शनिवार, 30 जून 2018

||आई वर्षा-मन हरषा||

मेघों से घिरा रवि उदास हुआ.
दिन में रात्रि का आभास हुआ.
आकाश पर घिर आए काले घन.
डोलने लगे वृक्ष ऐसी चली पवन.
चमक रही चंचल चपला प्रतिक्षण.
गरजे मेघ हो रहा ज्यों भीषण रण.
अंबर से बरसे जल बिंदुओं के  तीर.
थी तप्त,हुई दूर आज धरा की पीर.
जल से भर गए हर खेत नदी-नाले  ताल.
मत्स्याखेट में मग्न धीवर फेंकते अपने जाल.
हो गए आरंभ मेंढक-झींगुर के मीठे गान.
ईश्वर की बरसी कृपा हर्षित हुआ किसान.

✍अशोक नेताम

गुरुवार, 28 जून 2018

||माँ ही समझे माँ की पीड़ा||

क्रोध और प्रतिशोध की अग्नि में जल रहे अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पाँचों पुत्रों को सोते समय जलाकर मार डाला.

क्रुद्ध पांडवों ने उसे बंदी बनाकर द्रौपदी के समक्ष प्रस्तुत किया.पांडव अविलम्ब हत्यारे अश्वत्थामा का सिर धड़ से अलग करने को तत्पर थे.

लेकिन पांचाली ने कहा "-पुत्र की मृत्यु पर एक माता को कितना कष्ट होता है,ये मैं भली-भाँति जानती हूँ.अश्वत्थामा की मृत्यु पर गुरु द्रोणाचार्य की पत्नी को भी असह्य पीड़ा होगी.इसलिए गुरु और गुरु माता के ऋण को समझते हुए इसे जीवित छोड़ दो."

पांडवों ने अश्वत्थामा को जीवनदान दे दिया.

बुधवार, 27 जून 2018

||प्रकृति के उपहार||

वर्षाकाल हर किसी के लिए अनगिनत खुशियाँ लेकर आता है.खेती-किसानी करने वालों या गाँववासियों के लिए तो बरसात का मौसम और भी महत्वपूर्ण हो जाता है.आषाढ़ महीने में पहली बारिश के साथ ही धरती हरित वस्त्र धारण कर मुस्कराने लगती है.बेहतर फसल की आस में कृषक अपना सर्वस्व झोंक देता है.इस समय ऐसे कई नए पौधे व घास जंगलो,खेतों व बाड़ियों में स्वत: ही उग आते हैं,जिनसे स्वादिष्ट शाक-भाजी बनाई जाती है.यदि आप गाँव में हैं तो बगैर  1रुपया भी खर्च किए कई साग भाजियों के जायके का लुत्फ उठा सकते हैं.
आइए हमारे आस-पास में दिखने वाले कुछ ऐसी ही वनस्पतियों पर नजर डालें....
1.चाटी भाजी:-ये प्राय:जुते हुए खेतों में उगकर फैल जाते हैं.इसकी पत्तियाँ चींटी के समान ही बहुत ही छोटी-छोटी और पंक्तिबद्ध होती हैं,इसलिए इस चाटी भाजी कहा जाता है.इसके पत्तों को डण्ठलसहित तोड़ लिया जाता है.इसे उबालकर अलग कर लिया जाता है जिससे इसका कसैलापन दूर हो जाता है.प्राय: इसे दाल के साथ पकाया जाता है.
2.चरोटा भाजी:-चरोटा भाजी से शायद ही कोई अनभिज्ञ हो.आजकल ये सर्वत्र उगी हुई नज़र आती है.इसकी कोमल पत्तियों को उबालकर और पानी अलग करके फिर लहसुन-सूखी मिर्च का तड़का लगाकर क्या स्वादिष्ट सूखा साग बनाया जाता है.साबुत उड़द के साथ ये भाजी तो और भी मजेदार बन जाती है.   
3.केना भाजी:-केना कोमल पत्तियाँ भी आजकल लहरा उठी है.ये एक घास ही है,क्योंकि दूब (घास)की तरह ही इसमें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर गाँठे होती हैं.इसके बारे में मैंने अपनी माँ से ही जाना है.इसकी पत्तियों को दाल के साथ पकाया जाता है.
4.गुड़काड़ भाजी:-गुड़काड़ भाजी खेतों में या बाड़ी में पनपती हैं.शुरु में इसका रंग हरा होता है परिपक्व होकर ये थोड़ी लालिमा धारण कर लेती है.इसकी पत्तियों से औरतें बड़ी स्वादिष्ट साग बनाती हैं.इसका स्वाद लगभग चेंच भाजी की तरह होता है.
5.खेड़ा(जड़ी भाजी):-इसे प्राय: जरी भाजी के नाम से जाना जाता है.बस्तर में यह खेड़ा भाजी कहलाता है.ये अपने आप उग आता है.इसके बीज दुकानों में भी मिल जाते हैं.इसकी पत्तों से सब्जी बनती है.साथ ही इसके तने का उपयोग भी शाक बनाने में किया जाता है.इसके तने का "अम्मट" भी बड़ा ही स्वादिष्ट होता है.
6.सिलियारी भाजी:-बस्तर में सिलियारी भाजी भी बड़े चाव से खाई जाती है.इसके कोमल पत्तों को दाल के साथ पकाकर सब्जी बनाई जाती है.
  इस तरह की और भी कई वनस्पतियाँ हैं,जिनकी खुशबू से रसोईघर महक उठता है.
प्रकृति हमारी माँ है.उसके स्नेह रस से हमारा जीवन सिंचित है.प्रकृति के उपकारों को स्मरण रखते हुए हमें उसे सुन्दर-संतुलित बनाए रखने का हसंभव प्रयास करना चाहिए.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||बेचारा पंछी||

