बुधवार, 27 जून 2018

||जनजातीय भाषा कला व संस्कृति||

छत्तीसगढ़ का बस्तर अंचल प्राकृतिक सौंदर्य व आदिम संस्कृति और सभ्यता के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है.कई ऐतिहासिक-पुरातात्विक स्थलों जैसे मामा भांजा मंदिर,बत्तीसा मंदिर,दंतेश्वरी मंदिर,विष्णु मंदिर,गणेश मंदिर,कोटमसर गुफा आदि यहां अवस्थित हैं.साथ ही हरे भरे साल-सागौन के तथा मिश्रित वन और कल-कल करते झरनों का सौंदर्य पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं.यहां राजकीय भाषा छत्तीसगढ़ी के अलावा गोंडी,हल्बी,भतरी,धुरवी,दोरली आदि भाषाएँ बोली जाती हैं.पर बस्तर संभाग में सर्वाधिक बोले और समझे जाने वाली भाषा हल्बी है.

आइए बस्तर की  प्रमुख जनजातियों के भाषा-साहित्य,कला और संस्कृति पर विस्तारपूर्वक चर्चा करें.

भारत में बसने वाली सभी जनजातियों को 3 भाषा परिवारों के अंतर्गत बांटा जा सकता है-

1. द्रविड़ भाषा परिवार:- द्रविड़ भाषा परिवार के अंतर्गत गोंड जनजाति के विविध वर्ग आते हैं.यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा भाषायी परिवार है.इस भाषा परिवार के अंतर्गत दक्षिण भारत में बोली जाने वाली बोलियां व भाषाएं आती हैं. बस्तर की गोंडी भाषा द्रविड़ भाषा परिवार के अंतर्गत आती है,जोकि महाराष्ट्र,मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में बोली जाती है. इसके बोलने वालों की संख्या लगभग 20 लाख है. किंतु लगभग आधे गोंड ही इस भाषा का प्रयोग करते हैं.

2.मुंडा भाषा परिवार:-मुंडा झारखंड की जनजाति है.इनका मूल स्थान छोटा नागपुर है.इस भाषा परिवार अंतर्गत कोरकू,खड़िया,मवासी,निहाल,कोरबा,बिरहोर,
नगेसिया,तूरीसौंता,माझी एवं मझवार जनजातियाँ शामिल हैं.

3.आर्य भाषा परिवार:- मुंडा भाषा व द्रविड़ भाषा परिवार को छोड़कर अन्य सभी बोलियाँ आर्य भाषा परिवार के अंतर्गत आती हैं.हल्बी बोली भी पूर्वी आर्य भाषा परिवार के अंतर्गत आती है.इसे बस्तरी,हल्बी,महरी व मेहरी भी कहा जाता है.
यह मध्य भारत में लगभग 5 लाख लोगों की भाषा है.

आइए बस्तर संभाग की जनजातियों व उनकी भाषा-बोलियों में लिखे गए साहित्य पर विस्तार पूर्वक चर्चा करें.

1.गोंडी भाषा:-  छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में रहने वाले जनजाति मुरिया व मारिया गोंड हैं.जिनकी भाषा गोंडी है.पर इस भाषा में लिखित साहित्य का बस्तर में अभाव है.पर हाँ अधिकांश अवसरों जैसे जन्म, विवाह,मरनी आदि के रस्मों में गाए जाने वाले गीत गोंडी भाषा में ही होते हैं.गोंडी में महत्वपूर्ण कार्य के लिए दन्तेवाड़ा के सिकंदर खान उर्फ दादा जोकाल का नाम उल्लेखनीय है.जिन्होंने स्कूली छात्रों की सुविधा के लिए पाठ्य पुस्तकों का गोंडी व हल्बी भाषा में अनुवाद किया है.वर्तमान में गोंडी भाषा में उपलब्ध मौखिक साहित्य को लिपिबद्ध कर उनके संवर्धन व संरक्षण की आवश्यकता है.

2.हल्बी भाषा:- पूर्वी हिंदी के अंतर्गत अवधी,बघेली व छत्तीसगढ़ी के साथ-साथ हल्बी भी एक आर्य बोली के रूप में शामिल है.हल्बी बस्तर संभाग में बोली जाने वाली प्रमुख बोली है, जिस पर मराठी व ओड़िया का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है.प्राचाीन समय में बस्तर की राजभाषा रही है.

