मंगलवार, 23 मई 2017

||अंतर्दंद्व||

जाने किस पीड़ा से,
मन है विकल.
कि  इसके भीतर,
मची है उथल-पुथल.
भटकता फिरता है,
यह दर-दर.
विश्राम नहीं इसे,
कहीं भी क्षण भर.
सद्विचार-सत्कर्म,
इसे नहीं भाता है.
पापकर्म में यह,
तत्काल रम जाता है.
आदि से अब तक,
गहन निराशा है मन में छाई.
है यक्ष प्रश्न,कब होगी खत्म,
मेरे भीतर की ये लड़ाई?

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
   📞9407914158

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