बुधवार, 19 जुलाई 2017

||अबकी बार,मेरी एक और हार||

कल ही उसे,
पहली बार देखा.
नजर आई,
उसमें मुझे रेखा.

सोचा हो कोई भी ये,
जैसा भी हो ब्रह्मा का लेखा.
पा कर रहूंगा मैं इसे,
मैंने उस पर जाल अपना फेंका.

मेरी जान मैं,
तुम पर मरता हूं,
एक बड़े से शहर में,
बड़ा सा काम करता हूं.

मेहरबानी होगी तुम्हारी,
यदि तुम मेरी बात सुनोगी.
बहुत सुख पाओगी,
गर मुझे अपना हमसफ़र चुनोगी.

ठीक है देखेंगे और,
बड़े गौर से सोचेंगे.
लगे तुम अगर ओ के,
तो तुम्हें ही अपना दिल दे देंगे.

पर पहले तो जान लूँ,
मैं तुम्हारा हालचाल.
ये नंबर है मेरा करना तुम,
आज रात इस पर काल.

रात को मैं,
खाना तक नहीं खाया.
कई बार नहीं लगा,
उसे बार बार फोन लगाया.

बड़ी देर बाद लगा मेरा फोन.
वो पूछी कौन?
मैं तेरा आशिक,
और कौन?

फिर तो घंटा जैसे,
मिनट की तरह बीत गया.
वो हार गई,
और मैं जीत गया.

वो बोली हां ठीक है पर,
कहती हूं मैं तुमसे इक बात.
न मिल सकेंगे हम,
भला एक कहां है अपनी जात?

अरे कुछ भी हो अपनी जात.
पर न छूट सकेगा अपना साथ.
क्योंकि यह साल भी तो है 1-7.

इससे पहले कि सब जान जाएँ हमारी कहानी,
जैसे जंगल में फैल जाती है आग.
उससे पहले ही हम दोनों,
रायपुर जाएंगे भाग.

मैं आऊंगा कल सुबह पुल के पास,
बैग में सामान समेट कर.
तुम आना उधर से गठरी में,
कपड़े,चावल-दाल लपेटकर.

उसने कहा,
गुड नाइट ओके.
मैंने भी कहा सेम,
बड़ा खुश होके.

बस मीठे सपनों में ही खोया था.
कल मैं रात भर नहीं सोया था.

कहा मैंने बादलों से-किसी की खातिर
मेरा मन अब तक रहा था तरस.
ऐ सावन इस बार तो,
तू जरा जम के बरस.

पर वाह रे सावन,
बरसाया इतना पानी.
कि याद आ गई,
मुझको मेरी नानी.

जैसे ही आज मैं,
पहुंचा पुल के पास.
देखकर चारों ओर के नजारे,
हुआ मैं बहुत निराश.

हे विधाता ये कैसी मुश्किल आन पड़ी है.
यह प्रेमियों के लिए बड़े ही दुख की घड़ी है.
पुल के ऊपर से बह रहा है पानी,
मैं इधर खड़ा हूं,और वो उधर खड़ी है.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

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