बस्तर के हल्बी और मराठी में 'उन' प्रत्यय समान अर्थ में प्रयुक्त होता है,तथा संबंध कारक की 'चो' विभक्ति मराठी में चा' ध्वनित होती है.बस्तर के हल्बी बोली में संस्कृत,अरबी और फारसी के शब्द भी तत्सम-तद्भव रूपों में प्रयुक्त होते हैं. हल्बी के साथ उसकी कुछ लोक बोलियाँ जैसे भतरी,चंडारी,मिरगानी,कंबुचई और पंडई भी जुड़ी हुई है.इनमें भतरी बोली सर्वाधिक महत्वपूर्ण है,जो ओड़िया भाषा से संबंध रखती है.
पर मात्र मौखिक अभिव्यक्ति तक सिमट जाने पर भाषा स्वयं में ही सिमट कर रह जाती है.किसी भी बोली का लिखित साहित्य उस बोली को समृद्ध बनाता है व उसे आगे बढ़ाता है. साथ ही लेखन व प्रकाशन का भी परस्पर संबंध होता है.लेखन की दृष्टि से हल्बी व अन्य बोलियाँ पिछड़ी हुई हैं,किंतु लाला जगदलपुरी,देवी रत्न अवस्थी 'करील',ठाकुर पूरनसिंह,हरिहर वैष्णव,रूद्रनारायण पाणीग्राही,शिवकुमार पाण्डेय सरीखे साहित्यकारों ने हल्बी भाषा के साहित्य सृजन का प्रणम्य कार्य किया है.आइए हल्बी भाषा के साहित्य यात्रा पर नज़र डालें.

       
      ||हल्बी भाषा साहित्य व साहित्यकार||

1.ठाकुर पूरनसिंह:- हल्बी बोली के प्रथम रचनाकार होने का गौरव स्व. ठाकुर पूरनसिंह को है.उन्होंने 'भारत माता चो कहनी','छेरता','तारा गीत' शीर्षक पुस्तकों की रचना की. 1937 में उन्होंने राजकीय अमले को हल्बी सिखाने हेतु हल्बी भाषा बोध का भी लेखन किया.उन्हीं की सहायता से  मेजर वेट्टी ने  'ए हल्बी ग्रामर' की रचना की थी.

2. देवीरत्न अवस्थी करील:- देवीरत्न अवस्थी  ने  न केवल हिंदी में साहित्य सृजन किया बल्कि हल्बी बोली पर भी उनका मातृभाषा के समान अधिकार था.उनकी हल्बी कविता 'बास्तानारिन बाई' बहुत ही प्रसिद्ध कविता है.

3.लाला जगदलपुरी:- हल्बी साहित्य को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने में लाला जगदलपुरी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. सन 1936 से लेकर जीवन भर वे साहित्य सेवा में रत रहे.उन्होंने हल्बी के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ी व भतरी में भी साहित्य सर्जना की.उनकी रचनाओं में 'हल्बी लोक कथाएँ','बस्तर की मौखिक कथाएँ'( हरिहर वैष्णव के साथ),'अन्य लोककथाएँ' व  इतिहास व संस्कृति विषयक बस्तर:इतिहास एवं संस्कृति, 'बस्तर:लोक कला संस्कृति प्रसंग' व 'बस्तर की लोकोक्तियां' है.हल्बी में उनकी रचनाएँ हैं 'प्रेमचंद चो बारा कहनी','बुआ चो चिठीमन','रामकथा' व 'पंचतंत्र' हैं.

4.हरिहर वैष्णव:- बस्तर के हल्बी बोली में जनजातीय जीवन शैली व उनकी रीति-रिवाजों,परम्पराओं पर महत्वपूर्ण कार्य किया है बस्तर के माटी पुत्र हरिहर वैष्णव ने.उनकी साहित्य साधना अनवरत जारी है.हरिहर वैष्णव जी के लिये लाला जगदलपुरी कहते हैं – “नयी पीढी से निराशा हाथ लगने के बावजूद नयी पीढ़ी में अप्रत्याशित रूप से कुछ एसे प्रतिभा सम्पन्न और उल्लेखनीय चरित्र मिल ही जाते हैं, जिनकी रचनात्मक सक्रियता पर गौरव होता है---जिनकी तरुणाई में चिंतन की प्रौढ़ता पायी जाती है और जो प्राय: प्रौढों और वयोवृद्धों के चिंतन संगी हुआ करते हैं। उन्हीं में एक नाम हरिहर वैष्णव का भी प्रभावित करता है।.....।इन दिनों बस्तर लेखन एक फैशन की तरह चला हुआ है। तथ्यों की प्रामाणिकता का अभाव आपत्तिजनक नहीं माना जाता। बस्तर लेखन की इस विडम्बना से हट कर भी कतिपय रचना कर्मी बस्तर विषयक सृजन कर्म में लगे हुए हैं, इन में हरिहर वैष्णव का तथ्यात्मक लेखन अपनी अलग पहचान देता है।“
हरिहर वैष्णव जी की रचनाओं में  मोहभंग(कहानी संग्रह)लछमी जगार(बस्तर का लोक महाकाव्य),बस्तर का लोक साहित्य(लोक साहित्य),चलो चलें बस्तर( बाल साहित्य),बस्तर के तीज त्यौहार(बाल साहित्य),राजा और बेल कन्या( लोक साहित्य), बस्तर की गीति कथाएँ(लोक साहित्य),धनकुल(बस्तर का लोक महाकाव्य) बस्तर की धनकुल गीत(शोध विनिबंध)इसके अलावा उन्होंने ककसाड़,घूमर व गुड़दुम साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन किया.
आपको छतीसगढी हिन्दी साहित्य परिषद से “स्व. कवि उमेश शर्मा सम्मान"(2009) तथा दुष्यंत कुमार स्मारक पाण्डुलिपु संग्रहालय, भोपाल द्वारा वर्ष 2010 के लिये “आंचलिक साहित्यकार सम्मान” प्राप्त है साथ ही छ.ग.शासन द्वारा  2013 में आपको "पं.सुंदरलाल शर्मा सम्मान" भी प्राप्त हुआ है.

