सोमवार, 10 जुलाई 2017

||तुम्हें क्या कहूँ?||

शहद सरीखे मीठे बैन,
तीर चलाते से नैन,
एक बार देखे छवि जो तुम्हारी,
आए कैसे भला,उसे फिर चैन.

कुंतल नाग,दन्त अति सुन्दर.
शशि या तुम,नहीं कोई अंतर.
सौंदर्य तुम्हारा कौन बखाने,
हुए परास्त,सब कवि धुरंधर.

तन-मन सुन्दर किंतु,तनिक न तुझमें दर्प.
हुई तुमसे,कई अप्सराएँ भी हतदर्प.
मोहनी रूप  देख तुम्हारा,
हुआ स्वयं भी मोहित कंदर्प.

लाजवंती कहूँ,चम्पा कहूँ,या कहूँ तुम्हें फूलों की रानी.
होगा कहीं और किंतु,धरा पर तो नहीं है तुम्हारा सानी.
जिसका हिय हो तुमसे आहत,
वो स्वप्न में भी न माँगे पानी.

शब्दार्थ:-
कुंतल=केश,बाल.
धुरंधर=श्रेष्ठ.
दर्प=अहंकार.
हतदर्प=जिसका अभिमान भंग हो गया हो.
कंदर्प=कामदेव.
सानी=बराबरी का,दूसरा.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
   कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

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