शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

||कर प्रभु का सिमरन||

न उलझ माया में,
ओ बावरा मन.
नित कर तू,
प्रभु का सिमरन.

न इतरा अपनी,
देह शोभा पर,
मिल जायेगा,
मिट्टी में ये तन.

ऊपर संग कुछ,
ले जाएगा क्या?
खरच परहित,
निज अर्जित धन.

उसको खोज,
कभी अंतर में,
भटक रहा तू,
क्यूँ वन-वन.

कर्म कर,
मन धीर धर.
कभी तो बरसेंगे,
प्रभु कृपा के घन.

नित देख सुखद,
मोहक छवि उनकी.
कर अर्पण उन्हें,
अपने भाव सुमन.

सत् कर्मों की,
जला दिव्य अग्नि,
अपने अवगुणों को,
बना समिधा-कर यजन.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
     कोण्डागाँव(छत्तीसगढ.)

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