5.रूद्रनारायण पाणीग्राही:-वरिष्ठ रंगकर्मी व साहित्यकार रूद्रनारायण पाणीग्राही उन चंद साहित्यकारों में शामिल हैं जो हिंदी के साथ-साथ हल्बी व भतरी में उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं.उनकी रचना संसार में गोंचा पर्व,एक महाराज मेरी नज़र में,चिड़खा,ढेला मारु,हल्बी बाल साहित्य व हाल ही में प्रकाशित गदेया है.गदेया बस्तर की लोकोत्तियों,कहावतों व पहेलियों का वृहत् संग्रह है.उन्हें उनकी रचनाओं के लिए कई अलंकरणों,पुरस्कारों व सम्मानों से नवाजा गया है.

6.शिवकुमार पाण्डेय:-मूलत: कवि श्री पाण्डेय ने 1983-84 के आसपास से लेखन आरम्भ किया और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी हिन्दी-हल्बी की रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं।उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं, "रान चो मितान" और "चेन्दरू आरू बाग पिला"। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, नयी दिल्ली से प्रकाशित इस पुस्तक का हिन्दी संस्करण चेन्नई की पाठशालाओं में अतिरिक्त पाठ्य सामग्री के रूप में पढ़ाया जा रहा है। साहित्य की राष्ट्रीय संस्था "साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली" में सबसे पहले हल्बी काव्य-पाठ करने का भी श्रेय श्री पाण्डेय को जाता है। उन्होंने यह काव्य-पाठ 2016 में किया था। उनकी एक और महत्त्वपूर्ण पुस्तक "अबुझमाड़ : इतिहास व संस्कृति" का भी प्रकाशन हो चुका है.'बस्तर चो हल्बा आदिवासी' पूरी तरह हल्बी बोली में लिखी गई पुस्तक है जो कि हल्बा जनजातियों के इतिहास व संस्कृति पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालती है.
गोंडी और हल्बी संस्कृति तथा इनकी वाचिक परम्परा को संकलित, संरक्षित और विस्तारित करने की दिशा में श्री पाण्डेय का योगदान काफी महत्त्वपूर्ण साबित हो रहा है.

7.सोनसिंह पुजारी:-हल्बी जन भाषा में लेखन हेतु सोनसाय पुजारी एक नाम महत्वपूर्ण है. जिन्होंने 27 लोक गीतों की रचना की है.उन्हें हल्बी भाषा से अपार प्रेम है अत: उनकी सभी रचनाओं की भाषा हल्बी है.उनके द्वारा लिखे गए सभी गीत अन्य साहित्यकारों के गीतों पर भारी पड़ जाते हैं.

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि बस्तर में लोक भाषाओं विशेषकर हल्बी में लगातार साहित्य सृजन का कार्य हो रहा है.साथ ही अन्य जनभाषाएँ गोंडी,भतरी आदि को  भी साहित्यिक रुप से समृद्ध करने  के प्रयास हो रहे हैं.

कला:-

बस्तर संभाग में बसने वाली जनजातियों की कलाएँ अनूठी हैं,जो सदैव लोगों के आकर्षण का केन्द्र होती हैं.
आइए उनकी हस्तकला व नृत्य-संगीत कला का अवलोकन करें.

