लिया है मैं उन्हीं के दर्शन करने जा रहा हूँ। यह सुनकर गुरु भी राजा के साथ भगवान के दर्शन करने चल पड़े। उस गांव में पहुँचकर जब राजा उस चौथे शिष्य के पास पहुँचते हैं तो देखते हैं कि यह कैसा भगवान है जिसके सिर पर न मुकुट है,और न सुन्दर वस्त्र। उल्टे मैले कुचैले वस्त्र पहने इन किसानों के साथ खेतों में मिट्टी से सना हुआ काम कर रहा है। इतने में गुरु अपने शिष्य को पहचान गए और उसके पास जाकर बोले वत्स गुरुदक्षिणा देना भूल गए हो क्या, तो शिष्य ने कहा कि गुरुवर मै आपकी गुरुदक्षिणा नहीं भूला हूँ परंतु काम अभी अधूरा है। जब तक इन सभी लोगों के आँसू पोंछ नहीं देता तब तक मेर काम पूरा नहीं होता। इसके बाद ही मैं आपकी गुरुदक्षिणा देने आ पाऊँगा। गुरु ने उसे गले से लगा लिया और बोले मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा नहीं चाहिए। लोग मेरे शिष्य को भगवान मानकर पूजते हैं यही सबसे बड़ी गुरुदक्षिणा है। यह सुनकर राजा का सिर उस शिष्य के आगे झुक गया।

कृपया इस कहानी का पूरा और वास्तविक रूप शीर्षक सहित प्रस्तुत करें। यह कहानी मैंने बचपन में कक्षा 4 या 5 के सहायक वाचन में 1985-86 के आसपास पढ़ा था। मैं इस कहानी को एक बार पुनः पाना चाहता हूँ। कृपया मेरी सहायता करें।

Gyansagar46 ने कहा…

बहुत अच्छी कहानियाँ ।

Unknown ने कहा…

मैं कई दिनों से इस कहानी की तलाश कर रहा था, आज आपने पूरी की ,बहुत बहुत धन्यवाद। इसे पूरे रूप में चाहिए।

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