जल का महत्व न कभी समझ में आया.
न किया संचित हमने,उसे व्यर्थ ही बहाया.
वाहन दौड़ाया,सड़क पर हमने छोड़ा धुआँ.
अपनी दुर्गति हेतु स्वयं ही,खोद लिया कुआँ.
पेड़ों को अंधाधुंध काटा.
न सोचा,क्या नफा-क्या घाटा?
पशु पक्षियों तक को न छोड़ा.
हमने हर नियम को तोड़ा.
शुरु से अब तक प्रकृति को बस लूटा.
मैं,मेरा का मोह,हमसे अब तक न छूटा.
न सीखा कभी हमने,बदले में कुछ देना.
बड़े स्वार्थी हम,जाना हमने बस लेना.
बोये बीज बबूल के मानव,अमुआ कहां से पाय.
कुदरती कहर झेलें,अब करें हाय-हाय.
बहुत सताया है हमने,अपनी धरती रानी को.
अब भटक रहे हम दर-दर,बूंद-बूंद पानी को.
जब पार कर दी,सारी हदें हमने बेशर्मी की.
फिर क्यों न सहें अब मार,तेज गर्मी की.
✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
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