शनिवार, 29 अप्रैल 2017

||जब मैं मरघट से गुजरता हूँ||

एक दिन तो जब उनके पास जाना है.
तो मुझे भला किस बात पे भाव खाना है.

इसलिए जब कभी मैं मरघट से गुजरता हूँ.
तब मैं मृतात्माओं से बात करता हूँ.

कहा मैंने उनसे एक दिन उनसे,

"अपनी दुनिया में तो मानव,
अपनों से ही जल रहा है.
अच्छाई की राह त्याग कर,
असत्य के पथ पर चल रहा है.
स्वयं से उसे है संतोष नहीं
काम-क्रोध,ईर्ष्या-द्वेष में जल रहा है.
धर्मी-सत्यवादी,है बड़ा निर्धन-लाचार.
अधर्म का व्यापार फूल-फल रहा है.
न झुकना पड़ जाए कहीं बड़ों के आगे,
देख उन्हें पतली गली से निकल रहा है.
आडंबर-दिखावा ले रहा आकार
और सादापन गल रहा है.
हैवानियत हावी हो रही इस कदर,
कि इन्सानियत का सूरज ढल रहा है.
खैर बताओ तुम्हारे मृत्युलोक में
आजकल क्या चल रहा है?"

उन्होंने कहा-
"चलेगा क्या?यहाँ तो बस आनन्द ही आनन्द है.
नहीं बू नफरत की यहाँ,बस प्रेम की सुगंध है.
हैं व्यर्थ अर्जित संसार के सारे धन.
है क्षणभंगुर मानव का सुन्दर तन.
काम की अग्नि मानव को पथभ्रष्ट बनाती है.
और क्रोध की लपटें स्वयं को ही जलाती है.
माता-पिता,पति-पत्नी सारे झूठे रिश्ते-नाते हैंं.
जो एक दिन समय के बहाव में बह जाते हैं.
रह जाता है उसका नाम,जो करता है केवल अच्छे कर्म.
पर दुर्भाग्य कि प्राण रहते,हम भी न समझ सके थे ये मर्म.
आशा है तुम मेरी बातों का अनुशरण करोगे.
और जीवन में सदैव मानवीय गुणों का वरण करोगे."

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

||आत्मिक प्रेम||

उसने कालेज में उसे जिस दिन से देखा उसी दिन से वह उसकी अदाओं पर मर मिटा था.सांवली सूरत और उसके बात करते हुए मधुर मुस्कान सचमुच आकर्षण का केन्द्र ही था.

अनिल कॉलेज में पढ़ता था.छोटे से गाँव से वह रोज पढ़ने वह शहर जाया करता था.पढ़ने में वह होशियार तो था ही इसके अलावा उसे लिखने और अभिनय करने का भी शौक था.
पर आजकल उसके लेखन की दिशा बदल गई थी.क्योंकि वह आजकल छाया के एकपक्षीय प्रेम जाल में उलझा हुआ था.वह अपने मन की बात कहना चाहता था,पर कहता कैसे?डरता जो था.यदि वह नाकाम हो गया तो?सो वह अपने मनोभावों को कागज पर काव्य रूप देता और फिर उसे फाड़कर रद्दी की टोकरी में डाल देता था.

बड़ा अजीब आदमी था अनिल.
छाया के हृदय में उसके लिए प्रेम है या नहीं उसने ये पता करने के लिए  एक तरीका निकाला.एक दिन उसने कालेज से वापस आते हुए रास्ते  से पाँच पत्थर उठा लिये.मन में विचार किया कि अगर छाया को भी  मुझसे प्रेम होगा तो इन पाँचों पत्थरों में से किसी न किसी पत्थर  से सामने वाले पेड़ के तने पर मेरा निशाना जरूर लगेगा और तब,मैं छाया से अपने मन की बात कहूँगा.
खैर उसने निशाना लगाया.
पहले-दूसरे-तीसरे पत्थर का वार,पर सब बेकार.
पर उसने हिम्मत न हारी.और जब पाँचवें और आखिरी पत्थर से सटीक निशाना लगा तो वह खुशी के मारे हवा में इस तरह ताली बजाकर उछल पड़ा जैसे उसे छाया मिल ही गई.

अगले दिन कॉलेज के लिए निकलने से पहले उसने बैलों को चारा दिया,माता-पिता के पैर छुए और ईश्वर को याद किया.उसके मन में गजब का आत्मविश्वास भरा हुआ था.