छोड़कर अपना देश.
पंछी जा पहुँचा परदेश.
सोचा उसने कि हजारों मील दूर,
मिलेगा उसे बेहतर भोजन,सुन्दर ठिकाना.
पियेगा वह झर-झर निर्झर का मीठा जल.
और मिलते भी हैं वहाँ,
उसे बड़े रसीले फल,
पीता है वो रोज झरने का पानी.
पर सुख की चाहत में,
उनके अपने उनसे बिछड़ गए.
भले ही वो आज,
मुलायम घास के घोंसले पर सोता है.
पर अपनों को याद करके,
वो वहुत रोता है.
वो सोचता है कि जिस माँ-बाप ने
उसे उड़ना सिखाया.
उन्हें छोड़कर वो,
यहाँ किसलिए चला आया?
आह गाँव में सड़क के किनारे खड़े,
जामुन के उस कोटर में कितना आनन्द था.
जिससे झाँककर देखा करता था
वो बच्चों को स्कूल जाते हुए.
सिर पर बोझा रखे हँसती-बतियाती,
हाट-मंडई जाती हुई औरतें,
कितनी प्यारी लगती थीं.
धान बोने से लेकर काटने तक,
गाँव में त्यौहारों का वो सिलसिला.
माटी तिहार,गोंचा,जत्रा,अमुस,नवाखाई,
दसराहा,दियारी वो कभी सभी का साक्षी था.
उसके दिल का तार फिर से,
अपनी मिट्टी के साथ जुड़ गया.
अब पल भर भी रोक न सका वो खुद को,
पंख खोला और अपने देश को उड़ गया.

अशोक नेताम "बस्तरिया"

||मण्डई||

गाँव मण्डई की कल्पना करते ही मन एक नए लोक में पहुँच जाता है.देवी-देवता आरूढ़ फूलों से से सज्जित पुजारी-सिरहा,डोलियाँ,आंगा,लाट,छत्र के अलावा कई तरह की दुकानें,झूले,रंग-बिरंगे गुब्बारे-कपड़े,खिलौने आदि मन मस्तिष्क में अनायास ही प्रकट हो जाते हैं.
पुल के चबूतरे पर नए कपड़े पहने कुछ बच्चे लाइन से बैठे थे.तीन बच्चों के गलें में सीटियाँ टँगी थी.एक वच्चे के हाथ में खिलौना मगरमच्छ व कुरकुरे का पैकेट था.उन्हें देखते ही मझे ये आभास हो गया कि निकट के गाँव में मण्डई हो रहा है.
हमारे पहुँचते तक मण्डई अपने अंतिम पड़ाव पर था.
यहाँ(दन्तेवाड़ा जिला)की मण्डई और हमारे गाँव के आस पास(कोण्डागाँव जिला) होने वाली मण्डई में मुझे कुछ भिन्नताएँ नजर आती हैं.
1.यहाँ देवी-देवताओं और परम्पराओं का इतना अधिक महत्व है कि बहुत कम ही दुकानें सजतीं हैं.हालाँकि हमारे आस-पास के मेलों में भी देवी-देवता आकर्षण के केन्द्र होते हैं पर लोग मेले में आए नई-नई वस्तुओं की ओर अधिक आकर्षित होते हैं.
2..यहाँ युवतियों पर भी देवियाँ आरूढ़ होती हैं.
3.यहाँ मण्डई में ढोल वाद्य यंत्रों के साथ हाथ में हाथ लेकर सैकड़ों की संख्या में युवक-युवतियों के नाचने की परंपरा है.
4.यहाँ लोग मण्डई में सगे संबंधियों मित्रों के साथ बैठकर गोरगा(सल्फी) का सेवन करते हैं.उनके बच्चे भी इसमें शामिल होते हैं जोकि बहुत दुखद है
वैसे हमारा जीवन भी एक मण्डई यानी कि मेला ही है,जिसमें हम कर्म रूपी व्यापार कर रहे हैं.कभी लाभ होता है और कभी हानि भी हो जाती है.जो किसी नफा-नुकसान की परवाह किए बगैर अपना कार्य पूरी लगन व ईमानदारी से करता है वही एक दिन एक सफल व्यक्ति सिद्ध होता है.

✍ अशोक नेताम

||आओ पेड़ लगाएँ||

प्रकृति ने दिए हमको,
कई तरह के उपहार.
पर हमने किया सदा,
उसका ही अपकार.
पर्यावरण को झोंक दिया,
हमने विकास के दाँव में.
मारी कुल्हाड़ी जानबूझके,
हमने अपने ही पाँव में.
कोई बड़ी समस्या,
खड़ी न हो जाय कहीं आगे.
न सोए रहें हम यूँ ही,
अपनी गहन निद्रा से जागें.
प्रकृति पुत्र होने का,
हम अपना फर्ज निभाएँ.
आओ आज कम से कम,
एक पेड़ तो जरूर लगाएँ.
✍अशोक नेताम

||आमचो लोहा-आमि चे कमया||

राति होली कि बरला,
डोंगरी उपरे रंग-रंग चो लाइटमन.
लागेसे असन,जसन अकास ने निकरला
कई किसम चो तारामन.
चोबीस घंटा चीरसत
बड़े-बड़े कलमन,
लोहा डोंगरी चो देंह के.
किंरडा होलो देंह चो मासमन के लतुन,
रेलगाड़ी रोजे गरजते नयसे जपान.
आमचो ओग्गय रतो कारन,
आजि इलीसे असन समया.
आमचो आय लोहा मान्तर,
आमि चे होलूँसे बे कमया.
आज बले कएक सुबिधा नी मिरे,
इता चो माड़िया,मुरिया,गोंड के.
आमि बस्तरिया लोग दखतो ने आसुँ,
सादय एचो-हुनचो टोंड के.

