शनिवार, 1 अप्रैल 2017

||आंखें खुल गई||(कहानी)

एक गांव में एक सेठ रहता था.वह बहुत धनी था.उसके पास किसी वस्तु की कमी नहीं थी.किंतु वह बड़ा ही बेईमान और लालची था. ग्राहकों को लूटना,उनका शोषण करना,उसकी आदतों में शुमार था.
वह सामान कम तौलकर देता और अधिक दाम वसूलता था.पर गांव के भोले-भाले और अनपढ़ लोग सेठ की इस चालाकी को समझ नहीं पाते थे.

सेठ सोचता था कि वह जब तक जवान है,वह औरों  को लूटकर बेशुमार धन दौलत कमाए और अपनी संपन्नता में वृद्धि करे.जब उसका बुढ़ापा आएगा,तब वह लोगों की सेवा और भगवान की भक्ति कर अपना परलोक सुधार लेगा.

एक दिन सेठ के घर में एक नामी सन्त आए. सेठ जी ने उसकी खूब आवभगत की.सेठ जी को देखते ही वे उसके कर्मों का लेखा-जोखा जान गए. सेठ ने महात्मा से कहा-"भगवन आप तो अंतर्यामी हैं.कृपया मेरे भविष्य के बारे में कुछ बताइए."
महात्मा ने कहा बेटा-"मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हुआ.किंतु मुझे बड़े दुख के साथ ये कहना पड़ रहा है कि आज से ठीक एक महीने बाद तुम मृत्यु को प्राप्त करोगे."
सेठ हक्का-बक्का रह गया.उसने घबराकर संत से पूछा-"महात्मन् क्या इसे किसी भी प्रकार टाला नहीं जा सकता?"

"इससे बचने का एक ही उपाय है बेटे, कि तुम्हारे पास अपना जो कुछ भी है,उसे दूसरों की सेवा में लगाओ.किन्तु इसके बाद भी तुम्हारी मृत्यु टल जाएगी,ये मैं पूरे विश्वास के साथ नहीं कह सकता."
महात्मा ने उत्तर दिया.

यह बता कर महात्मा तो चले गए किंतु,वह सेठ बहुत चिंतित हो गया.

दूसरे दिन से ही साहूकार ने अपना धन परोपकार में लगाना शुरु कर दिया. उसने तेज गर्मी में राहगीरों के लिए रास्तों पर शीतल और शुद्ध जल के प्याऊ लगवाए. वह रोज गरीबों,बीमारों और असहायों की सेवा करने लगा.उन्होंने अपने घर में पावन श्रीमद् भागवत कथा का भी आयोजन करवाया.अब उसे दूसरों के दुख-दर्द अपने भीतर अनुभव होने लगे.उसका तन-मन प्रेम,भक्ति और आनंद से सराबोर हो गया.

जिस दिन उस संत ने सेठ जी की मृत्यु की भविष्यवाणी की थी,उस दिन वह संत भी उनके घर पहुंचे.
सेठ जी ने संत को प्रणाम कर कहा-"महाराज अब मैं अपने प्राण त्याग दूँ न,तो भी मुझे तनिक भी दुख न होगा.क्योंकि इस एक महीने में मेरे भीतर कई दिव्य परिवर्तन हुए हैं.मैंने जीवन का  सच्चा ज्ञान पा लिया है.यदि मुझे जीवन दान मिला तो भी मैं इसे परसेवा,परोपकार में ही व्यतीत करुँगा."

संत ने हंसकर कहा-"बेटे उस दिन  मैंने तुम्हारी मृत्यु के विषय में असत्य कहा था. ताकि तुम्हें सत्य का ज्ञान हो सके.पुत्र मृत्यु का कोई निश्चित समय नहीं होता. इसलिए धर्म और परोपकार के कार्य मैं बुढ़ापे में कर लूंगा ऐसा सोचना और केवल आनंद में ही मग्न रहना उचित नहीं है."

उस सन्त की वाणी भले ही असत्य थी,पर उसने सेठजी की आंखें खोल दी.उसने उस महात्मा को हृदय से धन्यवाद दिया और सम्मानसहित विदा किया.

उसके बाद से सेठ ने कभी किसी से बेईमानी नहीं की, कभी किसी को नहीं लूटा बल्कि उसने अपना सम्पूर्ण जीवन सेवा,धर्म और परोपकार में ही व्यतीत किया.

✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
Email:-kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158

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