रविवार, 30 जुलाई 2017

||बचपन को न मारो||

बाल मन को,
स्वतंत्र उड़ान भरने दो.
करते हैं वे,यदि चांद तारों की चर्चा,
तो उन्हें,जी भर बातें करने दो.

देखने दो उन्हें घर में बनाने वाले पकवानों में,
सांप,केकड़े,हाथी आदि की आकृतियां.
खेलने दो उन्हें घर में पड़े तार के टुकड़ों से,
और
काग़ज के हवाई जहाज और नाव बना कर.
लगाने दो दौड़ अनायास ही इधर उधर,
गाड़ी की आवाज निकालते हुए.
बनाने हल,रथ,बैलगाड़ी लकड़ियों से,
करने दो बातें रेलगाड़ियों,हेलीकॉप्टरों की.

इनके भी कुछ सपने हैं,
मन में कई अभिलाषाएं हैं.
छिपी इनके भीतर,
असीम संभावनाएं हैं.

करने दो उन्हें मनमर्जी,
उन्हें हर बात पर न टोको.
सतत प्रवाह उनके विचारों का,
तुम कभी न रोको.

है कौन सा धन तुम्हारे पास?
रहते हो सदा अकड़के-तन के.
खेलो कभी इनके साथ,
देखो कभी खुद भी बच्चे बनके.

क्योंकि बच्चे  बनकर ही,
तुम्हें मिल सकेगा जीवन का सच्चा ज्ञान.
जान जाओगे तुम कि हैं झूठे,
तेरे ये धन,पद,यश और सम्मान.

होगा इनका सुंदर कल,
तुम तो बस आज,जीवन इनका सँवारो.
इन पर इन पर बंधन,
तुम इनके बचपन को न मारो.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

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