बुधवार, 29 अप्रैल 2020

चाटी_भाजी

 बरसात के पानी से नमी पाकर धरती खिल गई है.कई हरी-भरी वनस्पतियों के साथ ये घास भी खेतों में फैली  हुई लहलहा रही है.चाटी (चींटी) के समान छोटी-छोटी और पंक्तिबद्ध पत्तों के कारण ही ये छत्तीसगढ़ में चाँटी(बस्तर में चाटी)भाजी कहलाती है.
  ये भाजी हर साल खेतों में पहली बारिश के साथ ही अपने आप प्रकट हो जाती है.औरतें इसके पत्तों को डंठल सहित तोड़कर जमा करती हैं और घर में मूंग,उड़द या कुलथी दाल के साथ इससे पकाती हैं.कोंडागाँव सहित आस-पास के गाँवों के हाट-बाजारों में भी ये भाजी  खूब बिकती है.आप भी कभी दाल के साथ जरूर आनंद लीजिएगा चाटी भाजी के लज़ीज स्वाद का.

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

सिवना

#सिवना


खम्हार का पेड़ बस्तर में सिवना के नाम से जाना जाता है.गोंडी में इसका नाम "कुड़सी" है.इसे जहाँ भी रोप दीजिए बड़ी सरलता से और तेजी से वृद्धि करने लगता है.8-10 साल में यह विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेता है.यह इमारती लकड़ी के रूप में प्रयुक्त होता है.इसकी हल्की होती है इसलिए बस्तर में मंदरी आदि निर्माण में भी प्राय: इसी लकड़ी का प्रयोग होता है.
मार्च   महीने में इसके पत्ते गिर जाते हैं इसमें हलके पीले-पीले फूल आ आ जाते हैं.अप्रैल में नए पत्तों के साथ ही डालियाँ फलों से लद जाती हैं.हवा के झोंकों से कच्चे-पके फल जमीन पर गिर पड़ते हैं.इसके फल को पालतू पशु बड़े चाव से खाते हैं.जुगाली कर ये बीज को मुँह से बाहर निकाल देते हैं,जिसे इकट्ठा कर आप बरसात के दिनों में उनसे खम्हार के नए पौध तैयार कर सकते हैं.इसके कठोर बीज को तोड़कर बीच के सफेद वाले को खाया जाता है,जो बड़ा ही स्वादिष्ट होता है.

सिवना का पौध तैयार करना बड़ा सरल है.इसके सूखे बीज जमा कर लें.चौमासे के समय गीली जमीन में बिखेरकर ऊपर मिट्टी डाल लें.कुछ दिनों में पौधे निकल आएँगे.लगभग 10-15 से.मी. की लंबाई होने पर इन्हें छोटी-छोटी थैलियों में डाल लें.फिर जब चाहे तब लगा लें.इसके खेत की मेड़ पर पंक्तिबद्ध लगा दीजिए ये बड़ा खूबसूरत नज़र आएगा.
आदिवासियों के सरनेम प्राय: जीव-जंतुओ या पेड़-पौधों पर आधारित होते हैं.सिवना वृक्ष भी सरनेम के रूप में लिखा जाती है.हमारे राज्य में ही नहीं देश के कई हिस्सों में खन्हार नाम के गाँव बसाए गए हैं.मेरे ससुराल का ही नाम है-#सिवना_भाटा.

अशोक कुमार नेताम

#सोली_पैली


जैसे भार ग्राम में,तरल पदार्थ लीटर और लंबाई मी. में मापी जाती है.बस्तर में अनाज आदि मापने में आज भी प्राय:सोली-पैली का उपयोग किया जाता.कई लोग इसके लिए "पयली" या 'पायली'' भी उच्चारित करते हैं.
बस्तरिया हाट-बाजारों में महुआ,चावल,दाल,उड़द,
कुलथी,चना,चिवड़ाआदि प्रति पैली/सोली की दर से विक्रय किया जाता है.

सोली छोटा पैमाना है जो लगभग 8 से.मी. व्यास व 11से.मी. गहरा पात्र है जिसमें लगभग 500 ग्राम अनाज समाता है.

वहीं पैली लगभग 14 सेमी व्यास व 15 से.मी. गहरा होता है.तथा इसमें 4 सोली अनाज बड़े आराम से आ जाता है.

