सपना था काँच का,
टूटकर बिखर गया.
मेरा दामन बस,
अश़्कों से भर गया
काश कि उस रोज,
साथ मेरे ख़ुदा होता,
फिर देखता मैं,कि यार मेरा,
कैसे मुझसे जुदा होता.
इस जन्म में न बन सका,
मैं तो तुम्हारे काबिल.
आऊँगा अगले जन्म में,
फिर करने तुम्हें हासिल.
होगा फिर से वही समाँ,
अरमानों के फिर नए गुल खिलेंगे.
यकीं है ऊपरवाला सुनेगा मेरी,
और कहीं न कहीं तो,हम जरूर मिलेंगे.
✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)
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