गुरुवार, 4 मई 2017

||श्रम के पुजारी||


हो चाहे कोई कैसा भी मौसम,
वे हर रोज दिखते हैं.
अपने पसीने से वो,
दो वक्त की रोटी लिखते हैं.

न विश्वास इन्हें,किसी जाति या धर्म में.
रहते निमग्न ये,बस अपने ही कर्म में.

कभी हथठेले को ठेलते हुए.
कभी चढ़ाई पर रिक्शे को धकेलते हुए.
और कभी बोरे पीठ पर लादे कष्ट झेलते हुए.

और भी बोझ हैं इनके सर पर,
हमारी ही तरह.

बोझ अपनी बच्चों की पढ़ाई का.
अपने खेतों में में फसल की बुवाई का.
अपनी बहन-बेटियों  के विवाह का.
और आस,एक बेहतर जीवन निबाह का.
है स्वप्न उनका भी एक छोटे से आशियाने का.
इसलिए वे सहते हँसकर,हर दुख जमाने का.

ऐसा नहीं कि इनका कोई,
हँसता-खेलता परिवार नहीं होता.
और उन्हें अपनों से प्यार नहीं होता.
पर दुखद कि इनके लिए कभी,
कोई दिन रविवार नहीं होता.

दिन-रात वे श्रमजल बहाते हैं.
उनके सपने तो पीछे छूट गए,
बस औरों के सपनों को ये सजाते हैं.

मेहनत ही ईश्वर इनका,ये श्रम के पुजारी हैं.
इनके साहस के आगे,कई असंभावनाएँ हारी हैं.

इनके चरणों में तो आलस्य भी शीश झुकाता है.
गर ये रुकें ये तो,जैसे संसार ही रुक जाता है.


हर क्षण चिंता की चिता पर लिटे,
भले ही ये हालात से कितने ही मजबूर हैं.
नमन उन्हें,कि ये तब भी,
एक ईमानदार और मेहनतकश मजदूर हैं.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"

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