गुरुवार, 4 मई 2017

||सपनों का शहर||

जिस दिन तेरा स्मरण न किया.
फिर उस दिन,मैं क्या जिया?

बिन देखे,तुझे सुनकर ही,
हृदय तार हुए थे झंकृत.
नाम सुनकर ही तुम्हारा
तन-मन हो जाता था रोमांचित.

और तुम्हें देखा भी कब.
जिस दिन था बस्तर गोंचा पर्व.
उस दिन अपने भाग्य पर मुझे,
सचमुच हुआ था गर्व.

जाने कब से तुम कइयों की,
प्रेरणा स्रोत रही हो.
समय बदला सब कुछ बदला,
पर तुम आज भी वही हो.

बल्कि समय के साथ
तुम्हारा रूप है और भी निखरा.
सर से पैर तक है तुम्हारा,
है अप्रतिम सौंदर्य बिखरा.

मेरे मन को तुम आज भी घेरे हो.
लगता है जैसे जन्मों से तुम मेरे हो.

हो दूर किंतु आकर्षण ने तुम्हारे,मुझे कभी न छोड़ा.
इसलिए अपने नाम को,मैंने तुम्हारे साथ जोड़ा.

जिसने तुम्हें नहीं देखा.
फिर उसने क्या ख़ाक देखा.

मन के आकाश में विचरते तुम,
किसी बादल की तरह.
तेरी खूबसूरती को तो,
मैं आँखों में भर लूँ,
सदा के लिए काजल की तरह .

ऐ वक्त बस थोड़ी देर ठहर.
कि देख लूँ आज,
मैं अपने सपनों का शहर.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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