जब वह कॉलेज पहुंचा,तब संस्कृत साहित्य की कक्षा शुरू होने ही वाली थी.
वह जाकर अपनी बैंच पर बैठा. उसने देखा कि वह भी थी.अनिल की ओर देखकर छाया मुस्कुराई.
अनिल के शरीर में  जैसे प्राण ही नहीं रह गया था. आज तो जैसे कोई अप्सरा सज-धजकर साक्षात् स्वर्ग से उतर आई थी.और प्राय:आदमी को वही नजर आता है,जैसा वह देखना चाहता है.

संस्कृत साहित्य का विषय भी बड़ा मजेदार और समयानुकुल.टीचर ने आज कालिदास के नाटक अभिज्ञानशकुंतलम् पर व्यख्यान दिया.उन्होंने बताया कि यह नाटक दुष्यन्त और शकुन्तला के प्रेम,विवाह,विछोह और पुनर्मिलन की नायाब कहानी है.

इस प्रसंग ने छाया के प्रति अनिल के प्रेम को और अधिक ऊँचाईयाँ प्रदान कीं|
इतिहास,अर्थशास्त्र की कक्षाएँ लगी.पर अनिल को न अर्थशास्त्र से कोई अर्थ था,और न ही इतिहास से.
वह तो भविष्य के सुखद स्वप्नों में खोया हुआ था.

दोपहर से शाम होने को आई पर उसे वह एकांत और अवसर न मिला कि छाया से अपने मन की बात कह पाता.खैर उसने उसका मोबाईल नम्बर ले लिया.और घर वापस आया.

शाम को उसने एक दोस्त के सेलफोन से छाया को कॉल किया.
छाया के फोन रिसीव करते ही उसने डरते-डरते अपने दिल की बात एक ही साँस में कह डाली.
ये कहते हुए उसकी मनोदशा देखने लायक थी.
क्योंकि उसने छाया के हाँ या ना को ही जीवन और मृत्यु निश्चित कर लिया था
अपने हृदय का स्पंदन उसे स्पष्ट सुनाई दे रहा था,साँसे भी लंबी और गहरी चल रही थीं.

छाया ने अनिल की सारी बातें बड़े ध्यान से सुनी.उसने अनिल से फोन पर कहा कि कल क्लास शुरू होने से 1 घंटे पहले वह खुद उससे मिलेगी.

अनिल को अब कल का इंतजार है.क्योंकि कल ही मन के  संशय के बादल छँटने वाले हैं.कल ही निर्धारित करेगी उसकी जीवन और मृत्यु.और कल ही ज्ञात होगा कि उसका प्रेम सत्य है या,मात्र वह एक छाया है.

अगले दिन जब वह कॉलेज पहुँचा.क्लास में केवल छाया ही बैठी थी.

"आओ अनिल! i was just waiting for you."
छाया बोली.

"मैं जानता था कि तुम भी मुझसे प्यार करती हो.करती हो न?"-अनिल ने पूछा.

"हाँ भई मैं भी तुमसे प्रेम करती हूँ.ठीक वैसा ही प्रेम,जैसा प्रेम मैं और सबसे करती हूँ."छाया ने जवाब दिया.

"क्या मतलब?"आवाक् अनिल बोल पड़ा.

छाया ने कहा-"अनिल शायद तुम्हें नहीं मालूम कि अभी हाल ही मैं जब दीवाली की छुट्टियों में घर गई थी न.तब मेरी सगाई की बात हो गई.अभी जनवरी महीने में मेरी सगाई भी होने वाली है.ये साल मेरी पढ़ाई का आखिरी साल है.तो आय एम सॉरी उस प्यार के लिए जिसका अरमान तुम्हें मुझसे था."

अनिल रुआँसा होकर लगभग लड़खड़ाती जुबान से बोला-"पर मेरे सपनों का क्या होगा?जिन्हें मैं तुम्हारे बगैर पूरा करने के बारे में सोच भी नहीं सकता.मैं तो तुम्हारे बिना जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकता.छाया कहीं मैं कोई आत्मघाती कदम न उठा लूँ."

खबरदार अनिल! पढ़े लिखे हो कर बेवकूफों सी बातें मत करो.मनुष्य जीवन जीवन ईश्वर से मिला है उसे समाप्त करने का अधिकार भी उनहीं को ही है.आखिर किस चीज की कमी है तुम्हारे भीतर?बल्कि तुम तो हर क्षेत्र में अव्वल हो.तुम्हारे विचार,तुम्हारे कर्म कितने नेक हैं.अनिल तुम्हारा जीवन तो कइयों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बन सकता है.और कल के क्लास में भी तो सर ने प्रेम के संबंध में  यही बताया कि प्रेम का मतलब मात्र कुछ पाना नहीं बल्कि समर्पण और त्याग है."-छाया ने अनिल को झकझोरने की कोशिश की.

