एक दिन तो जब उनके पास जाना है.
तो मुझे भला किस बात पे भाव खाना है.
इसलिए जब कभी मैं मरघट से गुजरता हूँ.
तब मैं मृतात्माओं से बात करता हूँ.
कहा मैंने उनसे एक दिन उनसे,
"अपनी दुनिया में तो मानव,
अपनों से ही जल रहा है.
अच्छाई की राह त्याग कर,
असत्य के पथ पर चल रहा है.
स्वयं से उसे है संतोष नहीं
काम-क्रोध,ईर्ष्या-द्वेष में जल रहा है.
धर्मी-सत्यवादी,है बड़ा निर्धन-लाचार.
अधर्म का व्यापार फूल-फल रहा है.
न झुकना पड़ जाए कहीं बड़ों के आगे,
देख उन्हें पतली गली से निकल रहा है.
आडंबर-दिखावा ले रहा आकार
और सादापन गल रहा है.
हैवानियत हावी हो रही इस कदर,
कि इन्सानियत का सूरज ढल रहा है.
खैर बताओ तुम्हारे मृत्युलोक में
आजकल क्या चल रहा है?"
उन्होंने कहा-
"चलेगा क्या?यहाँ तो बस आनन्द ही आनन्द है.
नहीं बू नफरत की यहाँ,बस प्रेम की सुगंध है.
हैं व्यर्थ अर्जित संसार के सारे धन.
है क्षणभंगुर मानव का सुन्दर तन.
काम की अग्नि मानव को पथभ्रष्ट बनाती है.
और क्रोध की लपटें स्वयं को ही जलाती है.
माता-पिता,पति-पत्नी सारे झूठे रिश्ते-नाते हैंं.
जो एक दिन समय के बहाव में बह जाते हैं.
रह जाता है उसका नाम,जो करता है केवल अच्छे कर्म.
पर दुर्भाग्य कि प्राण रहते,हम भी न समझ सके थे ये मर्म.
आशा है तुम मेरी बातों का अनुशरण करोगे.
और जीवन में सदैव मानवीय गुणों का वरण करोगे."
✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
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