एक सेठ जी के पास अकूत संपत्तियाँ भरी पड़ी थी.पर उसने कभी धन का थोड़ा भी अंश परहित के लिए खर्च नहीं किया.लेकिन उसे धार्मिक कार्यों में बहुत रुचि थी, और वह साधु संतों की बड़ी सेवा-सुश्रूषा करता था.
एक बार उसके घर में एक संत आए. सेठ जी ने उसकी खूब आवभगत की. संत ने कहा क्या तुम अपने धन का कुछ भाग गरीबों असहायों के लिए खर्च करते हो. सेठ ने उत्तर दिया नहीं.
भला क्यों संत ने पूछा सेठ जी ने जवाब दिया-"क्योंकि मैंने यह सारा धन अपने परिश्रम से अर्जित किया है और मेरी कमाई मैं औरों को क्यूँ दूँ?"
"तो तुम्हारी सारी कमाई,ये महल आदि सब तुम्हारा है?"
"हां मैं ऐसा ही समझता हूं.पर सत्य क्या है,ये मैं नहीं जानता? आप ही मेरा मार्गदर्शन कीजिए!"
संत ने कहा-"तुम अपनी आंखें बंद करो और देखो.जो कुछ भी दिखाई देता है मात्र वही तुम्हारा है शेष कुछ तुम्हारा नहीं है."
सेठ जी ने आंख बंद कर देखा.
उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया.न धन दौलत,न रिश्ते-नाते बल्कि उसे स्वयं का शरीर भी दिखाई नहीं दिया.
वह सब कुछ समझ गया,और दूसरे दिन से ही वह अपना अर्जित धन पर हितार्थ व्यय करने लगा.
✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
कोण्डागाँव(छत्तीसगढ़)
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