"लेकिन छाया?"-अनिल ने अपनी बात रखने का प्रयास किया.

"लेकिन-वेकिन कुछ नहीं अनिल.यदि तुमने मेरी देह से प्रेम किया है तो अफसोस कि तुमने प्यार की सच्ची परिभाषा नहीं जानी.पर यदि तुम मेरी आत्मा से प्रेम करते हो तो तुम सदैव मुझसे प्रेम कर सकते हो.और रही बात खोने और पाने की,तो अभी हमें अपने जीवन में कई उतार-चढ़ाव,जय-पराजय,सुख-दुख लाभ-हानि आदि से दो-चार होना है.असफलताओं से व्यथित होकर गलत कदम उठाने की सोचना दिलेरी नहीं बुजदिली है.फिर मैं तो कल भी तुमारी मित्र थी और आज भी हूँ.इसलिए भूलकर भी  अपने मन में गलत खयाल
आने मत देना."-छाया बोली.

तब तक और स्टुडेंट्स भी क्लास पहुँचने लगे.
कुछ देर में क्लास शुरु हो गयी थी.
पर अनिल के मन में जैसे तूफान चल रहा था.

क्लास खत्म होने के बाद छाया ने पूछा-"अभी कैसा फील कर रहे हो अनिल?"

अनिल ने मासूस चेहरे पर मुस्कान लाते हुए कहा-
"गहरा सदमा है.उबरते वक्त तो लगेगा ही न?

आज कॉलेज से वापस आते हुए अनिल के मन में
मंथन चल रहा था,विचारों का मंथन.
कितनी सुन्दर बात कही थी छाया ने.उसे तो इस बात का डर था कि कहीं छाया उसे खरी-खोटी सुनाकर हमेशा के लिए मित्रता न तोड़ दे .यदि ऐसा हो जाता तो जाने वह क्या कर बैठता.पर छाया के सकारात्मक शब्दों ने अनिल के हृदय में उसके प्रति सम्मान और अधिक बढ़ा दिया.
और तन-मन को एक नई ऊर्जा से भर दिया.

छाया से उसे एक नया शब्द मिला आत्मिक प्रेम.
और प्रेम की सच्ची परिभाषा भी.नहीं तो वह केवल शारीरिक आकर्षण को ही प्रेम समझता था.

तभी तो आज कई सालों बाद जब छाया उसके पास नहीं है,उसके मन मस्तिष्क में छाया का आत्मिक प्रेम ही छाया हुआ है.

खैर!छाया को कोई आज तक पकड़ सका है भला?

(मैंने पहली बार इस तरह की कहानी लिखी है.यदि आप सबका आशीष मिले तो आगे भी..........)

अशोक नेताम"बस्तरिया"

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

||चलो सोए रहें||

खूनी धरती के रूप में बस्तर की जमीं,
नामजद हो गई.
अरे ये तो,
हैवानियत की हद हो गई.

घटना के चलचित्र भेजकर उन्होंने तो,
जाहिर कर दिए अपने नापाक मन्सूबे.
पर हम हैं कि अभी तक,
कुम्भकर्णी नींद में हैं डूबे.

जिनका कुछ गया,
बस वही शोर मचाएँ.
क्या मरा हमारा कोई,
कि हम आँसू बहाएँ?

गोलियाँ चलें,रक्त बहें,
चाहे मचे चहुँ ओर हाहाकार.
किसी का बेटा मरे,कोई विधवा हो,
हमें किसी से क्या सरोकार?

बैठे रहें हम इसी राउंडिंग चेयर,
वातानुकूलित कक्ष में.
और शैतान दलते रहें मूँग,
मातृभूमि के वक्ष में.

होती रहे यूँ ही,
इन्सानियत पर वार पे वार.
हम बस शहीदों के आँकड़ों में,
करते रहें सुधार.

आग तो जंगल में लगी है,
हम मीठे सपनों में खोए रहें.
ये जब तक अपने घरों तक न पहुँचेे,
चलो बेशर्मी की चादर ओढ़कर सोए रहे.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"

बुधवार, 26 अप्रैल 2017

||विपत्ति तू आ||

विपत्ति तू आ और आकर,
मुझसे टकरा जा.
मेरे स्वर्णिम स्वप्नों को,
काँच सा बिखरा जा.

आ भले तू,
शेर की तरह गर्जना करते हुए.
पर सहूंगा मैं तुझे,
सदा की तरह ही  हँसते हुए.