अनाज आदि उपज को भी बस्तरवासी प्राय: पैली से मापते हैं.20 पैली का माप यहाँ 1खण्डी कहा जाता है.किसी ने कहा कि मेरे घर 5 खण्डी उड़द हुआ यानी कि मतलब हुआ कि उसके यहाँ 5×20=100 पैली उत्पादन हुआ.

बस्तर में अन्न आदि के विनिमय के लिए प्राय: यही मापन यंत्र प्रयुक्त होते हैं.

हल्बी में एक मुहावरा भी है-आपलोय पैली के भरतो यानी दूसरों की न सुनकर,केवल अपनी हाँकना.

अशोक कुमार नेताम

भृंगराज

दो-तीन दिन की आड़ में हो रही हल्की बारिश के चलते आजकल खेतों में कई प्रकार की वनस्पतियाँ उग आईं हैं.उनमें से एक ये  घास है,जो चौड़े घास के साथ जमीन पर फैली है तथा इसके एकदम पतले डंठल ऊपर की ओर उठे हैं,जिसमें सफेद-पीले बड़े ही खूबसूरत फूल लगे हैं.सैकड़ों फूल हवा के साथ लहराते दिख रहे हैं.

हमारी माँ चारे काटने के साथ इसे भी हाथों से खींचकर जमा कर रही हैं,क्योंकि बैल इसे बड़े चाव से खाते हैं.ये क्या है?पूछने पर वो कहती हैं कि ये "लाटा" यानी कि एक तरह का खरपतवार है.वैसे ये भृंगराज है.जिसे घमरा भी कहा जाता है.प्राय: बालों के पोषण के लिए प्रयोग होने वाले उत्पादों में इसके तेल का प्रयोग किया जाता है.
आपको इसके औषधीय प्रयोग संबंधी कई तरह की जानकारियाँ इन्टरनेट व यू ट्यूब पर बड़ी आसानी से मिल जाएँगी.

यू ट्यूब की एक लिंक हम भी साझा कर ही देते हैं.

https://youtu.be/px35I_SvkR0

अशोक कुमार नेताम

नागरमोथा

खेत में खड़ा सूरज की रोशनी में ये #नागरमोथा
बिल्कुल सोने की तरह चमक रहा था.
 माँ के अनुसार स्थानीय बोली में ये #बरहा_लाटा है.ये पौधा कुछ-कुछ केसुर/केसरवा कांदा के पौधे के सदृश दिखाई देता है.बरसात के दिनों में ये बाड़ियों-मैदानों में गहरे हरे रंग की पत्तियों के साथ प्रकट हो जाते हैं.पौधे के जमीन के नीचे छोटा सा कंद पाया जाता है,जो बड़ा ही मीठा और दिव्य गंधयुक्त होता है.इसके कंद की खुशबू से ही इसके बड़े उपयोगी व औषधीय महत्व का पौधा होने का आभास हो जाता है.आप इसके उपयोग आदि के बारे में इंटरनेट पर और अधिक जानकारी हासिल कर सकते हैं.
फिलहाल तो हम बताते हैं कि इसे बरहा लाटा या बरहा कांदा क्यों कहा जाता है?बरहा यानी कि सूकर या वाराह.
प्राय: बाड़ी आदि में सूकर लगातार मिट्टी में आपना मुँह गड़ाए चलता जाता है.इस दौरान वह इसके कंद की ही तलाश करता है.व उसे खाता है.

अशोक कुमार नेताम

पेंग भाजी

#पेंग_भाजी

बस्तर की बहुत ही प्रसिद्ध जंगली लता.हर बस्तरवासी ने कम से कम इसका नाम तो सुना ही होगा.और भाजी भी जरूर खाई होगी?पेंग और बस्तर गोंचा(रथ यात्रा)का संबंध तो सर्वविदित है.इस दिन बाँस से बनी तुपकी के साथ पेंग के बीज का प्रयोग गोली के रूप में किया जाता है.आजकल जंगल में साल आदि के पेड़ों से लिपटी पेंग की लंबी-लंबी लताएँ,हरे-हरे पत्ते और हवाओं के साथ झूलते इसके फूल बड़े ही खूबसूरत दिखाई दे रहे हैं.