अशोक नेताम "बस्तरिया"

||गाँवों में पत्तों का उपयोग||

गाँवों में रहने वाले लोग आज भी प्रकृति के सान्निध्य में जीवन-यापन करते हैं. वनों से दातौन,पान,जलाऊ लकड़ी,खाद्य पदार्थ व कई तरह के वनोपज प्राप्त होते हैं.पेड़-पौधों के साथ उनके रीति-रिवाज,मान्यताएँ और परम्पराएँ जुड़ी हुई हैं.वनों के बगैर वे जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते.बस्तरवासी पेड़ों के पत्तों से कई कलात्मक व उपयोगी वस्तुएँ बनाते हैं.आइए ऐसे ही कुछ वृक्षों के बारे में जानें.

1.सरगी:-बस्तरवासी साल को सरगी व गोंडी में कहते हैं.यह सर्वाधिक महत्व का पेड़ है.इसके हरे हरे साबुत पत्तों से दोने-पत्तलों का निर्माण किया जाता है.पत्तों को बाँस के सीकन(सींक)की सहायता से जोड़कर  पत्तल तैयार किया जाता है.गाँवों मेंअधिकांश अवसरों पर  पत्तलों में ही भोजन किया जाता है.सरगी पान में ठंडा पेज या पानी पीने का आनन्द भी अद्भुत होता है.

2.सिंयाड़ी:-यह पेड़ भी जंगलों में बहुतायत पाया जाता है.ये बेलयुक्त पौधा है और इसके पत्ते कचनार के पत्तों की तरह नजर आते हैं पर आकार में थोड़े बड़े होते हैं.छतोड़ी(बाँस से निर्मित हस्तमुक्त छाता) के निर्माण में इसी के पत्तों का उपयोग किया जाता है.साथ ही इसके पत्तों से चिपटा भी बनाया जाता है.चिपटा एक बर्तन सरीखा पात्र होता है जिसमें किसान दलहन या अन्य फसलों को संग्रहित-सुरक्षित करके रखता है.

2.फरसा:-ढाक या टेसू का स्थानीय नाम फरसा है.ढाक के तीन पात होते हैं.इसके पत्ते बड़े और चौड़े होते हैं.ग्रामवासी जब कच्ची मिट्टी की चारदीवार आदि खड़ी करते हैं तब दीवार के ऊपर इसके पत्तों कों मिट्टी से इस तरह दबा देते हैं कि दीवार के दोनों ओर पत्तों का कुछ भाग निकला रहे.बरसात में दोनों किनारों से पानी बह जाता है,जिससे दीवार जल्दी गीली नहीं होती मजबूती के साथ खड़ी रहती है.

4.छिन्द:-छिन्द(खजूर) के पत्तों का कलात्मक उपयोग सर्वविदित है.बस्तर में दूल्हा-दुल्हन इसी से निर्मित महुड़(सेहरा)धारण  करते हैं.हल्दीयुक्त जल में भीगकर यह सुनहरे रंग का हो जाता है.महुड़ पनारा जाति के भाइयों द्वारा तैयार किया जाता है.छिन्द के शीर्ष स्थल के कोमल पत्तों से महुड़ बनाया जाता है.इसके पत्तों से अन्य कई तरह की कलात्मक चीजें निर्मित की जाती हैं.
छिंद की कुछ जंगली प्रजातियाँ भी होती हैं जो झाड़ियों के रूप में पाई जाती हैं,जिसके पत्तों से बाहरी(झाड़ू)बनाया जाता है

5.आम:-आम के पत्तों का उपयोग धार्मिक कार्यों व उत्सवों में तोरण की तरह किया जाता है.साथ ही कलश में इसके पत्तों को सजाया जाता है.

इसी प्रकार बड़(बरगद),महू(महुआ)आदि के पत्तों का उपयोग भी दोने पत्तल बनाने में किया जाता है.

कुछ  लोगों का मानना है कि भौतिक वस्तुओं में ही सुख है ये बात सही नहीं है,क्योंकि प्रकृति के अंक(गोद)में जो आनन्द है वो आनन्द और कहीं नहीं है.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||मचो गोट||

जेठ चो महीना चलेसे नौतप्पा ने जमाय झन चो बाय उमजलिसे.काय काज कि एदाँय पूरे चो खपरा बीती घर मन हाजला आउर सबाय सिरमिट सीट बीती छावन बनाला.राति बेरा बले देंह पसना-पसना होउन जायसे.लकलक लकलक घाम बेरा रुक साँय ने बसलोने जीव के खुबे अराम मिरेसे.मान्तर आमचो सुख-दुख संगवारी रुक-राई मनके बले आमि धीरे-धीरे सारते जाउन्से,ए निको नुहाय.