आकर टकराएगी तू,
मुझसे जिस भी वेग से.
भिड़ूगा मैं भी तुमसे,
उसी आवेग से.

या तू मुझे मिटाएगी,
या मैं तुझे मारूंगा.
पर मैं मानव किसी भी कीमत पर,
हिम्मत नहीं हारूँगा.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"

सोमवार, 24 अप्रैल 2017

||एक और महाभारत||

दोनों ओर से चलते भीषण शस्त्र.
है रक्त रंजित भी सबके वस्त्र.

एक विस्फोट,और एक साथ क्षत-विक्षत कई देह.
ये महाभारत ही है,नहीं इसमें कोई संदेह.

हां बिल्कुल ये है महाभारत का ही युद्ध.
जहाँ खड़े हैं कुछ अपने,अपनों के ही विरुद्ध.

पर वह तो लड़ी गई थी,कुरुक्षेत्र की धरा पर.
और यह युद्ध स्थल है,शाल वनों का द्वीप बस्तर.

हैं यहां जंगलों में भी,कुछ दुर्योधन,शकुनि-दुशासन.
चाहते हैं जो शायद शस्त्र बल पर,करना यहाँ शासन.

जो अपनों को ही युद्धाग्नि में झोंक रहे हैं.
असहाय-निर्दोष लोगों पर,अकारण छुरा भोंक रहे हैं.

रोज ही पुत्र या पति खोती है,कोई न कोई नारी.
कभी इस पक्ष का,तो कभी विपक्ष का पलड़ा भारी.

कभी गांधारी अश्रु बहाती है,तो कभी कुन्ती को पीड़ा होती है.
पर बस्तर की भूमि तो,हर दिन,हर क्षण रोती है.

प्रतिदिन दोनों ही धड़ों में,छा जाता है मातम.
किसी निज को खोकर रोज ही,हो जातीं सबकी आंखें नम.

यहाँ कुछ लोग तो अधर्मी हैं ही,
पर जानते हैं इसके वास्तविक खलनायक कौन हैं?
शायद ये भीष्म,कर्ण-द्रोण जैसे लोग,
जो धर्म जानकर भी शांत-मौन हैं.

बस यहां नहीं है तो कोई एक भी,
योगेश्वर कृष्ण सा पथ प्रदर्शक.
मगरमच्छ से अश्रु बहाते,
बैठे हैं बने सब मूक दर्शक.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"

||पुस्तक सच्चा मित्र||

बनना है गर मानव तुम्हें,
और गढ़ना यदि उत्तम चरित्र.
अच्छी पुस्तकों को अपना,
बना लीजिए मित्र.

इनके अंदर हैं छुपे ,
पशु-पक्षी,राजा-रानी.
कहती कविता-गीत कभी,
कभी सुनाती ये कहानी.

किताबों से मिलता हमको,
सत्य-असत्य का ज्ञान.
जो न समझे महत्ता इनकी,
हैं वो बड़े नादान.

सीखो इनसे तुम,
माँ-पिता-गुरु की सेवा करना.
भूलकर भी पाप पथ पर,
अपने पग न धरना.

पढ़ो इन्हें,और अमल करो,
सीखो मानव धर्म.
जिससे होती हो पर पीड़ा,
करना कभी न ऐसा कर्म.

राम सा उत्तम बनो,
बनो कर्ण सा दानी,
भरत सा निर्भय बनो,
न बनो रावण अभिमानी.

आज भले तू खुश है पर,
कल तेरे आँसू बहेंगे.
संभव है साथ तुम्हारे,
कल ये अपने नहीं रहेंगे.

पर ये किताबें हैं,
जिंदगी की इक ऐसी सौगात.
कि मरते दम तक,
नहीं छूटेगा इनका साथ.

नित्य ही जो मानव,
अच्छी पुस्तकें पढ़ता है.
हर बाधा को परास्त कर,
सतत् वो आगे बढ़ता है.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"

||कब से प्रभु की भक्ति करें||

एक मानव अपने यौवन में,
बस पाप कर्म में लिप्त रहा.
किया भले कुछ पुण्य किंतु,
ये विषय उसका संक्षिप्त रहा.

चोरी की,असत्य कहा,
हिंसा करी ,मदिरापान किया.
था जीवन अनमोल,मगर वह,
आधा जीवन व्यर्थ जिया.

आई जब वृद्ध होने की बेला,
और बाल होने लगे सफेद.
तब आया समझ में उसे,
जीवन मृत्यु का भेद.