क)हस्तकला

1.काष्ठकला:-छत्तीसगढ़ में काष्ठ शिल्प की समृद्ध परंपरा है. छत्तीसगढ़ जनजातीय जीवन प्रकृति का अन्यतम साथी है.उस का प्रथम अवतरणएवं अंतिम मरण उसी वनांचल में होता है. इसलिए प्रकृति के प्रति उनका प्रेम चिरस्थाई होता है.अपना संपूर्ण प्रेम वह लकड़ी के टुकड़ों पर जब उकेरता है तब वह कास्ठ अप्रतिम शिल्प बनकर अद्भुत कला उत्कर्ष का प्रतीक बनती है.
लकड़ी के फर्नीचरों के अलावा कई तरह की कलात्मक वस्तुएँ बनाते हैं.बस्तर का दंतेश्वरी मन्दिर तो पूरी तरह काष्ठनिर्मित मंदिर है.जो यहाँ की काष्ठकला का उत्कृष्ठ नमूना है.

2.मिट्टी शिल्प:-मनुष्य ने सर्वप्रथम मिट्टी को आकार दिया और यही आकार उसका प्रथम शिल्प बना. बस्तर में मिट्टी की मूर्तियां बनाने का कार्य कुम्हार करते है. छत्तीसगढ़ में बस्तर संभाग के शिल्पकारों द्वारा मिट्टी शिल्प का अति सुंदर कलात्मक अलंकरण इस प्रकार से होता है मानव बेटी का घोड़ा अब बस दौड़ने वाला है यही कलात्मक श्री वैभव बस्तर संभाग की अलग पहचान बनाए हुए हैं पारंपरिक पर्व त्यौहार पर मिट्टी निर्मित सामग्री का प्रयोग बहुतायत मात्रा में होता है.

3.बांस शिल्प:-बस्तर का जनजातीय जीवन बाँस को शिल्प के रूप में उकेरकर संपूर्ण देश में अपनी आकर्षक लोकशिल्पकला का परिचय प्रस्तुत किया है.बांस के झुरमुटों के बीच जिंदगी जीने वाले आदिवासियों ने बाँस की इतनी सुंदर परिकल्पना कर जीवनोपयोगी वस्तुएं बनाकर अपने अप्रतिम कला शिल्प का उदाहरण दिया है.बस्तर का जनजातीय समूह बांस शिल्प कला के प्रमुख चितेरे हैं.

4.पत्ता शिल्प:-बस्तर में पत्ता शिल्पकारी में जनजाति क्षेत्रों के लोग उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं.वस्तुत: हर जनजातियों के लोक जीवन में पत्तों की महत्ता वैसे ही है जैसे किसी मैदानी क्षेत्र में गाय की.पत्ता शिल्प के माध्यम से पत्तों का निम्नलिखित प्रकार से उपयोग होता है:-
1)जनजातीय क्षेत्रों में साल पलाश,सिंयाड़ी,आम और तेंदू के पत्ते विशेष उपयोगी प्रमाणित होते जा रहे हैं.
2)साल,सिंयाड़ी और पलाश के पत्ते ग्रामीण जीवन में सर्वाधिक उपयोगी माने जाते हैं.इन के पत्तों से पत्तल और दोने बनाए जाते हैं वे इन्हें बांस की सीकों से सीते हैं. आकार के आधार पर इन्हें डोबला या डोबली कहा जाता है.
3)आम के पत्ते कलश में रखने और तोरण बनाने के काम में आते हैं.
4)सिंयाड़ी पत्ते बहुआयामी सृजन को आधार देते आ रहे हैं सिंयाड़ी पत्ते छतोड़ी(फ्रीहैंड हस्त निर्मित छाता) बनाने के काम आते हैं. इसमें इसी के रस्सी का प्रयोग किया जाता है.सिंयाड़ी पत्तों से सनहा(बरसाती)भी तैयार किया जाता है. छतोड़ी ओढ़ने और सनहा पहन लेने पर आदमी बरसात में भीगता ही नहीं है.

बस्तर के पनारा जाति के लोग छीन्द के पत्तों का कलात्मक उपयोग करते हैं एवं जनजातीय जीवन में छीन्द के पत्ते बहुत उपयोगी हैं.विवाह अवसर पर दुल्हा दुल्हन हेतु 'महुड़' यानी कि सेहरा भी छीन्द के नए और मुलायम पत्तों से बनाए जाते हैं.