अदाँय पूनी होलो ने असाड़ मइना समेदे.बादर गरजुन गरजुन पानी घसरायदे अरु सुरु होयदे खेती-कमानी.एबे किसान भाई मन गोबर खत आपलो-आपलो बेड़ा ने अमराला.आउर कएक झन दादा मन धान बुनुक बले मुरयाला.अदाँय 5-6 मइना किसान मन के पत्ताय नी फाबे.नांगर,बियासी,थरहा मतातो,थरहा लगातो,निंदाई-कटाई ले धरुन मंजई होत ले काकय सुगुम नी लागे.

बरसा होलोने रुक राई हरिक होउन जासत.पसु जानवर मन के नंगत चारा मिरेसे.खमन ने काँदा,भाजी,बोड़ा,फुटु असन कएक परकार चो तीजमन मिरसत जेके आमि साग रांधुन खाउन्से.अइ बेरा आमि गोंचा,अमुस,नवाखई,दसराहा,दियारी असन तिहार मन बले मानुन्से.

जीवना अमदाहा हुसनय चे नी रय.घाम ले बरसा,अरु बरसा ले सीतकार अएसे.हुसनय चे मनुक जीवना ने सुख-दुख एते रयसे.मान्तर सुरता राखा सुख पाउन ठाब ने रतो आउर दुख मिरलोने गागतो नुहाय.सबाय संग मिलुन-मिसुन अरु हरिक ने जीवना जीवतोर आय.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||बस्तर के पेड़-पौधे||

शुरु से ही मानव और प्रकृति का बहुत गहरा नाता रहा है.प्राकृतिक घटनाओं से सीखते हुए वह सतत् विकास की दिशा में अग्रसर है.यह बात और है कि विकास की इस दौड़ में वह धीरे-धीरे प्रकृति से विमुख होता जा रहा है.जंगल काटकर खेत और गाँव और गाँव शहर बनते जा रहे हैं.पर हमारे बस्तर के गाँवों में रहने वाले लोग अब भी प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से अपना जीवन यापन करते हैं.उनके घर के आस पास ही कई ऐसे पेड़-पौधे पाए जाते हैं जिसका उपयोग वह साग-सब्जी आदि बनाने में करते हैं.यहाँ के जंगलों में  इतने प्रकार की सब्जी-भाजी पायी जाती है कि जितनी शायद ही कहीं और पायी जाती होगी.
आइए कुछ ऐसे ही वनस्पतियों से में आपका परिचय कराता हूँ जिसका उपयोग बस्तरवासी अपने भोजन में करते है़.इनके छाया चित्र भी संलग्न हैं.
1.भेलवाँ भाजी:- यह एक तरह का घास ही है जो जंगल में मैदानी जगह पाया जाता है.यह बहुत ही छोटा होता है.इसके चार चमकदार पत्ते चारों दिशाओं में फैले होते हैं.गर्मी में यह नहीं दिखता पर बरसात के दिनों में ये जंगलों में स्वमेव उग आते हैं.इसके पत्तों की बहुत स्वादिष्ट भाजी बनती है.पर कुलथी या उड़द की दाल के साथ ये और भी आनन्ददायक बन जाता है.
2. बोदी भाजी:-यहा बेलयुक्त पौधा है.इसकी लता थोड़ी सफेदी लिए होती है.पेड़ से लिपट कर ये दूर तक फैल जाती है.इसके पत्तों को तोड़कर क्या मस्त साग बनाया जाता है.और एक खास बात नमक मिर्च के साथ इससे बड़ी स्वादिष्ट पान रोटी (पत्तों के बीच दबाकर अंगार पर बनी रोटी )बनाई जाती है.
3. डोटो लाहा:-इसका नाम मैंने अपनी माँ से ही सुना है.हल्बी में लाहा यानी कि लता होता है.यह हल्का काँटेदार बेलयुक्त पौधा है.पर काँटे बिल्कुल हानिरहित और जमीन से 2-3 बित्ते की ऊँचाई तक पाया जाते हैं.शेष उपर का हिस्सा कोमल होता जाता है.मुख्य लता पत्तों के जोड़ के स्थान से धागेनुमा सहायक वल्लरियाँ  निकली हुई होती हैं जिससे यह बड़ा सुन्दर दिखाई पड़ता है.इस लता के ऊपरी कोमल भाग को आग में भूनकर बड़ी लज़ीज चटनी बनाई जाती है.
4.पेंग भाजी:-पेंग से हर बस्तरिया परिचित है क्योंकि इसका संबंध बस्तर गोंचा से है.बाँस से बनी तुपकियों मे इसी के फल का उपयोग किया जाता है.पर इसकी भाजी आपने शायद ही खाई होगी.पेंग में फूल लगने के तुरंत बाद जब हरे-हरे फल एकदम छोटी अवस्था में होते हैं तब इसे तोड़कर बड़ी स्वादिष्ट सब्जी बनाई जाती है.
5.टोरा:-ये एक ऐसा पेड़ है जिसे दो नामों से जाना जाता है.फूल लगने पर इसे महुआ और फल लगने पर टोरा या टोरी का पेड़ कहा जाता है.फूल से शराब व बीज से तेल निकाला जाता है ये तो सब जानते ही हैं,पर लोग इसके फल के बीच के बीज वाले हिस्से को हटाकर और उपरी हिस्से को छीलकर साग बनाते हैं ये स्वाद थोड़ा कसैला होता है.आजकल नए-नए साग-सब्जियों की आवक से टोरे की सब्जी प्रचलन से लगभग बाहर हो गई है.
6.करमत्ता:-इसका पेड़ अब बहुत कम नजर आता है.करमता के फल का साग बहुत प्रसिद्ध है.ग्रामीण इसे बाजार में विक्रय करते हैं.मई-जून में पेड़ पर फल जाते हैं.जिसके ऊपरी आवरण को हटाकर इसकी सब्जी बनाई जाती है.इसके फके फलों की सुगंध से तो सारा वातावरण महक उठता है.
प्रकृति हमारी माता है.जिस प्रकार पुत्र के पैदा होते ही माता के वक्ष से अमृत की धार स्वत: फूट पड़ती है उसी प्रकार प्रकृति ने अपनी संतानों के जीवन को सरल व सुखमय बनाने के संसाधन पैदा किया है.पर कभी-कभी सन्तान अपने माँ तक को भूल जाता है.जो कि दुखद है.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||सुख का आधार||

