(मेरे इस पोस्ट का उद्देश्य किसी भी समुदाय विशेष को आहत करना नहीं है,लेकिन कई लोगों की मानसिकता ही ऐसी है.)
वह बहुत दिनों बाद ड्यूटी पर आया.
"चैतू तुम स्कूल क्यों नहीं आ रहे थे?पता चला कि तुम आजकल बस शराब के नशे में ही चूर रहते हो."
"हाँ सर!शराब हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है.हमारे रस्मों पर्व-त्यौहारों में ये अनिवार्य है.हम इसके बगैर जीवन की कल्पना नहीं कर सकते, इसलिए हमें 5 लीटर शराब रखने की छूट मिली हुई है.सरकार भी इस पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगा सकती"
"पर नशा व्यक्ति के तन-मन और धन का नाश ही करता है.आवेश में आकर वह कुछ भी कर बैठता है.किसी से अकारण वाद-विवाद और मारपीट कर लेता है."
"हाँ सर.लेकिन ये हमारे अधिकार की रक्षा भी तो करता है.
"कौन सा और कैसा अधिकार?"
"आरक्षण का अधिकार.आपको तो पता ही है कि हमें आरक्षण क्यों मिला है?"
"हाँ!ताकि सदियों से उच्च वर्ग द्वारा शोषित और पिछड़े वर्ग के लोग इसकी सहायता से स्वयं को दूसरों के समकक्ष खड़ा कर सकें.हमारे देश में आर्थिक-सामाजिक समानता आए.ऊँच-नीच की खाई सदा-सदा के लिए समाप्त हो जाए."
"हम यही तो नहीं चाहते.क्योंकि संभव है कल हमारे सम्पन्न और शिक्षित हो जाने पर हमसे हमारा यह महत्वपूर्ण अधिकार छिन जाए.इसलिए हम शराब पीते हैं.हमें स्वयं के स्तर में कोई सुधार नहीं लाना है.हम जैसे हैं,वैसे ही रहेंगे.और शराब तो कभी नहीं छोड़ेंगे."
प्रधानाध्यापक निरुत्तर थे.
✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"
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