5.बांस शिल्प:-बस्तर का जनजातीय जीवन बाँस को शिल्प के रूप में उकेरकर संपूर्ण देश में अपनी आकर्षक लोकशिल्पकला का परिचय प्रस्तुत किया है.बांस के झुरमुटों के बीच जिंदगी जीने वाले आदिवासियों ने बाँस की इतनी सुंदर परिकल्पना कर जीवनोपयोगी वस्तुएं बनाकर अपने अप्रतिम कला शिल्प का उदाहरण दिया है.बस्तर का जनजातीय समूह बांस शिल्प कला के प्रमुख चितेरे हैं

6.कंघी कला:-जनजातीय जीवन में कंघियाँ सौंदर्य और प्रेम का प्रतीक मानी जाती हैं.आमतौर पर कंघियों का सदुपयोग हमारा समाज प्रथम प्राथमिकता के आधार पर करता है किंतु जनजातीय जीवन में ये कंघियाँ उनकी सौंदर्य साधना का प्रतीक बन जाने से इस समाज के लोग कंघियों का निर्माण इतनी सुंदरता से करते हैं कि यह निर्माण शिल्प में परिवर्तित हो गया है.
छत्तीसगढ़ की मुरिया जनजाति  कंघियों में घड़ाई के सुंदर अलंकरण के साथ ही है रत्नों की जड़ाई एवं मीनाकारी करने में सिद्धहस्त हैं.

7.धातु कला व लौह शिल्प :-  बस्तर की घड़वा जाति द्वारा धातुओं को शिल्प कला में परिवर्तित किया जाता है.इस जनजाति द्वारा सुन्दर व आकर्षक मूर्तियां बनाई जाती हैं.लोहार जाति द्वारा लोहे की वस्तुओं का निर्माण है बस्तर में माड़िया,मुरिया आदिवासियों के विभिन्न अनुष्ठानों में लोहे से बने स्तंभों के साथ देवी-देवता पशु पक्षी व नाग आदिलकी मूर्तियां प्रदत्त की जाती है. आज राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बस्तर के लौह शिल्प के लाखों प्रेमी व  प्रशंसक हैं.

8.घड़वा कला:-बस्तर की प्रमुख शिल्पकार कसेर जाति के लोग अपनी परंपरागत कलात्मक सौंदर्य भाव के लिए प्रसिद्ध हैं. इनके शिल्प सौंदर्य ने इनके कार्यों पर घड़वा कला के नाम की मोहर लगाकर उनके कलात्मक जीवन को प्रसिद्ध कर दिया है.पीतल,काँसा और मोम से बनी घड़वा शिल्प अपने कल्पना विन्यास में अलौकिक होते हैं. घड़वा वा शिल्प के अंतर्गत देवी- देवता व पशु-पक्षी की आकृतियां तथा त्यौहारों में उपयोग आने वाले वाद्य सामग्री तथा अन्य घरेलू वस्तुएं उपयोगी आती हैं.

ख)नृत्यकला

बस्तर के जनजातियों द्वारा विभिन्न अवसरों पर कई प्रकार के नृत्य किए जाते हैं जिनमें प्रमुख निम्नानुसार हैं-
1.हुलकी नृत्य:- हुलकी पाटा घोटुल का सामूहिक मनोरंजक गीत हैं.इसमें हुलकी मंदरी का प्योग होता है..इसे अन्य सभी अवसरों पर भी किया जाता है इसके गीत नृत्य के मुख्य आकर्षण होते हैं हुलकी पाटा में लड़कियों और लड़के दोनों भाग लेते हैं.

2.मांदरी नृत्य:-  मांदरी नृत्य में मांदर की करताल पर केवल नृत्य किया जाता है.पुरुष नर्तक इसमें हिस्सा लेते हैं उनके गले में मांदरी वाद्य यंत्र होता है.मांदरी नृत्य में युवती भी 'चिटकोली' के साथ हिस्सा लेती हैं.बीच में एक युवक "ढुडरा" बजाता है.यह घोटुल का नियमित नृत्य होता है.

3.करसाड़-यह अबूझमाड़ियों का एक विशेष पर्व है जिसमें गोत्र देव की पूजा की जाती है.इस अवसर पर यह नृत्य बड़े उत्साह से किया जाता है.इस नृत्य के दौरान एक प्रकार की तुरही बजती रहती है जिसे 'अक्कुम' कहते हैं.इस नृत्य को जात्रा नृत्य भी कहते हैं.

