था मैं मूर्ख,अज्ञानी-अबोध.
करता रहा सतत,ईश्वर का शोध.
मंदिर खोजा,मस्जिद खोजा.
मंत्र-नमाज पढ़े,रखा रोजा.
धूप बत्तियाँ जलाई,चादर चढ़ाए.
पर वह,कभी नहीं आए.
चलता रहा,नित्य यह क्रम.
पर मिटा न,मेरे मन का भ्रम.
मेरा हर प्रयास,जैसे व्यर्थ रहा.
एक रोज सपने में आकर मुझसे,उसने यह कहा.
इधर-उधर क्यूँ कूद रहा है,
अरे ओ मूरख बंदर.
अब तक क्यों न समझ सका तू,
कि मैं हूँ तेरे अंदर.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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