सोचा वह मैं मूढ़-पापी,
काम-क्रोध का त्यजन करुँ.
मोह-माया के पार जाकर,
क्यूँ न,परमेश्वर का भजन करुँ.

पर थी तनिक विडंबना,इसलिए
गया वह एक संत के पास.
मन में थे कुछ यक्ष प्रश्न,
उत्तर की थी आस.

बोला-"इससे पूर्व कि हो जाय,
क्षीण श्रवण-दर्शन की शक्ति.
चाहता हूं भगवन कि,
मैं करुँ ईश्वर की भक्ति."

"पर मन में है एक शंका,
पहले उसका समाधान करूं.
बताइए कि कब से-कैसे,
मैं अपने प्रभु का ध्यान करूँ."

बोले महात्मा-"कुछ दिन और तू,
पाप की सरिता में बह ले.
जिस दिन मरोगे तुम,करना भक्ति शुरु,
ठीक उसी दिन से पहले."

बोला युवक-"जिस तरह जग में,
सब कुछ है अनिश्चित.
वैसे ही मृत्यु भी कब होगी,किसी की,
ये कहां है निश्चित."

"मौत तो चुपचाप ही
एक दिन मेरे निकट आएगी.
सुनेगी कुछ भी न,मेरी वह,
अपने साथ ले जाएगी."

बोले संत-"यह अकाट्य सत्य कि,
मृत्यु कभी भी है आ सकती.
इसीलिए आज से ही तुम,
करो आरंभ,प्रभु की भक्ति."

"उनका सिमरन करते जिस दिन,
तेरा मैं खो जाएगा.
उस दिन तू और तेरा जीवन,
धन्य-धन्य हो जाएगा."

इससे पूर्व कि हम भी इक दिन,
इस जग से प्रस्थान करें.
क्यों न हम भी आज से ही,
प्रभु स्मरण,भजन-ध्यान करें.

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017

||डरना मना हे||

आजकल जब में अपन फटफटी ल इस्टाट करेल धरथँव,त बाई कथे-कहाँ जात हस?बने देख के चलाबे.कहूँ मोटर गाड़ी म झन झपा जबे.अउ जब मे गाड़ी म बइठ के मेन रोड म निकलथँव त मोर जीव ह बड़ धुकुर-पुकुर करथे.
अउ डर लागथेच भई.
पेपर म रोज पड़थन कि रोड म दुरघटना ले काखरो हाथ- गोड़ टुट गे,काखरो आँखि फूट गे,काखरो ददा चले गे,अउ काखरो डैकी मर गे.
सड़क म निकले न ताहन देख,रँग-रँग के,राकछस असन गरजत-दँउड़त,बड़े बड़े-गाड़ीमन.आँखि ह रद्दा ले कहीं दूसर डहर जइस न,त तैं नइ बाँचस.बिलकुल चट्टनी हो जबे,गउ कि.
आजकल के गाड़ी चलइय्यामन घलो बड़ा डेड़होसियार जी.
एक दिन मे फटफटी म मोर बाई संग बजार जात रेहेंव.एक झन हिरो असन के टूरा चस्मा लगा के अपन गाड़ी ल हमर गाड़ी के पाछू-पाछू लानत,हारन मारत आत हे.
बाई कथे-"साइड दे-दे न जी.जल्दी जवइय्या हे लागत हे."
साइड देय बर जगा नइ राहय त में गाड़ी ल रोक देंव.
ओ टूरा गाड़ी ल राँय-राँय गरजात अउ,जे उड़ात लेगिस न कि हमर एक कनि दुरिहा जाके गाड़ीच संग,सड़क म भकरस ले उलंड गे.
मे बाई ल केहेंव-"तें सिरतौन केहे वो,कि ए ह जल्दी जवइय्या हे.लागत हे चल दीस."
आजकल गाड़ी चलइय्यामन अइसे गाड़ी दउड़अथें,कि जइसे एक कनि लेट हो जाय ले ऊँखर दाई-बाप मर जहीं.
मे गाड़ी चलात खनि चलइय्या के थोथना ल देखथँव त बड़ मजा अथे.आँखि ल बटार के,छाती ल तान के,अउ बड़ा अकड़ के अइसे बइठे रथँस कि जइसे ए मन ह अमरीस पुरी के बाप हरँय.
अउ साले मन गाड़ी ल भँवरा सरिख भन्नावत उड़ाय रथें.
कतकौन झन रद्दा म एक्सीडेंट होके घायल होवत हें,होवन दे.मरत हें,मरन दें.फेर डर का बात के?
हम ल त कहीं नइ होय न?
ओखरे सेती मे कथँव कि बेफिक्कर होके बिन हेलमेट के,फोन म टुरी संग हाँसत-गोठियावत,दारु पी के ,फटफटी म 5-6 झन ल बइठा के,अउ गाड़ी म ओभरलोड करके गाड़ी ल कुदा न ?
जब एक्सीडेंट होही तब देखे जही.
का बात के डरना भई.
केहे घलो गेय हे कि जो डर गया वो मर गया.
तोला जिये के हे न,त झन डर भई.
डरना मना हे.
एक्सीडेंट होके एक दू-बार बाँचे के मउका भगवान नि दिही का?अउ मरिच जाबे ते फेर मानुस तन का नइ मिलय?
अभी मोला बिदा देव न बाकी ल पाछू लिखहूँ.
मोला थोड़किन जल्दी जाना हे.
आप मन ल घलो जल्दी जाना हे न?
✍अशोक नेताम"बस्तरिया