4.भतरा नाट:-यह नृत्यप्रधान लोकनाट्य है. इसके नाटक मंडली में 20 से 40 कलाकारों का समूह होता है. ऐसे कलाकारों को 'नाट कुरया' कहा जाता है.वास्तव में भतरा नाट ओड़िया नाट से मिलती-जुलती है.बस्तर संभाग में भतरा नाट का आयोजन प्रमुख रुप से किया जाता है.विस्तृत मैदान में खुले मंच पर ग्रीष्म ऋतु में आयोजित होने वाले भतरा नाट के कथानक प्रमुख रूप से पौराणिक होते हैं,जिसमें मेघनाथ शक्ति,रुक्मणी हरण,लंका दहन, जरासंध वध,कीचक वध,रावण वध,अभिमन्यु वध आदि प्रमुख हैं.इसकी की मुख्य भाषा भतरी होती है.

5.गेड़ी नृत्य:-बस्तर में निवास करने वाली जनजाति में 'घोटुल' की प्रथा है.घोटुल आदिवासियों के सामाजिक संगठन का नाम है.मुरिया युवक लकड़ी की गेंड़ी पर एक अत्यंत तीव्र गति का नृत्य करते हैं जिसे 'डिटोंग ' कहा जाता है.इस नृत्य में स्त्रियां भाग नहीं लेती,केवल पुरुष सदस्य शामिल होते हैं.

6.गौर नृत्य:-बस्तर में माड़िया जनजाति जात्रा नाम से वार्षिक पर्व मनाती है.जात्रा के दौरान गांव के युवक युवतियां रात भर नृत्य करते हैं.इस नृत्य के समय माड़िया युवक गौर नामक जंगली पशु का सींग कौड़ियों से सजाकर अपने शीश पर धारण करते हैं. इसी कारण गौर नृत्य कहा जाता है.वस्तुतः नृत्य वर्षाकाल की अच्छी फसल,सुख और संपन्नता को केंद्र में रखकर किया जाता है.

7.दोरला नृत्य:- यह बस्तर की दोरला जनजाति का प्रमुख नृत्य है.इस नृत्य में स्त्री पुरुष दोनों सहभागी होते हैं.मुख्य रूप से यह एक पारंपरिक नृत्य है जिसमें पुरुष पंचे,कुसमा,रूमाल एवं स्त्रियाँ रहके और बट्टा पहनती हैं.दोरला नृत्या का प्रमुख वाद्य यंत्र विशेष प्रकार का ढोल होता है.

8.मावोपाटा:-यह मुरिया जनजाति का एक अद्भुत शिकार नृत्य है.इस में नवयुवकों द्वारा जंगली भैंसे या सांभर का शिकार किया जाता है.शिकार के किसी अज्ञात स्थान पर छुप जाने के बाद युवक उसे तलाशते हैं और युवतियों से उसका पता पूछते हैं.'युवतियाँ नहीं मालूम है' का जवाब देकर लोक गीत गाती रहती हैं.प्रयास के बाद शिकार मिल जाता है,फिर शिकार का भोजन बनाया जाता है.इस के दौरान लोक वाद्य 'टिमकी' और 'कोटोडका' बजाया जाता है.यह नृत्य कम से कम 1 घंटे तक चलता है.शिकार कथा पर आधारित यह नृत्य बड़ा ही रोमांचक होता है.बस्तर के आदमी जीवन में मुरिया जनजाति का यह लोकनाट्य अपनी संपूर्ण पारंपरिकता के साथ मंच पर प्रस्तुत होता है.यह शिकार कथा बस्तर बस्तर की वास्तविक जीवन का स्वाभाविक स्पंदन है.

9.डंडारी नृत्य:-दक्षिण बस्तर में विलुप्त हो रही डंडारी नाचा की परंपरा को चिकपाल-मारजूम के धुरवा जनजाति के लोग कई पीढिय़ों से सहेजे हुए हैं। राजस्थान की डांडिया शैली से मेल खाती डंडारी नाचा की अपनी खासियत व मिठास है। खास किस्म की बांसुरी 'तिरली' की धुन पर नर्तक लयबद्ध तरीके से थिरकते हैं, तो लोग मंत्रमुग्ध होकर देखते रह जाते हैं।  देवी दंतेश्वरी की सेवा का भाव लिए कलाकार हर साल फागुन मंंडई में बिना नागा पहुंचते हैं।

खपच्चियों का इस्तेमाल :
डांडिया में साबुत डंडियों का इस्तेमाल होता है, जबकि डंडारी नाचा के लिए खास किस्म के पतले बांस की खपच्चियां काम आती है। बांस की डंडियां को बाहर की तरफ चीरे लगाए जाते हैं, जिनके टकराने से बांसुरी व ढोल के साथ नई जुगलबंदी तैयार होती है। बांस की खपच्चियों को नर्तक स्थानीय धुरवा बोली में तिमि वेदरी, बांसुरी को तिरली के नाम से जानते हैं। तिरली को साध पाना हर किसी के बूते की बात नहीं होती। यही वजह है कि दल में ढोल वादक कलाकारों की तादाद ज्यादा है, जबकि इक्के-दुक्के ही तिरली की स्वर लहरियां सुना पाते हैं।