बहुत पुरानी बात है.किसी देश का राजा एक निर्धन  के घर पहुँचा.

"आइए राजन!हमारा सौभाग्य कि आपके पाँव हमारे झोपड़ी पर पड़े."

''मैं आपसे पारिवारिक जीवन में सुख का रहस्य जानने आया हूँ."

ठीक है महाराज.जो मुझे ज्ञात है मैं अवश्य कहूँगा.पर पहले आपको  इस निर्धन की कुटिया में हमारे साथ भोजन करना पड़ेगा."

कंगलू आदिवासी है.वनों  से उनका गहरा नाता है.जहाँ वह अपनी पत्नी और लगभग डेढ़ साल की के बेटे के साथ रहता है.वे दिन भर जंगल की खाक छानते हैं और फल-फूल-पान -लकड़ी आदि संग्रह कर जीवन यापन करते हैं.झोपड़ी में भी उनका जीवन आनन्दमय था. राजा बड़ा आश्चर्यचकित था कि अभावग्रस्त होने के बाद भी इनका जीवन किस प्रकार सुखमय है.और उसके पास जैसे सब कुछ होते हुए भी मानो कुछ भी नहीं है.

मटके के जल से हाथ धोकर महाराज कमलू के साथ चटाई पर बैठ गए.

पत्नी ने साल के पत्तों से बने दोने पत्तलों में भोजन परोसा.सहजन की भाजी बनी थी.साग कैसी बनी है? खाने के दौरान पत्नी के पूछने पर कमलू बोला-बहुत ही स्वादिष्ट बनी है.पर राजा को भोजन थोड़ा अरुचिकर प्रतीत हुअा.

खाना खाने बाद विश्राम करते हुए राजा ने कंगलू से के आगे अपना प्रश्न दोहराया.

"महाराज आपको भोजन पसन्द आया?"

"बढ़िया थी बस थोड़ी नमक कम रह गई.आपने फिर भी भोजन की प्रशंसा क्यों की?"

"मैं जानता हूँ कि मेरी पत्नी भी सुबह से रात तक व्यस्त रहती है.ऐसे में वह साग में नमक लगाना भूल जाए और मैं उनसे इस बात पर लड़ाई करुँ ये उचित नहीं है.मेरी पत्नी ने मेरी आर्थिक स्थिति जानते हुए कभी भी अपनी जिद मुझ पर नहीं थोपी.कभी कभी हम पेज-पसिया आदि पीकर ही गुजारा कर लेते है.हे महाराज मेरे विचार से दाम्पत्य जीवन के सुख का आधार है प्रेम,संतोष और एक दूसरे पर विश्वास.ये हैं तो जीवन जैसे स्वर्ग है."

राजा को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

(तस्वीर:-इन्टरनेट से)

||धीर ने खीर||

"आइग के अजिक फुकुन देस रे बेटा,नाहले भात लोकटी छाँडेदे.".-आया बाहरी गाथते आपलो बेटा के बलली.हुन चूल्हा ने भात मँडउ रहे.लेका चो फुकतो के आइग बुतली.
"आया मैं फुकलें तो मान्तर आइग तो बुतली."बेटा बललो.
"हुसन नुहाय बेटा!अजिक धीरे-धीरे आउर लाम साँस धरुन फूक तेबे आइग धरेदे."आया बलली.
लेका हुसने करलो आइग तुरते धरली.
आया बलली-"बेटा सनसार में काईं तीज उबुकनाय नी मिरे.काँई बले काम धीर धरुन मिहनत करलोने ने पुरा होयसे.बलसत नइ कि-धीर ने खीर."

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
(फोटो:-इन्टरनेट से)

||वो शख़्स||

रास्ते पर खड़े बच्चों को देख मेैंने बाइक रोक दी.
मेरे रुकते ही हाइवे पर 8-10 साल के 5 लड़के-लड़कियों ने जिनके हाथों में चार,कुसुम,जामुन और छिन्द से भरे दोने थे,मुझे घेर लिया.वे बच्चे मासूम सूरत-साँवली देह और कुछ जगहों से फटे-मैले कपड़े पहने हुए थे.दो लड़कों ने स्कूल ड्रेस पहन रखा था.

मैंने एक जामुन का एक दोना ले लिया.

"दस रुपया दोना."-उन्होंने दाम बताया.

20 रुपये का नोट देकर मैं उनसे रुपये लौटाने की बाट देखने लगा.पर उनके पास चिल्लर नहीं थे.पैसे वापसी की आस में मैं वहीं ठहर गया.लगभग 10 मिनट बाद वहीं एक कार भी आकर रुकी.