||बेटी हो तो ऐसी||

जिस दिन मीना ने अपनी पहली संतान को जन्म दिया,उस दिन उसके पति सुकलू को ज्यादा खुशी नहीं हुई.लड़की जो पैदा हुई थी.
बल्कि दूसरी बार पिता बनने पर उसने खूब आतिशबाजी की.मिठाईयाँ बाँटकर उसने सबको बताया कि उनके घर लड़का हुआ है.

बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए दोनों ने गाँव छोड़ दिया और शहर में आ गए.शीला और रमेश दोनों धीरे-धीरे बड़े होने लगे.उन्होंने दोनों को पढ़ाया-लिखाया.लेकिन उनकी परीक्षाओं के प्राप्त अंकों में हमेशा ही अंतर रहा.क्योंकि रमेश को बेटा होने के कारण उनके माता-पिता ने अधिक लाड़-प्यार दिया.उसके अवगुणों की अवहेलना की.जिससे वह बुरी संगति में पड़ गया.उन्हें पता ही नहीं चला कि उनका बेटा कब जुए और शराब का आदी हो चुका है.

पर इससे अलग बेटी होने के कारण शीला को समय-समय पर अच्छे-बुरे की सीख मिलती रहती थी.पर उसने उनकी बातों को कभी नकारात्मक रुप से नहीं लिया और सदा आगे बढ़ती गई. वह अपने माता-पिता के कामों में भी अपना हाथ बँटाती थी.

अच्छी पढ़ाई के कारण शीला को एक सरकारी कॉलेज में पढ़ाने की नौकरी मिल गई.वहीं रमेश एक सरकारी ऑफिस में चपरासी ही रह गया.

समय का खेल देखिए,अपनी संतानों की अच्छी तरह परवरिश करने वाले सुकलू और मीना का आज कोई भी नहीं है.

साल भर पहले  शीला ने माँ-बाप की इच्छा के विरुद्ध दूसरी बिरादरी में विवाह कर लिया,और रही-सही कसर उनके नालायक बेटे रमेश ने पूरी कर दी.वह एक बड़े शहर में एक रईस परिवार में घर जमाई बन गया,और उसके बाद एक बार घर में झाँककर भी नहीं देखा कि,उनको बड़े जतन के साथ पालने-पोसने वाले,उनके माता-पिता कैसी दयनीय अवस्था में जी रहे हैं.

वैसे उन्हें अपनी बेटी पर बहुत प्यार आता था और अपनी सख्ती पर पछतावा भी.क्योंकि  शीला ने कोई चोरी नहीं की थी.उसने तो घर में बताया था कि वह विजय नाम के एक लड़के से प्रेम करती है,जिसके माँ-बाप नहीं हैं,जो दूसरी जाति का है,बैंक में काम करता है,और दोनों शादी करना चाहते हैं,पर उनके पिताजी अंतर्जातीय विवाह के सख्त खिलाफ थे.इसलिए वह घर छोड़कर चली गई.

आज सुकलू और मीना अपने घर में खुद को बहुत अकेला अनुभव कर रहे थे.जिन बच्चों को लेकर उन्होंने गाँव छोड़कर शहर का रुख किया था आज उन्होंने ही उनका साथ छोड़ दिया था.

अभी सुकलू और मीना किसी चिंता में डूबे थे कि घर के बाहर किसी चारपहिया वाहन के रुकने व उसके हार्न की आवाज सुनाई दी.

दोनों ने देखा कि बाहर विजय और शीला खड़े थे.

