मंगलवार, 9 मई 2017

||मृग मरीचिका||

हाँ है तेरे रूप में,एक अद्भुत आकर्षण.
कि कर दे शत्रु भी,अपना सर्वस्व समर्पण.

तुम्हारे समक्ष जैसे,लज्जित सा दर्पण.
तुमको देख होता,मन को तर्पण.

पर हिय दे दूँ मैं कैसे?
मात्र देखकर,तुम्हारा कञ्चन वर्ण.
क्योंकि हर चमकने वाली वस्तु,
कहाँ होती है स्वर्ण?

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"

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