इसके फूलों व मुलायम पत्तियों को डंठलसहित तोड़ लिया जाता है.फिर धोकर सीधे सब्जी बनाई बनाई जाती है.बस्तरवासी प्राय: इससे "अम्मट'' बनाते हैं.जुलाई के  महीने में फूल की जगह हरे-हरे पेंग के गुच्छे लटकने लगते हैं.कुआँर महीने के आस-पास ये पक जाते हैं.इसके बीजों से तेल निकाला जाता है,जिसका रंग लाल और स्वाद कड़वा है.इसके तेल का प्रयोग शरीर के अंगों की मालिश में किया जाता है.

यदि ये वनस्पति आपको मिले तो इसकी भाजी के स्वाद का मज़ा जरूर लीजिएगा.

अशोक कुमार नेताम

रविवार, 2 फ़रवरी 2020

ऑटोवाला

"कितने रुपये हुए?"
ऑटो ये उतरते ही मैंने पूछा.

"पैसे नहीं लूँगा भैया."

"क्यों?"

"लगभग एक महीने पहले जब आपकी गाड़ी छूट गई थी,तब ऑटो से पीछा कर मैंने आपको बस तक पहुँचाया था.चिल्लर न आपके पास थी और न मेरे पास.इसलिए आपके बीस रुपए मेरे पास ही बाकी रह गए थे."

"ओह आपने याद रखा?"

"हाँ भैया.क्योंकि वो आपके पसीने की कमाई का हिस्सा था.और दूसरे की कमाई कहाँ फलती है."

"अपना नाम बताइए.मैं आपकी ये कहानी दूसरों तक जरूर पहुँचाऊँगा."

पर उसने नाम बताने से साफ मना कर दिया.

"अगर मैं दोबारा न मिला होता तो?"मैंने आखरी सवाल किया.

"तो इन रुपयों से मैं कलम या चॉकलेट लेकर बच्चों में बाँट देता."

तब तक उसे दूसरी सवारियाँ मिल गई,जिन्हें बिठाकर वो मुस्कुराता हुआ आँखों से ओझल हो गया. 

अशोक कुमार नेताम

गुरुवार, 23 जनवरी 2020

//हल्बी पर चर्चा//

छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में हल्बी भाषा का व्यापक प्रभाव रहा है.यह पूर्वी हिन्दी के अंतर्गत आने वाली भाषा है,जो कि महाराष्ट्र,मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़ ओड़ीसा व आँध्र प्रदेश में बोली जाती है.हल्बी में मराठी व ओड़िया प्रभाव दिखाई देता है.ये हिन्दी के एकदम निकट है.वैसे तो यह मूल रूप से हल्बा जनजाति से संबंध रखती है,पर जातीय अवरोधों को ध्वस्त कर इसने अपनी लोकप्रियता और मधुरता से प्रत्येक वर्ग के लोगों के हृदय में अपनी खास जगह बनाई है.हल्बी का प्रचलन सम्पूर्ण बस्तर संभाग है,हालाँकि कांकेर जिले में इसका प्रसार बहुत कम है.राजशाही के समय तो यह बस्तर रियासत की राजभाषा थी.

व्यापक क्षेत्र में व्यवहृत होने के कारण अलग अलग स्थानों में इसका स्वरूप बदल जाता है.

केशकाल के आस-पास छत्तीसगढ़ी के साथ मिलकर यह अलग ही रूप धर लेती है.इसे "बस्तरी भाषा" माना गया है
इसे निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है
हल्बी:-काय साग खादलिस ना?
छत्तीसगढ़ी:का साग खाए जी?
बस्तरी:काय साग खाए ना?

एक और उदाहरण देखिए

हल्बी:-खमन ने टेमरु पान टुटाउकलाय जाउन रलूँ.
छत्तीसगढ़ी:-जंगल म तेंदू पत्ता टोरे ल जा रेहेन.
बस्तरी:-खमना में टेमरु पान टुटायला ला जाय रहेन.

छत्तीसगढ़ी का र यहाँ ड़ बन जाता है.जैसे बोकरा से बोकड़ा,कुकरी से कुकड़ा,तगारी=तगाड़ी,पैरी से पैंड़ी आदि.

कोंडागाँव के आस-पास इसका रूप बहुत प्यारा है.दरअसल बात करने का मजा़ भाषा के लहजे में होता है.हल्बी में हिंदी के तत्सम तद्भव के अलावा ऊर्दू/फारसी व अंग्रेजी के शब्द भी हैं-

तत्सम-(छतर)छत्र,(रकत)रक्त,(हाट)हट्ट,नख,देंह(देह),बेलन,आदि.

तद्भव-कुआँ,हाथ,सांझ,बिहाव,रात आदि.