सीटी से बदलता स्टेप-नृत्य के दौरान ही मुंह में सीटी दबाए नर्तक का संकेत पाकर दल फुर्ती से स्टेप बदल लेता है। कलाकारों की मानें तो छोलिया डंडारा, मकोड़ झूलनी, कुकुर मूतनी, सात पड़ेर, छ: पड़ेर मिलाकर कुल 5  धुन बजाई जाती है। सभी के अलग-अलग स्टेप तय हैं। डंडारी नाचा में महिलाएँ भी शामिल होती हैं.

संस्कृति:-
बस्तर की जनजातियों में ऐसी कई मान्यताएँ,रीति-रिवाज व परम्पराएँ हैं जो उन्हें एक अलग पहचान दिलाती हैं.उनका रहन-सहन उनकी पुरातन संस्कृति सचमुच अद्वितीय है.आइए उनकी आदिम संस्कृति पर नज़र डालें.

1.घोटुल:-  बस्तर की गोंड मुरिया जनजाति विगत कई वर्षों से शोध का अनुसंधान केंद्र बनी हुई है.वेरियर एल्विन ने 1941 से 1947 तक इस जनजाति का सूक्ष्म विवेचन किया था.मुरिया जनजाति का सांस्कृतिक संस्थान घोटुल अपनी प्रजाति के सामाजिक और धार्मिक जीवन का प्रमुख केंद्र है.घोटुल मुरिया जनजाति का युवागृह है जिसमें अविवाहित युवक-युवतियों को ही प्रवेश दिया जाता है.इसमें पुरुष सदस्यों को चेलिक एवं महिला सदस्य को मोटियारी कहा जाता है.चेलिकों का मुखिया सिरदार व मोटियारिनों की सरदार बेलोसा कहलाती है.उनके देवता का नाम 'लिंगो' है.

बस्तर में घोटुल एक समन्वयकारी संस्था है,जो वनवासियों के सांस्कृतिक अतीत को सबल बनाती है.यहां मुरिया युवक-युवतियां भावी जीवन की तैयारी करते हैं.यहां वे एक दूसरे की भावनाओं और विचारधाराओं को समझने का प्रयास करते हैं. गोकुल में जब इन्हीं युवक युवतियों की जोड़ी बन जाते हैं और आगे चलकर जब विवाह करना चाहे तो इसकी सूचना 'सिरदार' को दी जाती है. विवाहित जोड़ों को गोकुल में जाना प्रतिबंधित रहता है.
इस प्रकार घोटुल एक अनुशासन पूर्व संस्था है इसमें शर्म अनुशासन व मनोरंजन का अद्भुत समन्वय होता है.

2.गोदना:-वनवासियों का प्रमुख श्रृंगार गोदना है.यह वह अलंकरण है जिसके बिना आदिवासी महिला का जीवन अपूर्ण माना जाता है.बस्तर अंचल में वनवासी स्त्रियां 5 वर्ष की आयु से लेकर 12 वर्ष की आयु तक गोदना गुदवाती हैं.वनवासियों में यह धारणा है कि यदि किसी महिला ने गोदना श्रृंगार नहीं किया तो मृत्यु उपरांत उसे डुमा(मृतक आत्माएँ)अपने साथ नहीं मिलातीं.जनजातियों में गोदना एक लोक संस्कार है.

3.जन्म संस्कार:- आदिवासी शिशु जन्म को प्राकृतिक घटना मानते हैं गोंडी से झलना देवी एवं दूल्हा देव की कृपा मानते हैं.ये घर पर प्रसव पर विश्वास करते हैं.6 दिनों तक माता अपवित्र मानी जाती है. छठवें दिन छठी पूजन मनाया जाता है.महिलाएँ तिल-गुड़ कूटकर मीठा कोंडा (दलिया)बनाती हैं.जिसे केवल औरतें खाती हैं.

4.नामकरण संस्कार:- नामकरण संस्कार या छठी बच्चे के जीवन का पहला संस्कार होता है.जिसे विभिन्न जनजातियां अलग-अलग जाति पर संपन्न करते हैं बच्चे का नाम नदी,पहाड़,दिन,महीना,ऋतु या विशिष्ट अवसरों के नाम या उसके रंग रूप के आधार पर रखा जाता है- चैतू,जेठू,मंगली,समवारीन,ठोठा,मस्सू आदि.नामकरण के दिन घर को साफ किया जाता है माता स्नान करती है तथा मिट्टी के नए बर्तन लाए जाते हैं गोंड जनजाति के लोग अपने बच्चों को नामकरण में दिए गए नाम से संबोधित नहीं करते उसका एक नाम रख लेते हैं. नामकरण संस्कार गोंड जनजाति में गाँयतिन या पुजारिन की सहायता से किया जाता है.

