शुक्रवार, 26 मई 2017

||जगदलपुर में वो 4 दिन||

मंगलवार तारीख 17 मई 2017.समय लगभग 12 बजे.एक आदमी घर पर अपनी पत्नी के साथ सामान बाँध रहा है ब्रश,नहाने-कपड़े धोने के साबुन,कपड़े और एक "तलवार" और "ढाल"भी.क्योंकि उसे कुछ दिनों बाद एक बहुत बड़ी लड़ाई लड़नी है.और उसने ठान लिया है कि इसे वह हर हाल में जीत कर रहेगा.
अपने 3 साल के बेटे को छोड़कर जाने का मन नहीं करता.पर वो जानता है कि फिल्म बाहुबली-2 के एक सँवाद की भाँति कि समय हर कायर को शूरवीर  बनने का एक अवसर अवश्य देती है,वह मोह- माया को दरकिनार कर,हमेशा की तरह अपने माँ के पैर छूकर जगदलपुर के लिए बाइक से निकल पड़ता है,जहाँ उसे लगभग चार दिन तक युद्ध पूर्व तैयारी करनी है.

मैं लगभग 6 बजे जगदलपुर पहुँचा.जिसे मैं अब तक अपने सपनों का शहर कहता आया हूँ.
मैंने एक होटल महावीर भोजनालय में भोजन कर लॉज का पता पूछा.
बस स्टैंड से एकदम ठीक सामने एक होटल का नाम है "होटल प्रिन्स".मैंने विचार किया कि मैं यहीं ठहरुँगा.400 रुपये प्रतिदिन का किराया तय हुआ. मुझे मंहगा लगा पर रहना तो था,क्योंकि मुझे तैयारी के लिए एकांत की आवश्यकता थी.रुपये भी थोड़े कम थे इसलिए सोचा कि मुझे एक समय का ही भोजन करना है.

इसमें मैं ये लाभ देखता था.

1.ऐसा करके  मैं हर रोज लगभग  70 रुपये बचा सकता था.
2.इससे आलस्य भी नहीं आता.
3.और मुझे कोई शारीरिक परिश्रम भी तो नहीं करना था.

खैर पहले दिन तो मैंने आराम करने का ही मन बनाया. मैं अपने खोली में पहुँचा.यह होटल के दूसरे फ्लोर पर थी जिसके ठीक नीचे-आगे बस स्टैंड प्रवेश का तिराहा एकदम स्पष्ट दिखता था.एक छोटा सा कक्ष,दीवार पर टँगा एक आईना,एक छोटा सा दराजसहित टेबल, एक पलंग, दीवाल पर टँगा टी वी जो मेरे काम की नहीं थी,ऊपर एक फैन,बाथरूम,शौचालय सभी रूम के साथ संलग्न थे.साथ ही चौबीसों घंटे जल की सुविधा थी.
रात मैं जब पलंग पर सोया तो लगा"ओह इतने छोटे के कक्ष का इतना अधिक किराया.ये तो बिल्कुल उस कब्र से कुछ ही ज्यादा बड़ा होगा जितना बड़ा कब्र किसी को दफनाने के लिए खोदा जाता है."
मैं उस दिन जल्दी बहुत जल्दी सो गया.

हर दिन की तरह अगले दिन 4 बजे ही उठ गया. मेरे मोबाइल में टुकड़ों में बिखरा अँधेरा,रुक जाना नहीं,तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ,चक दे इंडिया, खो न जाएँ तारे जमीन पर,लक्ष्य को हर हाल में पाना है,कहाँ तक ये मन को अँधेरे छलेंगे जैसे प्रेरक गीत बज रहे हैं.ये सभी गीत मुझे आगे बढ़ने और कुछ करने की प्रेरणा देते हैं.

मैं पाँच बजे तक स्नान कर चुका हूँ.
शायद सामने के गुरुद्वारे से कीर्तन के स्वर मेरे कानों तक पहुँच रहे हैं.मैं दंतेश्वरी की पावन धरा पर बैठा हूँ. उस धरा पर जो लाला जगदलपुरी,प्रवीरचंद भंजदेव, शानी जैसे कर्मयोगियों की कर्मस्थली है. इसी पावन धरा में ही शानी ने शाल वनों का द्वीप,एक लड़की की डायरी, फूल तोड़ना मना है, साँप और सीढ़ी और काला जल जैसी कालजयी रचना लिखी होगी सोचकर मन रोमांचित हो उठा. क्योंकि मुझे भी तो एक दिन उन्हीं के पदचिन्हों पर चलना है.

लगभग 6 बजे टेबल पलंग से सटाकर बंद कमरे में पढ़ाई शुरू हुई. हाथ में कलम भी है. महत्वपूर्ण बिंदुओं को नोट भी कर लेता हूँ.कभी-कभी कोई जानकारी इंटरनेट पर सर्च कर लेता हूँ.
उस दिन फ्रिज से पानी लेने के लिए ही  2-3 बार बाहर निकला होऊँगा.
जब मैं होटल से बाहर निकला मेरा यकीन कीजिए रात के 7 बज चुके थे.
महावीर भोजनालय में एक वक्त का खाना खाकर मैंने फिर रात 12 बजे तक पढ़ाई की,और सो गया.
अगले दिन भी उसी घटना की पुनरावृत्ति हुई.