ऊर्दू-लहू/ख़ून/रोज//कंघी/जनाब/काग़ज/वापस/श़ादी/रवाना/चश्मा/असर/दवाई आदि.

अंग्रेजी-सीजन/लाइट/स्कूल/गेट/पास/साइकिल/टाइप आदि.

कुछ स्थानीय शब्दों की खूबसूरती देखते ही बनती है-किरवाँ/हांडा/झुटी/लटलट्टा/राँयछूँय/बुटबुट्टा/लाइफुट्टा/चोरोबोटो/गेतगेत्ता/टाँगरी/लदया/झोरकी/तुनतुन्ना/बाड़न/आदि.

कोंडागाँव के आस-पास हल्बी का एक और सुंदरतम रूप दिखाई देता है.जब अपने से बड़े को सम्मानसूचक शब्द कहते हुए बहुवचन वाक्य का प्रयोग किया जाता है.

हिंदी में हम कहते हैं-आप कहाँ गए थे?
हल्बी का सम्मान सूचक वाक्य होगा-तुमि कहाँ जाउन रलास?
जबकि सामान्य वाक्य-"तुय कहाँ जाउ रलिस" में यही वाक्य बड़ा ही नीरस प्रतीत होता है.

वैसे ही-आइए,बैठिए.बड़े दिनों बाद मुलाकात हुई आपसे.
का सम्मान सूचक वाक्य होगा-इहा.बठा.खुबे दिन पाछे भेट-गाट होतोर होली.

कुछ और शब्द देखिए

आव(आ)-इहा(आइए)
बस(बैठो)-बसा(बैठिए)
कर(करो)-करा(कीजिए)
तुय(तुम)-तुमि (आप)
पियुआस(पीयोगे)-पियुआहास(पीयेंगे).

ओड़िसा के सीमावर्ती क्षेत्र से मिलकर हल्बी का स्वरूप बदल जाता है.यह रूप भतरी कहलाता है.वैसे भतरी एक अलग भाषा है जो कि भतरा जनजाति में प्रयुक्त होती है.ये जगदलपुर के पूर्वोत्तर में प्रचलित है.इस पर ओड़िया का प्रभाव परिलक्षित होता है.

भतरी हल्बी के कुछ उदाहरण देखिए

हिंदी:-मैंने खाना खा लिया है.
हल्बी:-मँय भात खादलें.
भतरी:-मुई भात खायली. 

हिन्दी:-मैं बकावंड बाजार गया था.
हल्बी:-मँय बकावंड हाटट जाउन रलें 
भतरी:-मुई बकावण्ड हाट जाई रली.

हिन्दी:-आपसे मिलकर मुझे बड़ी खुशी हुई.
हल्बी:-तुचो संग भेंट होउन खुबे हरिक लागली ना.
भतरी:-मुई तोर संगे भेट हुई करी मोके खुबे अच्छा लागला ना.

हिन्दी:-तुमने कौन सी सब्जी पकायी है?
हल्बी:-तुय काय साग रांदलिस?
तुई काय साग रांदिली आसित?

भतरी में दिखाया जाने वाला नाटक "भतरा नाट" कहलाता है.रंग-बिंरंगे मंच और चमकीले परिधानों से आवृत्त कलाकारों का अभिनय दिल को छू जाता है.
आपको भतरी भाषा के कई नाटकों गीतों के चलचित्र यू ट्यूब पर मिल जाएँगे.

हल्बी में कई मुहावरे प्रचलित हैं कुछ उदाहरण निम्नानुसार हैं-

आँखी फूटतो=दिखाई न देना(व्यंग्य रूप में)
बेर बुड़तो=सांझ होना.
आइँख कान अंधार होतो=कुछ भी नहीं सूझना.
चिम चाम होतो=सूना हो जाना,अंधकार छा जाना.
परघातो=स्वागत करना.
ठेंगा उतरातो=दंडित करना.
रन भन होतो=छिन्न भिन्न होना.
भूँय/माटी ने पड़तो=मृत्यु को प्राप्त होना.
टोंड बड़हई करतो=केवल जुबान चलाना.
मूंडे मूततो=नालायक/कृतघ्न निकलना.
दुख होतो=शोक होना.
रथ असन टाड़े होतो=स्थिर खड़ा होना.