5.विवाह संस्कार:-जनजातियों में कई प्रकार के विवाह प्रचलित है.जैसे पैसा मुंडी आना,पानी उड़ेलना,लमसेना बिहाव आदि.गाँव का प्रमुख गायँता-पुजारी इसे संपन्न कराते हैं.सामान्य विवाह के पूर्व सगाई की रस्म संपन्न होती है जिसे 'माहला' कहा जाता है.इसमें गुड़ व चिवड़ा लेकर लड़का पक्ष वाले लड़की के घर जाते हैं.
लमसेना में वर सास-ससुर के घर रहकर उनकी सेवा करता है.

6.मृतक संस्कार:-आदिवासी में मृतक को दफनाते हैं.उसके कब्र पर उसके कपड़े व उनके उपयोग की वस्तुओं को भी छोड़ दिया जाता है.यदि कोई व्यक्ति अपने नाती-पोतियों का मुख देखकर स्वर्गवासी होता है तब उस रात्रि को रात भर 'डुमा गीत' गाया जाता है.
यदि कोई व्यक्ति असामान्य बीमारी से मृत्यु को प्राप्त होता है तो उसे गाँव की सीमा से अलग दफनाया जाता है.

7.मंडई:- बस्तर में आयोजित होने वाली मंडई  देश-विदेश में प्रसिद्ध हैं. मडई में आंचलिक देवता और देवियों का जमघट लगा रहता है.
वहां उनके लोमहर्षक अद्भुत चमत्कारिक दृश्य देखने को मिलते हैं किसी के खड़ाऊ कांटेदार होते हैं तो किसी की कुर्सी कांटेदार होती है तो कई देव कटीले जंजीरों से अपने शरीर को मार रहे होते हैं तो कोई दीए की जलती हुई बत्ती को निगल रहा है.
स्थानीय देवताओं के डोलिया छत्तर,तरास आदि की शोभा बहुत ही आकर्षक होती है. नगाड़ा,तुरही,घंटा आदि  वाद्ययंत्र अपना मधुर कलरव किए हुए होते हैं.

8.जनजातियों के देवी देवता:- जनजातियों के हर गांव में अपने देवी-देवताओं हैं.धार्मिक आस्था और अंधविश्वास का गहरा ताना-बाना इस अंचल में विस्तारित होता है.हर गांव में देवगुड़ी है जहां किसी न किसी देवी शक्ति का निवास है.यह देवी-देवता लकड़ी की पालकी में सिंदूर से सने और रंग-बिरंगे फूलों से ढके विभिन्न आकृतियों वाली मूर्तियों में पाए जाते हैं.देवी देवाओं में प्रमुख हैं-बुढ़ादेव,डोकरीदेव,पाटदेव,भीमादेव हिंलाजिन,तेंलगीन,केसरपालिन,मावली,दुलारदई आदि.कुछ देवी-देवताओं को छोड़कर समस्त को बलि देने की प्रथा है.इन देवी-देवताओं से संबंधित लोग गाँयता,सिरहा,पुजारी आदि होते हैं,जिनका गांव में विशेष मान होता है.

इस प्रकार कह हम सकते हैं कि बस्तर के आदिवासी सीधे-सरल,शांत स्वभाव के व परिश्रमी हैं.यहाँ जनभाषाओं-बोलियों में साहित्य सृजन का कार्य अनवरत जारी है.गीत-संगीत आदिवासी जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है.इनकी शिल्प कला गीत-नृत्य कला अत्यन्त समृद्ध है.इनके पर्व- त्यौहार,रीति-रिवाज,मान्यताएं और परंपराएं भी अपने आप में आश्चर्यजनक और अनूठी है.वर्तमान में लोक भाषाओं को बढ़ावा देने की आवश्यकता है, साथ ही इस भाषा में लिखे गए साहित्य को संग्रहित-संरक्षित करने की आवश्यकता है,ताकि नई पीढ़ी के साहित्यकार वरिष्ठ साहित्यकारों के  ज्ञान व अनुभवों से लाभान्वित हो सकें.साथ ही बस्तर की भाषा-बोली,कला व संस्कृति को भी संरक्षित हुआ संवर्धित करने की महती आवश्यकता है.

✍अशोक नेताम 'बस्तरिया"

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

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