बुधवार, 27 जून 2018

||बेचारा पंछी||

छोड़कर अपना देश.
पंछी जा पहुँचा परदेश.
सोचा उसने कि हजारों मील दूर,
मिलेगा उसे बेहतर भोजन,सुन्दर ठिकाना.
पियेगा वह झर-झर निर्झर का मीठा जल.
और मिलते भी हैं वहाँ,
उसे बड़े रसीले फल,
पीता है वो रोज झरने का पानी.
पर सुख की चाहत में,
उनके अपने उनसे बिछड़ गए.
भले ही वो आज,
मुलायम घास के घोंसले पर सोता है.
पर अपनों को याद करके,
वो वहुत रोता है.
वो सोचता है कि जिस माँ-बाप ने
उसे उड़ना सिखाया.
उन्हें छोड़कर वो,
यहाँ किसलिए चला आया?
आह गाँव में सड़क के किनारे खड़े,
जामुन के उस कोटर में कितना आनन्द था.
जिससे झाँककर देखा करता था
वो बच्चों को स्कूल जाते हुए.
सिर पर बोझा रखे हँसती-बतियाती,
हाट-मंडई जाती हुई औरतें,
कितनी प्यारी लगती थीं.
धान बोने से लेकर काटने तक,
गाँव में त्यौहारों का वो सिलसिला.
माटी तिहार,गोंचा,जत्रा,अमुस,नवाखाई,
दसराहा,दियारी वो कभी सभी का साक्षी था.
उसके दिल का तार फिर से,
अपनी मिट्टी के साथ जुड़ गया.
अब पल भर भी रोक न सका वो खुद को,
पंख खोला और अपने देश को उड़ गया.

अशोक नेताम "बस्तरिया"

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