हल्बी में कई लोकोत्तियाँ भी प्रचलित हैं.
जैसे-
आधा राती गोलो पानी=देरी से काम बिगड़ जाता है.
छुचा के कोन पूछा=जिसके पास कुछ नहीं है,उसे कोई नहीं पूछता.
नानी असन काकड़ा,बड़े-बड़े डाड़ा=छोटी मुँह बड़ी बात.
छेरी चो लेंड़ी चारे चे अंगुर=बिल्कुल पहले जैसी स्थिति में होना.
घरे नइ राँधा,बाहरे भैंसा बाँधा=व्यर्थ का दिखावा करना उचित नहीं है.

ठाकुर पूरनसिंग जी ने सर्वप्रथम 1937 में "हल्बी भाषा बोध" की रचना की थी.2016 में उनके पौत्र विजय सिंह जी ने इसका पुनर्प्रकाशन करवाया.
यह पुस्तक हल्बी सीखने वालों के लिए बहुपयोगी पुस्तक मानी जाती है.
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास द्वारा 
द्वारा प्रकाशित आदरणीय हरिहर वैष्णव जी की  पुस्तक "आइए हल्बी सीखें" भी इस दिशा में मील का पत्थर है.

लाला जगदलपुरी जी हल्बी के प्रथम और पूर्णत: समर्पित साहित्यकार रहे हैं.मौलिक रचनाओं के अलावा उन्होंने प्रेमचंद की कहानियों का हल्बी में अनुवाद भी किया.वहीं हल्बी साहित्य के वर्तमान पितामह हरिहर वैष्णव जी का हल्बी प्रेम व साधना प्रणम्य है,जिन्होंने लछमी व तीजा जगार की वाचिक परम्परा को लिपिबद्ध कर तथा उसे महाकाव्य का रूप देकर इस भाषा को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया है.

हल्बी जानने-समझने बोलने वालों की तादाद लाखों में है.इसके प्रचार-प्रसार में रेडियो का बहुत भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है.संभव है हल्बी में और भी पत्रिकाएँ छपतीं हों पर फिलहाल मुझे जगदलपुर से छप रही पत्रिका "गुड़दुम" की ही जानकारी है.

संपूर्ण बस्तर की भाषा होने के बावजूद हल्बी का माननकीकरण नहीं हो सका है.जो कि दुखद है.इस दिशा में समन्वित और सार्थक प्रयास की आवश्यकता है.

हल्बी हमें जाति,धर्म,संप्रदाय आदि संकीर्णताओं से ऊपर उठाकर सभी को एकता के सूत्र में बाँधती है.आइए हम सब हमारी मातृभाषा और बस्तर की राजभाषा हल्बी पर और स्वयं के हल्बी भाषी होने पर गर्व करें.

(भतरी ने अनुवाद काजे आमचो कुगांरपालया भाई रामप्रसाद मौर्य के खुबे-खुबे धन्यवाद )

अशोक कुमार नेताम

//गाँवों के नाम की कहानी//

बस्तर के गाँवों के नाम की कहानी बड़ी ही रोचक और मज़ेदार होती है.गाँव के नाम के आधार पर उसके विषय में थोड़ा बहुत अनुमान लगाया जा सकता है.ये नाम प्राय: खेत,पर्वत,वृक्ष,फल,पशु,पक्षी आदि पर आधारित होते हैं.आइए हम इस विषय पर थोड़ी सी चर्चा कर लें.
बस्तर में  गाँव के नाम में प्राय: निम्नलिखित शब्द जुड़ते हैं-

1.पुर-पुर यानी कि नगर ऐसे नाम प्राय: शहरों के नाम होते हैं.अपने यहाँ जगदलपुर,नारायणपुर,सिरपुर,
गोविंदपुर,रामपुर,पाढ़ापुर,सिंगनपुर जैसे गाँव/शहर हैं.

2.पुरी:पुर भी लगभग वैसा ही है.बस्तर में भानपुरी,बैजनपुरी,संगारपुरी आदि नाम के गाँव है.

3.गाँव-ग्रामीण क्षेत्र गाँव कहलाता है.जैसे कोंडागाँव,मालगाँव,काटागाँव,बनियागाँव,सातगाँव,पांडे आठगाँव आदि.

4.मेटा- गोण्डी में मेट्टा का मतलब होता है पर्वतीय क्षेत्र.ऐसे गाँव हैं-कस्तूरमेटा,कोहकामेटा,सालेमेटा...आदि.

