बहुत हो गया,अब एक पग भी,
आगे न धरना.
मेरा विकराल-रौद्र रूप देखोगे,
तुम वरना.
है ये धरती सदियों से,
रजत-स्वर्ण-रत्न मंजूषा.
पर लोभियों ने इसे,
केवल और केवल चूसा.
हम यहाँ के मालिक,
जब सब कुछ है यहाँ अपना.
फिर विकास की बात अपने लिए,
क्यों है महज एक सपना.
मेरे अपने जी रहे हैं,
आज भी विषम परिस्थिति में.
आखिर क्यों नहीं हुआ सुधार?
तनिक भी उनकी स्थिति में.
कौड़ी-कौड़ी जोड़ने,
पसीना कोई और बहाता है.
कुर्सी में बैठा कोई और,
मुफ्त की मजे उड़ाता है.
कब तक जियेंगे हम,
दीन-हीन,उपेक्षित जीवन?
दिन रात परिश्रम करके भी,
क्या हम बने ही रहेंगे निर्धन?
केवल निजता में ही,
हम खोए हुए हैं.
अफसोस कि मेरे भाई,
अभी तक सोए हुए हैं.
पर है ये विश्वास मुझे,
कि इक रोज तो ये जागेंगे.
शोषक,लुटेरे,अत्याचारी उसी दिन,
ये धरा छोड़कर भागेंगे.
आओ हम सब मिलकर,
नव परिवर्तन का शंखनाद करें.
नर हैं हम,कुछ करें ऐसा,
कि आने वाली पीढ़ियाँ हमें याद करें.
✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
📞9407914158
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