तुम्हारा तो है बसेरा,
वही शहर.
जहाँ कारखाने उगलते हैं,
रोज घातक जहर.
ओह वाहनों के,
वो कर्णभेदी कोलाहल.
दिखावे के चकाचौंध,
ईंट-पत्थरों के महल.
तुम्हारा तो रमता है,
मात्र भोग-विलास में मन.
तुम क्या जानो,
हमारा सादा-सरल जीवन.
आओ कभी बैठो,
इस मखमली नदी की रेत में.
आकर, बहाओ अपने साथ पसीना,
इस शुष्क-कठोर खेत में.
बस-कार में बहुत हुआ सफर,
तनिक नौका विहार कर लें.
इन नयनाभिराम दृश्यों को,
सदा के लिए नयनों में भर लें.
आओ कभी तो सुनाऊँ तुम्हें,
कोयल-मैना-पपीहे की बोली.
चार,जामुन,आम,इमली से,
भर दूँ मैं तुम्हारी झोली.
क्या पता तुम्हें,है कितनी शीतलता,
इन पीपल-नीम की छाँव में.
यदि हो सके तो आना
कभी मेरे गाँव में.
मैंने तो कर दी है प्रेषित,
तुम तक अपनी अर्जी.
अब आओ कि न आओ,
वो है तुम्हारी मर्जी.
✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
📞9407914158
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