5.गुड़ा-गुड़ा का वास्तविक अर्थ है घोंसला.मानव के रहने के स्थान को गुड़ा या घोंसला कहा जाना बिलकुल उचित है-गुड़ा के अंतर्गत लोंहड़ीगुड़ा,फरसागुड़ा,चाटीगुड़ा,सिवनागुड़ा आदि गाँव हैं.

6.पारा-पारा का मतलब किसी भाव के अंतर्गत आने वाले इलाके को कहा जाता है जैसै-तोया पारा,गुंजू पारा,जामपारा,गाँयता पारा.

7.बेड़ा-बेड़ा यानी कि खेत.खेती वाले क्षेत्र में गाँवों के नाम इस प्रकार के हैं-कोयलीबेड़ा,जोंधराबेड़ा,भानबेड़ा,तरईबेड़ा

8.मारी-केशकाल क्षेत्र में मारी यानी कि पर्वतीय-पठारी क्षेत्र होता है. ऐसे गाँव हैं-कुए मारी,टाटा मारी,झलिया मारी.

9.भाटा-भाटा यानी कि वनरहित मैदानी भाग.ऐसे गाँव अंतर्गत सालेभाटा,सिवना भाटा,चार भाटा आदि गाँव आते हैं.

1.वाड़ा-वाड़ा का अर्थ भी रहने का स्थान या गाँव होता है.ऐसे गाँव दक्षिण बस्तर में मिलते हैं जैसे  दंतेवाड़ा,गमावाड़ा,हांदावाड़ा,मैलावाड़ा आदि.

11.कोट-कोट यानी कि वन.
चित्रकोट,उमरकोट,रायकोट,कुम्हड़ाकोट.नाम में संभवत: उड़ीसा का असर है.

12.टोला-ऐसे नाम कांकेर जिले में पाए गए हैं.ये प्राय: पेड़ के नाम से जुड़े हैं.मर्का(आम)टोला,कोहकाटोला,सरई(साल)टोला,साल्हे(एक वृक्ष)टोला!

13.गोंदी-संभवत: पहाड़-जंगल का क्षेत्र चारामा के निकट के कहाड़गोंदी,मुंजालगोंदी आदि गाँव.

14.नार-नार का मतलब भी गाँव होता है.जैसे नगरनार,नेतानार,मड़ानार,चोलनार,पालनार,पीरनार,कोड़ेनार,बास्तानार.

15.वाही-कई गाँवों में वाही शब्द जुड़ता है जैसे-जूनावाही,कोचवाही,केरावाही,बासनवाही,सिंगारवाही,घोटियावाही.

16.पाल-पाल भी गाँव ही है,पर शायद जिससे वो क्षेत्र पलता है,उसके नाम पर भी ये नाम रखे गए.गाँवनारायणपाल,सरगीपाल,किलेपाल,गुमियापाल,लखापाल,मोखपाल,कुंदनपालआदि.ऐसे गाँव दक्षिण बस्तर में पाए जाते हैं.

17.वंड-वंड नाम वाले गाँव भी भी वनक्षेत्र वाले प्रतीत होते हैं जैसे गोलावंड,तीतरवंड,बकावंड,सिदलावंड,रेमावंड आदि.

18.गढ़-जिस गाँव की कोई अलग पहचान हो जैसे-छिंदगढ़,अन्तागढ़ आदि.

19.खेड़ा- एक भाई ने बताया था कि खेड़ा किसानों के इलाके को कहा जाता है.ऐसे गाँव कांकेर जिले में हैं जैसे-मैनखेड़ा,खैरखेड़ा

20.पदर-नदी-नाला वाला क्षेत्र पदर कहलाता है.ऐसे गाँवों के नाम हैं-जाड़ा पदर,मुनगापदर,जोंधरापदर,चिड़ईपदर आदि.

21.रास-रास का मतलब भी गाँव/पारा प्रतीत होता है.ऐसे नाम के गाँव दंतेवाड़ा जिले में स्थित हैं-कुम्हाररास,पातररास,कतियाररास,कोरीरास.

22.मुण्डा-बस्तर में विशाल तालाब को मण्डा कहा जाता है.ऐसे नाम हैं-टेढ़मुण्डा,गंगामुण्डा आदि.

23.कन्हार-धनेलीकन्हार,भइँसाकन्हार.

24.पल्ली-गगनपल्ली,गोलापल्ली आदि.