शीला बोली-"माँ-पापा!मुझे लोगों से पता चला कि आप दोनों बड़ी दुख भरी जिंदगी जी रहे हैं. यह सुनते ही मैं दौड़ी चली आई. मुझे आप दोनों की ऐसी देखी दशा नहीं देखी जाती."

"हाँ पिताजी!इसलिए हम दोनों ने फैसला किया है कि अब आप दोनों हमारे साथ,हमारे घर में ही रहेंगे.मेरे मां-पिताजी तो अब नहीं रहे. इस तरह मुझे मां-बाप का प्यार भी मिल जाएगा." विजय बोला.

दोनों की आंखों से आंसुओं की धार बहने लगी.जिस बेटे को उन्होंने अपना जाना,उसने उन्हें ठुकरा दिया.और जिस बेटी को उन्होंने जीवन भर पराया समझा,आज वही उन्हें अपना रही है.

विजय और शीला ने घर के सारे सामान पैक कर लिया और मां-पिताजी को कार में बिठाकर अपने घर ले गए.
आज सुकलू और मीना को पता चला कि आखिर बेटी क्या होती है.

लोगों ने जब ये दृश्य देखा तो उनके मुँह से बस यही वाक्य निकला-"भई बेटी हो तो ऐसी."

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"

बुधवार, 19 अप्रैल 2017

||अब सहें मार तेज गर्मी की||

जल का महत्व न कभी समझ में आया.
न किया संचित हमने,उसे व्यर्थ ही बहाया.

वाहन दौड़ाया,सड़क पर हमने छोड़ा धुआँ.
अपनी दुर्गति हेतु स्वयं ही,खोद लिया कुआँ.

पेड़ों को अंधाधुंध काटा.
न सोचा,क्या नफा-क्या घाटा?

पशु पक्षियों तक को न छोड़ा.
हमने हर नियम को तोड़ा.

शुरु से अब तक प्रकृति को बस लूटा.
मैं,मेरा का मोह,हमसे अब तक न छूटा.

न सीखा कभी हमने,बदले में कुछ देना.
बड़े स्वार्थी हम,जाना हमने बस लेना.

बोये बीज बबूल के मानव,अमुआ कहां से पाय.
कुदरती कहर झेलें,अब करें हाय-हाय.

बहुत सताया है हमने,अपनी धरती रानी को.
अब भटक रहे हम दर-दर,बूंद-बूंद पानी को.

जब पार कर दी,सारी हदें हमने बेशर्मी की.
फिर क्यों न सहें अब मार,तेज गर्मी की.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"

|| मिल गया भाई||

मोहन बहुत ही ईमानदार शिक्षक था.
ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह इस स्कूल में लेट हुआ हो.उसके बच्चे उससे बहुत प्यार करते थे.उसकी पत्नी साथ नहीं रहती थी बल्कि दूर गाँव में रहती थी,इसलिए मोहन अपना काम स्वयं ही करना पसंद करता था.हैंडपम्प से बाल्टियों में पानी लाना,घर में बर्तन मांजना,अपने कपड़े साफ करना जैसे काम वह खुद ही करता था.

अभी हाल में ही उसका ट्रांसफर एक नए गांव में हुआ था. राष्ट्रीय राज्य मार्ग पर लगा हुआ,यह एक छोटा सा गांव था,जहां ज्यादातर लोग आदिवासी थे.

यहां उसे लोगों से बहुत स्नेह,सहयोग और सम्मान मिलता था.इसी गांव में एक मुस्लिम दंपत्ति भी रहते थे,जावेद और उसकी बीवी शायरा.मोहन को स्कूल जाते हुए उनके घर सामने से ही गुजरना पड़ता था.
मोहन उसे देखने पर उनके ऊर्दू ज़बान में कभी *अस्सलाम भाईजान* कह देता. जावेद भी दुआ सलाम करता पर जावेद को लगता कि यह हमारे मुस्लिम होने के कारण हमें चिढ़ाने के लिए ही ऊर्दू लफ्ज़ इस्तेमाल करता है.वैसे तो जावेद और शायरा में बहुत प्यार था,पर कभी-कभी दोनों किसी बात पर लड़-झगड़ भी पड़ते थे.

आज भी मोहन जब स्कूल आ रहा था तब दोनों मुस्लिम दंपत्ति के बीच कुछ कहा-सुनी हो रही थी.
स्कूल में देरी हो रही थी इसलिए उसने वहां रुकना ठीक नहीं समझा और सीधे स्कूल आकर बच्चों को पढ़ाने लगा.
अभी पढ़ाते हुए आधा घंटा ही हुए होगा कि स्कूल के बाहर जावेद के घर के आस-पास चीख-पुकार मच गई.
एक आदमी स्कूल में हाँफता हुआ आया और बोला-"मास्टरजी!मास्टरजी!जावेद की बीवी कुँए में कूद गई है."