कार से एक नौजवान उतरा.
उसने छिन्द के पाँच दोने खरीद लिए और पाँच सौ रुपये का एक नोट बच्चों की तरफ बढ़ाया.
उसने बच्चों से कहा-"बेटे तुम्हारे पास चिल्लर नहीं है.कोई बात नहीं.मैं तुमसे एक प्रश्न पूछता हूँ.यदि मुझे सही जवाब मिला तो सारे रुपये तुम्हारे."

"पूछिए."बच्चों की आखें खुशी से चमक उठीं.

"मैंने 50 रुपये के छिन्द खरीदे और 500 रुपये का नोट दिया.बताओ मुझे कितने रुपये वापस मिलेंगे?"

"चार सौ पचास." सबने एक साथ जवाब दिया.
अब उनके मुख पर विजयी मुस्कान थी.

"अब सारे रुपये तुम्हारे.इसे चिल्लर कर आपस में बराबर बाँट लेना.माता-पिता अगर शराब पीते हैं तो उन्हें रुपये बिल्कुल भी मत देना."वह बोला.

"जी सर."बच्चे खुशी से चिल्लाए.

"आपने ऐसा क्यों किया?-मैंने पूछा.

"क्योंकि मैं इनकी गरीबी का दर्द समझ सकता हूँ.अपनी परिश्रम से अर्जित धन से जीवन यापन करने वाले ये लोग कभी भी  अपना ईमान नहीं बेचते.अभाव में जीना क्या है,ये मैं अच्छी तरह जानता हूँ.क्योंकि मैंने भी बचपन में इनके तरह का ही जीवन जिया है.इनके बीच रहते हुए आज मैं अपना आर्थिक स्तर सुधार पाया हूँ.ऐसे में मैंने इनके चेहरे पर थोड़ी सी खुशी लाकर बहुत बड़ा तो नहीं पर दिल को तसल्ली मिलने लायक काम तो जरूर किया है."

"आपका नाम क्या है?शायद वर्तमान में आप किसी बहुत बड़े पद पर हैं?-मैंने पूछा.

"मैं ये सब नाम के लिए नहीं करता.इसलिए नाम तो मैं नहीं बताउँगा.और रही बात पद की,तो कोई भी व्यक्ति पद से नहीं बल्कि अपने कर्मों से बड़ा होता है.अच्छा दोस्त चलता हूँ."
कहकर वह कार स्टार्ट कर आगे निकल गया.

मैंने बाकी बचे 10 रुपये से छिन्द का एक और दोना खरीद लिया और बाइक स्टार्ट कर आगे बढ़ गया.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||पालनार का रास्ता||

सच तुम्हारी सुंदरता से,
मैं पड़ गया था धोखे में।
काली ही सही मगर,
कितनी चिकनी थी तुम्हारी देह।
तुम्हारी खूबसूरती पर चार चाँद लगाते थे,
आस-पास खड़े कुसुम,आम,जामुन के पेड़।
तुमसे होकर बहता था चुपचाप,
सफेद अर्जुनवृक्षों के जड़ों को छूता हुआ,
बिल्कुल बर्फ की तरह ठंडा
और मटमैला मदाडी़ नाला.
जिसकी जल लहरियों संग खेलती थीं,
पेड़ों की के बीच से आती हुई
सूरज की सुनहरी किरणें.
तुम से होकर आती थीं
शहरों तक आदिवासी औरतें-बहनें,
शहर में काम करने,
लकडियाँ बेचने या मंडिया पिसवाने।
तुमसे ही होकर जाते थे शिक्षक,
अंदरूनी गांवों में,ज्ञान का प्रकाश फैलाने।
पर किसे पता था कि तुमने अपने सीने में,
मौत का सामान छुपा रखा था।
इससे पहले कि कोई संभल पाता,
सब कुछ ख़त्म हो चुका था।
और अब,जब मैं जान चुका हूं तुम्हारी हकीकत,
मेरे दिल में तुम्हारे लिए,
वो पहले जैसा प्यार कैसे जन्मेगा?
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
(तस्वीरें इन्टरनेट से)

||इन्सानियत||

अमलतास का वृक्ष सुनहरे फूलों से लदा हुआ था।उनकी शाखाओं में एक भी पत्ती नहीं थी,पर वह मुस्कुरा रहा था।पास खड़े  दूसरे वृक्ष ने अमलतास से पूछा-"इस भीषण गर्मी में जबकि तुम्हारे पास हरे-हरे पत्ते भी नहीं है जिनकी सहायता से पेड़ अपना भोजन बनाते हैं,तुम इतने प्रसन्न हो।कैसे?"
अमलतास ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया-"मैंने अपने पत्तों का त्याग कर दिया और सुंदर पीले फूल धारण कर लिया।क्योंकि कुछ पाने के लिए कुछ तो खोना ही पड़ता है।जब मुझे खिला देखकर लोग मुस्कुराते हैं।तो उन्हें देखकर मैं भी अपने गम भूल जाता हूँ,और हमेशा मुस्कुराता हूँ.औरों की खुशी में खुश होना और किसी के दुख से दुखी होना यही इंसानियत है।"

(संलग्न फोटो इंटरनेट से)

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"

||सत्ते आय कि नइ?||

मनुक आस तुय डंड होतो के नी डर,
गागलोय बीता तो एक दिन हासेसे.

