शनिवार, 22 जुलाई 2017

||किसानों के हर्ष-उल्लास का पर्व:हरियाली||

सावन महीने की अमावस्या के दिन मनाया जाने वाले हरियाली त्यौहार के साथ ही छत्तीसगढ़ में पर्वों का क्रम आरंभ हो जाता है.इसके बाद लगातार रक्षाबंधन,श्रीकृष्ण जन्माष्टमी,तीजा पोला, गणेश चतुर्थी, नया खानी, दशहरा,दिवाली, देव उठनी जैसे त्यौहार मनाए जाते हैं.

हरियाली मुख्य रुप से कृषकों का पर्व है.छत्तीसगढ़ "धान का कटोरा"के नाम से प्रसिद्ध है.किसानों की धान बुवाई के बाद इस समय खेतों में चारों ओर हरितिमा छाई होती है.जिसे देख कर किसान का हृदय प्रसन्नता से भर जाता है,और हृदय की उसी खुशी को किसान हरियाली का त्यौहार मना कर प्रकट करता है.

इस समय खेतों में जो फसल लहलहाती हुई दिखाई देती है.उसके पीछे कृषक का अथक परिश्रम तो होता ही है,साथ ही वह धरती,चौपाये व अपने कृषि यंत्रों को भी देवतुल्य मानकर उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है और ये एक महान सोच का परिचायक है.

हरियाली अमावस्या के कुछ दिनों पूर्व गांव के विशेष यादव भाइयों द्वारा जंगल से शतावर,केउकंद जैसे दिव्य जड़ी-बूटियां खोदकर लाई जाती जिसे "रसना जड़ी" कहा जाता है,ये पशुओं के लिए  बलवर्धक  होते हैं.उन जड़ी-बूटियों के मिश्रण को हरियाली अमावस्या के दिन हर घर बाँटा जाता है,किसान इसे अपने पशुओं को खिलाते हैं.
छत्तीसगढ़ में अधिकांश स्थानों पर किसान अपने पशुओं को गेंहूँ के आटे से निर्मित "लोंदी" खिलाते हैं.

बस्तर में इसे "अमुस तिहार" के नाम से जाना जाता है.इस दिन कृषक खेतों में जाकर धूप आदि जलाकर धरती माता का नमन-वन्दन करते हैं.साथ ही वे अपने खेतों के मध्य में भेलवाँ अथवा सल्फी की टहनी गाड़ देते हैं.ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से खेतों की फसल कीट प्रकोपों से सुरक्षित हो जाती है.घर में औरतें हर त्यौहार की भाँति ही "बड़ा" व ''सँजरा" बनाती हैं.परिवार के सभी लोग साथ मिलकर त्यौहार का आनन्द मनाते हैं.

बस्तर संभाग को छोड़कर शेष छत्तीसगढ़(कांकेर जिला भी शामिल)में इस दिन सारे कृषि के उपकरणों जैसे हल,कुदाल,कुल्हाड़ी,आरी,बसूला आदि को पवित्र करके घर के तुलसी चौरा के सामने रखकर उनकी पारंपरिक तरीके से पूजा की जाती है व अपने इष्ट देवी-देवताओं का धन्यवाद किया जाता है. घर-घर पारंपरिक पकवान जैसे बरा,सोंहारी,ठेठरी,भजिया आदि बनाए जाते हैं.

लोकमान्यता है कि सावन अमावस की अर्धरात्रि दुष्ट शक्तियों के जागरण का अनुकूल समय होता है.इस दिन "टोनही"(चुड़ैल)दैवीय शक्तियाँ अर्जित करती है.फलत: उनसे से रक्षा हेतु लोग अपने घर-आँगन को गोबर से लीपते हैं व घर के दरवाजे पर नीम की डाल बाँधते हैं.

इसी दिन गेंड़ी का भी आनंद  लिया जाता है.बस्तर में इसे "गोड़ोंदी" कहते हैं.जिसे बस्तर में नयाखानी पर्व के दूसरे दिन "गोड़ोंदी देव" के समक्ष  तोड़ा जाता है. अन्य स्थानों पर इसे तीज पर्व के दूसरे दिन तोड़ा जाता है.
पर अब गेंड़ी बनाने की परम्परा भी धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है.

जगदलपुर शहर के दंतेश्वरी मंदिर के आंगन में "पाट जातरा" रस्म के साथ इसी दिन से लगभग 75 दिनों तक  चलने वाले बस्तर के विश्व प्रसिद्ध दशहरे की शुरुआत हो जाती है,जो कि कुंवार महीने की शुक्ल चतुर्दशी तक चलता है.पाट जात्रा पूजा के बाद रथ निर्माण का सिलसिला शुरू कर दिया जाता है।(बस्तर में रावण दहन की परम्परा नहीं है,बल्कि यहाँ दशहरे में रथ चालन किया जाता है.)

इस तरह हरियाली अमावस किसानों की प्रसन्नता और प्रकृति के प्रति प्रेम व कृतज्ञता प्रकट करने का पावन पर्व है.
(जानकारी जैसा की मैंने पढ़ा,सुना,देखा है.त्रुटियों पर  क्षमा करें व अपने सुझाव दें,ताकि अपेक्षित सुधार किया जा सके.)

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

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