मोहन जल्दबाजी में पुस्तक टेबल पर फेंककर सीधे घटनास्थल की ओर दौड़ा.
वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि शायरा कुएँ के अंदर गोते खा रही थी. और भीड़ के लोग केवल हाय तौबा मचाने में ही लगे थे.सब इसलिए भी शायद चुपचाप थे, कि ये तो दूसरे कौम के हैं.

पर मोहन ने आव देखा न ताव.बिना शर्ट और पेंट उतारे उसने कुएँ में छलांग लगा दी और कुछ ही देर में शायरा कुएँके बाहर थी.
जावेद और शायरा दोनों बहुत शर्मिंदा थे. जावेद ने शायरा से माफी मांगी.
उसने मोहन से कहा-" भैया. मैंने आज गुस्से में आकर पत्नी को बहुत अहसनीय बातें कह दी थी.यदि आज तुम न होते मुझे जीवन भर पर पछताना पड़ता."
शायरा ने कहा-'हां भैया!मेरे शौहर ने मुझसे जो भी कहा हो,पर मुझे भी कुएँ में कूद कर अपनी ज़िंदगी खत्म करने का क्या हक था.हमें माफ कर दो."

मोहन ने मुस्कराते हुए कहा-"मैं तुम दोनों को इस शर्त पर माफ करुंगा,कि तुम दोनों आइंदा किसी बात पर लड़ाई नहीं करोगे.मैं बार-बार कुएँ में कूद तो नहीं सकता न?

दोनों ने भी हँसते हुए कहा-"हां भैया हां.अब ऐसा ही होगा."

शायरा का कोई भाई नहीं था,इसलिए उसी दिन उसने मोहन को अपना भाई बना लिया.

उस दिन के बाद से अब,जब भी राखी का त्यौहार आता है न,शायरा अपने भाई मोहन को राखी जरूर बांधती है.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

||चलो बच्चे बन जाएँ हम||

माँ के सीने से लगकर
घूमें बाजार-मेले.
चलो बच्चे बन जाएँ हम.
फिर मिट्टी से खेलें.

साथियों संग मिल,
चलें नदी  की ओर.
खूब खेलें सूखी रेत में,
बेवजह ही करें शोर.
पानी के भीतर,
छलांग लगाएँ.
मन भर वहां,
देर तक नहाएँ.
मिले यदि कोई विषहीन सर्प,
उसे हाथों में ले लें.
चलो बच्चे बन जाएँ हम.
फिर मिट्टी से खेलें.

खेलें पिट्ठुल,
आंख मिचौली का खेल.
झगड़ें हम फिर,
आपस में कर लें मेल.
कागज की चलो,
पतंग-जहाज बनाएँ.
नीले आसमान में उन्हें,
जी भर उड़ाएँ.
ईंट को गाड़ी बना लें.
फिर पीछे से उसे धकेलें.
चलो बच्चे बन जाएँ हम.
फिर मिट्टी से खेलें.

बना इमली के पेड़ पर झूला,
उस पर हम झूल जाएं.
भूख-प्यास,सुख-दुख,
सब भूल जाएं.
बारिश की पानी में,
तरबतर भीग जाएँ.
आंगन में बहते जल में,
अपने कागज की नाव चलाएं.
क्या बरसात,ठंड,ग्रीष्म.
हर तरह की परेशानियाँ झेलें.
चलो बच्चे बन जाएँ हम.
फिर मिट्टी से खेलें.

जाने कब हम बड़े होंगे,
चलो बड़ों की नकल करें.
कभी गांधी बनें,
कभी विवेकानंद सा वेश धरें.
बैठ कुर्सी पर दादाजी सा,
अखबार पर नजर डालें.
पापा की बंद-खड़ी गाड़ी में बैठ,
गाड़ी की आवाज निकालें.
और माँ की देखा-देखी बेलन में,
हम भी रोटियाँ बेलें.
चलो बच्चे बन जाएँ हम.
फिर मिट्टी से खेलें.

माँ के सीने से लगकर
घूमें बाजार-मेले.
चलो बच्चे बन जाएँ हम.
फिर मिट्टी से खेलें.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"

चाटी_भाजी

 बरसात के पानी से नमी पाकर धरती खिल गई है.कई हरी-भरी वनस्पतियों के साथ ये घास भी खेतों में फैली  हुई लहलहा रही है.चाटी (चींटी) क...