भात-पेज देस खुबे मया कर हुनके मांतर,
बयहा होलो ने कुकुर घरबीताय के चाबेसे.

मीटे-मीट मंजा नी दय ना भाई जीवना ने.
रोजे चाकलेट खादलोने ने दात कुहुन जाएसे.

जमाय काम करा ना तुमि सहीं समया ने,
बत्तर मोहका ने बुनलो धान झटके जागेसे.

आपलो मन भीतर होउक नी दिहा काना,
बेड़ा चो पार फुटलोने ने पानी कहाँ थेबेसे.

करम करा रोजे ओगाय बसुन नी रहा,
रोजे काम ने एतो कडरी छक-छक लागेसे.

सब लगलासत खेलतो ने आपलो मोबइल के,
अरु बलसत आमके आजकल कहाँ फाबेसे.

अशोक नेताम "बस्तरिया"

||याद आता है बचपन||

(पुरी की यादें)

मिडिल स्कूल और हाई स्कूल की दूरी लगभग 100 मी. की रही होगी.हम कक्षा 6 में पढ़ते थे और पिताजी की ड्यूटी हाई स्कूल में थी.कभी-कभी पिताजी साइकिल से ड्रम में स्कूल के लिए पानी ले जाते हुए दिख जाते थे.

उस समय बाँटी यानी कि कंचे का खेल बच्चों के सिर चढ़कर बोलता था.हमारी सारी जेबें कंचों से भरी होती थीं.पैसे जीतने के खेल भी मजे से खेले जाते थे.ये दो तरह के खेल थे जिनमें से एक गोच्चा और दूसरा गब्भा कहलाता था.वैसे यह खेल यह एक तरह से जुआ ही था,पर था बड़ा मज़ेदार.
मिडिल स्कूल के ठीक सामने कुछ पथरीला और झाड़ीनुमा क्षेत्र था, जहाँ रोज 5-6 जगहों पर पैसों का ये खेल चलता था.इन खेलों में सिक्के दाँव पर लगाए जाते थे.मैं भी रोज उस खेल में शामिल होता था.कभी जीत हाथ लगती थी,और कभी हार.पर खेल में मुझे बहुत मजा आता था.
एक दिन स्कूल के शिक्षकों ने आठवीं पढ़ रहे बड़े लड़कों के साथ हमारे अड्डों पर छापा मारा.सभी इधर- उधर बेतहाशा भागे.पर सारे खिलाड़ी पकड़ में आ ही गए.
पूछताछ के लिए खड़े किए गए लगभग 30-35 बच्चों में एक मैं भी था.जब शिक्षक मुझे दण्डित  कर रहे थे,उसी समय पिताजी साइकिल के कैरियर में पानी का ड्रम दबाकर हैंडपम्प से स्कूल वापस जा रहे थे.उन्हें देखकर मुझे बड़ी ग्लानि हुई.लगा कि माता-पिता अपने बेटों के सुखद भविष्य के लिए क्या क्या नहीं करते,और एक मैं हूँ जो ऐसे काम कर रहा हूँ,जिनसे उन्हें शर्मिंदा होना पड़ रहा है.फिर मैंने वो खेल हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ दिया.

अपने पिता पर मुझे गर्व है.आज यदि दो-चार लोग मुझे मेरे नाम से जानते हैं तो उसके पीछे पिताजी के संघर्ष और परिश्रम ही मूल कारण हैं.

प्रत्येक मानव को ऐसे कर्म करने चाहिए कि जिनसे उनके माता-पिता और मातृभूमि को सम्मान मिले,जिनसे अपनों की छाती चौड़ी हो जाय और और सभी का सिर गर्व से ऊँचा उठ जाय.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||गाँव का जीवन||

अभी गाँव में रहते हुए शुद्ध देशी-ग्रामीण जीवन जीते हुए अत्यंत आनन्द का अनुभव कर रहा हूँ.अपनी माटी और अपने लोगों के साथ रहने का सुख संभवत: संसार का सबसे बड़ा सुख है.गाँव में करंज का दातौन करने और प्रकृति प्रदत्त दोने पत्तलों में खाने का अपना मजा है.आजकल माँ के हाथों से बने मंडिया पेज,कोइलार भाजी,चेंच भाजी,बेसन अम्मट,रखिया बरी,चार की चिरौंजी जैसे स्थानीय चीजों का भरपूर मजा ले रहा हूँ.बारिश के बाद जंगल में "बोड़ा" के आने का संदेश भी मिला है.
प्रात: जागरण के साथ ही पंछियों के मधुर कलरव से मन प्रसन्न हो जाता है.और गौरेया के तो क्या कहने,ये दिन भर हमारे घर के आँगन में चहकते-फुदकते रहते हैं.साल वनों के सान्निध्य में रहने को मैं अपना परम सौभाग्य समझता हूँ.इन वनों का सौंदर्य अप्रतिम है.
हम लोग कितने खुशनसीब हैं कि जीते जी हमें पेड़ों की छाया तो मिलती ही है बल्कि मौत के बाद भी उनके छाँव की मिट्टी नसीब होती है.

