इस ताप से तो जैसे,
निष्ठुर शिला तक पिघली.
इस भीषण ग्रीष्म में,
तू किधर निकली?
ओह ये सूर्य का,
प्रचंड धूप.
झुलस न जाए कहीं,
तेरा कञ्चन सा रूप.
थोड़ी देर सुस्ता ले,
इस हरित वृक्ष की छाँव में.
कहीं छाले न पड़ जाएँ,
तेरे कोमल पाँव में.
दूसरे दिन भी तो तुम,
कर सकती हो ये काम.
आज तो तुम,
तनिक कर लो विश्राम.
भाई मुझ पर,
यूँ तरस खाने के लिए.
धन्यवाद आपका,
मुझे समझाने के लिए.
विघ्न हो भले चाहे कोई पहाड़ सी,
उसके आगे मुझे झुकना नहीं आता.
मैं बस्तर की बेटी हूँ भैया,
और मुझे रुकना नहीं आता.
✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
📞9407914158
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