गुरुवार, 27 जुलाई 2017

||मन के आँखी खोल||

वहू अदमी,तहूँ अदमी,
नइ हे कोनो अंतर.
कुछु नइ मिलय बिन मेहनत के,
मारले कतको मंतर.

सबके तन म,
एके खून बोहाथे.
जिनगी म सबके,
दुख अउ पीरा अथे.

झन समझ तैं,
आपन आप ल डेड़ हुसियार.
बना बेवहार ला सुघ्घर,
जइसे होथे मीठ,खुसियार.

का चीज के गरब करथस बाबू,
तोर जइसे अइन-जइन कतको हजार.
समय के कीम्मत ल समझ,
बगरा चारो कोती मया-दुलार.

सत के रद्दा रेंगे बर,
तैं जादा झन सोच.
हो जही जिनगी तोर सारथक,
कोनो गरीब दुखी के आँसू पोंछ.

ए भरम के चसमा ल,
तैं उतार के फेंक.
सब तो अपनेच आँय जी,
मन के आँखि खोल के तो देख.

हौ हाँसही तोर उपर ए दुनिया,
तोला पगला-दिवाना कही.
फेर एक न एक दिन,
अम्मर जग म,तोर नाव रही.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)

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