अशोक नेताम "बस्तरिया"

||पतंग||

तंग उड़ रहा था हवा में.
उस मांझे के सहारे,
जिस पर नियंत्रण था एक व्यक्ति का.
हुआ गर्व पतंग को,
अपनी उड़ान-अपनी ऊँचाई पर.
लगा उसे,जैसे वह नाचता हो,
किसी के इशारे पर.
अब वह उड़ना चाहता था,
आकाश में बिलकुल स्वच्छंद.
यही सोचकर अलग कर लिया
उसने खुद को माँझे से.
धीरे-धीरे हवा उड़ा ले गई उसे बहुत दूर .
अंतत: एक सूखे पेड़ की डाल पर फँसकर,
वो पतंग अपना अस्तित्व खो बैठा.

(पतंग आदमी है.जिसके हाथ में माँझा है वह समाज है.
ऊँचाई और उड़ान प्रसिद्धि और सफलता है.मांझा प्रेम या अपनापन है.स्वयं और अपनों के बीच प्रेम की डोर यदि टूट गई तो आदमी अपना वज़ूद खो देता है.)

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

||सोच||

(मेरे इस पोस्ट का उद्देश्य किसी भी समुदाय विशेष को आहत करना नहीं है,लेकिन कई लोगों की मानसिकता ही ऐसी है.)

वह बहुत दिनों बाद ड्यूटी पर आया.

"चैतू तुम स्कूल क्यों नहीं आ रहे थे?पता चला कि तुम आजकल बस शराब के नशे में ही चूर रहते हो."

"हाँ सर!शराब हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है.हमारे रस्मों पर्व-त्यौहारों में ये अनिवार्य है.हम इसके बगैर जीवन की कल्पना नहीं कर सकते, इसलिए हमें 5 लीटर शराब रखने की छूट मिली हुई है.सरकार भी इस पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगा सकती"

"पर नशा व्यक्ति के तन-मन और धन का नाश ही करता है.आवेश में आकर वह कुछ भी कर बैठता है.किसी से अकारण वाद-विवाद और मारपीट कर लेता है."

"हाँ सर.लेकिन ये हमारे अधिकार की रक्षा भी तो करता है.

"कौन सा और कैसा अधिकार?"

"आरक्षण का अधिकार.आपको तो पता ही है कि हमें आरक्षण क्यों मिला है?"

"हाँ!ताकि सदियों से उच्च वर्ग द्वारा शोषित और पिछड़े वर्ग के लोग इसकी सहायता से स्वयं को दूसरों के समकक्ष खड़ा कर सकें.हमारे देश में आर्थिक-सामाजिक समानता आए.ऊँच-नीच की खाई सदा-सदा के लिए समाप्त हो जाए."

"हम यही तो नहीं चाहते.क्योंकि संभव है कल हमारे सम्पन्न और शिक्षित हो जाने पर हमसे हमारा यह महत्वपूर्ण अधिकार छिन जाए.इसलिए हम शराब पीते हैं.हमें स्वयं के स्तर में कोई सुधार नहीं लाना है.हम जैसे हैं,वैसे ही रहेंगे.और शराब तो कभी नहीं छोड़ेंगे."

प्रधानाध्यापक निरुत्तर थे.

✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"

||चिन्तन||


विपत्तियाँ मनुष्य को माँजती हैं,उसे परिष्कृत करती हैं.पर मानव उन्हें अपना दुर्भाग्य समझ बैठता है.कठिनाइयों से लड़कर मनुष्य धैर्यवान और सबल बनता है.असफलता से सीखकर ही वह सफलता की ओर कदम बढ़ाता है.कई बार हम प्रतिकूल परिस्थियों को अपनी पराजय का जिम्मेदार मान लेते हैं.  पर यह सत्य नहीं है.अपनी विफलता के लिए मानव स्वयं  उत्तरदायी होता है.देव स्थलों पर जाने,मूर्तियों पर चढ़ावा चढ़ाने मात्र से सभी प्रकार के सुख,सारी सफलताएँ नहीं मिल जातीं,बल्कि मनुष्य का आत्मबल और अथक परिश्रम ही उसे जीवन में विजयश्री दिलाता है.  श्रीराम चरित मानस के सुन्दर काण्ड की एक चौपाई में तुलसीजी ने अकर्मण्य होकर ईश्वर को पुकारने वालों को धिक्कारते हए कहा है- कादर मन कहुँ एक आधारा.दैव-दैव आलसी पुकारा.  यानी कि कायर दुर्बल और आलसी मनुष्य जिसे स्वयं की शक्ति पर विश्वास नहीं होता वही ईश्वर को पुकारता है.  इसका अर्थ यह नहीं कि हम ईश्वर की सत्ता को नकार दें.हर धर्म,पंथ या संप्रदाय किसी न किसी रूप में ईश्वर की उपस्थिति को अवश्य स्वीकारता है.निस्सन्देह कोई तो ऐसी शक्ति है जो मनुष्य को अच्छे विचार और कर्म करने को और बुराइयों दूर रहने को प्रेरित करती है,(भले ही हम उसकी आवाज अनसुनी कर देते हैं.)वही ईश्वर है. अपने अवगुणों का त्याग करके और सद्गुणों को धारण कर हम उस शक्ति को अपने और भी निकट पाते हैं.   इसलिए हमें चाहिए कि हम विपत्तियों या असफलताओं से डरे नहीं बल्कि दुगुने परिश्रम व दृढ़ विश्वास के साथ प्रयत्न में जुट जाएँ.  ✍अशोक नेताम"बस्तरिया"

चाटी_भाजी

 बरसात के पानी से नमी पाकर धरती खिल गई है.कई हरी-भरी वनस्पतियों के साथ ये घास भी खेतों में फैली  हुई लहलहा रही है.चाटी (चींटी) क...