सोमवार, 8 मई 2017

||हो आस बस इक तुम ही कृष्णा||

क्या कहूं,मैं निज कथा.
कही न जाय,मन की व्यथा.
हिय को मेरे,न आवे चैन.
मुख से मेरे,न निकले बैन.
न दिन बीते,न  बीते रैन.
दर्शन को नित,तरसे नैन.
घिरा मैं पाप के,गहन अंधकार से.
क्यूँ लगा बैठा नेह,नश्वर संसार से.
अब कौन हरे,मन की तृष्णा?
हो आस बस इक,तुम ही कृष्णा.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"

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