तीसरे दिन ही मैं 2 बजे बाहर निकला और सूरज देख सका.क्योंकि परीक्षा के 1 दिन पहले मुझे एग्जाम हाल तक पहुँचकर आश्वस्त होना था.बस्तर हाई स्कूल के ठीक सामने सीधे जाकर,जैन मंदिर से लगी गली में,ओसवाल भवन के पास ही एक कम्प्यूटर ट्रेनिंग सेंटर में मेरी सहायक प्राध्यापक  की ऑनलाइन परीक्षा होनी थी.परीक्षा स्थल का मुआयना करके मैं  फिर "होटल प्रिन्स" वापस पहुँचा और मैंने फिर से  12 बजे तक पढ़ाई की.

दिन शनिवार,तारीख21 मई को युद्ध का दिन भी आ गया,जिसके लिए मैंने  लगभग तीन साल प्रतीक्षा की थी. सबेरे 4 से 8 बजे तक पढ़ाई की. फिर परीक्षा स्थल के लिए रवाना हुआ. मुझे मेरे और भी साथी मिले जो हिन्दी विषय से सहायक प्राध्यापक परीक्षा की तैयारी कर रहे थे. दरअसल उस दिन छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग द्वारा सहायक प्राध्यापक की ऑनलाइन परीक्षा राज्य के सभी संभाग मुख्यालयों में ली जानी थी.मैंने सोचा हर दिन की भाँति आज भी भोजन बाद में करूँगा.आँखों में कई रातों की नींद और कुछ कर दिखाने का सपना  था.

11:00 बजे परीक्षा शुरु हुई.ऑनलाइन परीक्षा मेरे लिए एक नया अनुभव था. मैं खुद को हिन्दी का तीसमार खाँ समझता था.पर परीक्षा कक्ष में मैं उस समय अपने आंसू नहीं रोक सका जब मैंने देखा कि जितना कुछ मेरे द्वारा पढ़ा गया था उसमें से लगभग 30% प्रश्न ही हिन्दी की परीक्षा में आए  थे.
परीक्षा समाप्त होते-होते मेरे मन में गहन निराशा घर कर गई थी.मेरे सपने चूर-चूर हो चुके थे.जिस उम्मीद के साथ मेरे माता-पिता और पत्नी ने मुझे घर से विदा किया था वह उम्मीद टूटता नजर आ रहा था.मैं किसी से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था.ऐसा ही होता है जब हम केवल एक ही परिणाम के बारे में सोचते हैं.मनुष्य को चाहिए कि वह सफलता की उम्मीद तो करे,साथ ही असफलता के सत्य को स्वीकार करने के लिए भी वह तैयार रहे.

खैर कुछ भी हो.खाना खाकर मैं होटल में मन भर सोया. शाम 4 बजे निराशापूर्वक मैंने समान समेट लिया और होता प्रिन्स को अलविदा कहा.मैं क्या करूं?खुद से ही इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ रहा था.
कुछ क्षण में मुझे उसका जवाब भी मिल गया.
वापस आते हुए मैंने देखा कि बस्तर के पास एक सड़क पर एक व्यक्ति की बाइक ट्रक से टकरा कर चूर-चूर हो गई थी और वह व्यक्ति पेट के बल सड़क के किनारे मृत पड़ा था.ये कुछ देर पहले की ही दुर्घटना थी.
आत्म संवाद हुआ.

"अशोक!ये आदमी देख रहे हो?"

"हाँ!देख रहा हूँ. "

तो कहो,ये श्रेष्ठ है या तुम?

"निस्सन्देह मैं."

"कैसे?"

"क्योंकि प्राण चले जाने के कारण इसके कुछ भी करने की सारी संभावनाएं समाप्त हो गईं,और मैं जीवित हूँ इसलिए अब भी मैं संघर्ष कर विजय पा सकता हूँ."

तुमने ठीक समझा अशोक! मुर्दा केवल वही नहीं है जिसमें जीवन नहीं है बल्कि वह भी मृत ही है जो मन से हारकर,स्वयं को कमजोर समझ बैठता है.इसलिए तुम ये न समझो कि सब खत्म हो गया.उठो और आगे बढ़ो."

मैं फिर से आशाओं-प्रसन्नताओं से भर उठा.

कल ही रात10:30 को एक मित्र से पता चला कि सहायक प्राध्यापक परीक्षा का परिणाम घोषित गया है.और ईश्वरकृपा से  साक्षात्कार के लिए मेरा भी चयन हुआ है.मैं उस पद के लिए चुना जाऊं,या न चुना जाऊं,ये तो बाद की बात होगी पर साक्षात्कार तक पहुंच पाने की बात भी मेरे लिए एक सुखद स्वप्न से कम नहीं है.

माँ दंतेश्वरी की कृपा और आप सबका प्यार यूँ ही मिलता रहे.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
📞9407914158

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