गाँवों में पशुओं के नाम-बैलाडीला,छेरी बेड़ा,भैंसाकन्हार,मस्सूकोकोड़ा,चिड़ईपदर,आदि.

व्यक्ति के नाम-रामपुर,शामपुर,नरोनापल्ली,नाययणपुर,गोविंदपुर आदि.

पेड़ों/फलों के नाम-आमगाँव,जामगाँव,केरावाही,जाड़ापदर,बेलोतीपारा,लिमउपदर,मुनगापदर,कोसुमकसा आदि.

फसल के नाम-जोंधरापदर,उड़ीदगाँव आदि.

प्रत्येक गाँव का नाम प्राकृतिक वस्तुओं से जुड़ा है.क्यों?
क्योंकि मनुष्य प्रकृति का पुत्र है.वन,पर्वत,झरने,पशु-पक्षियों आदि के बगैर वह जीवन की कल्पना नहीं कर सकता.मानव भौतिक सुख चाहे कितना भी अर्जित कर ले,पर जीवन का वास्तविक आनंद तो प्रकृति के सान्निध्य में ही है.

क्या आपके गाँव में भी इनमें से कोई शब्द जुड़ता है?और  भी इस प्रकार के कई नाम हैं,जिन्हें मैं विस्मृत कर गया हूँ,आप मुझे जरूर याद दिलाइएगा.दिलाएँगे न?

अशोक कुमार नेताम

रविवार, 19 जनवरी 2020

//जोहार रिसॉर्ट//

कोंडागांव जिला मुख्यालय राजधानी रायपुर से लगभग 215 कि.मी. दूर,एन.एच 30 पर स्थित है.केशकाल की घाटी,आलोर की लिंगई माता डोंगर की दंतेश्वरी,कोपाबेड़ा का शिवमंदिर-नारियल विकास बोर्ड,भोंगापाल का बौद्ध स्थल जैसे और भी कई पर्यटन स्थल तो यहाँ हैं ही,साथ ही यहाँ कृषि,लोक गीत-संगीत कला संस्कृति व साहित्य से जुड़े महत्वपूर्ण लोगों की जमात भी है.जो कोण्डागाँव को प्रदेश और देश-विदेश में एक विशिष्ट पहचान दिलाता है.आदरणीय हरिहर वैष्णव जी,राजाराम त्रिपाठी जी,खैम वैष्णव जी,जयदेय बघेलजी,टी.एस ठाकुर जी चितरंजन रावल जी,सुरेन्द्र रावल जी सरीखे और भी कई बड़ी हस्तियाँ यहीं से जुड़े हुए हैं.

अब कोण्डागाँव शहर का "जोहार एथनिक रिसॉर्ट" जिले को एक नई पहचान दिलाने वाला है.चिखलपुट्टी कोण्डागाँव में यह रिसॉर्ट बनकर लगभग तैयार हो गया है.जहाँ जाकर व्यक्ति बस्तर की संस्कृति को जी सकता है-शहर के भीतर सुदूर गाँव के लोकजीवन को प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है.यहाँ मुरिया,माड़िया,धुरवा,भतरा जनजातियों  की तर्ज पर सुन्दर आवास बनाए गए हैं साथ ही यहाँ  विलुप्त होती रही जनजातीय उपयोग की वस्तुओं का संग्रह भी किया गया है.कल जाने का अवसर मिला.
कुछ तस्वीरेें.....

अशोक कुमार नेताम

मंगलवार, 14 जनवरी 2020

//हुलकी मंदर-हुलकी पाटा//

आप हैं मेरे श्वसुरश्री बासुदेव मरकाम.आप पुराने समय को,पुरानी परम्पराओं को खासकर प्रथा घोटुल को बहुत याद करते हैं.पर आपको आज की पीढ़ी से थोड़ी नाराजगी है,क्योंकि वर्तमान पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक विरासत से दूर होती जा रही है.लोकगीत-लोकनृत्य आदि की परम्पराएँ लुप्त हो रही है.आपका मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जाति,धर्म भाषा,वेशभूषा,संस्कृति,धरती,जल,वन से प्रेम होना ही चाहिए,उस पर गर्व होना चाहिए.
आदिम परम्परा,संस्कृति,गीत-संगीत व नृत्य प्रेमी श्वसुरजी ने स्वयं ही एक हुलकी मंदर तैयार किया है.बड़े डमरु के आकार का यह मंदर उन्होंने कुड़सी(गोंडी)सिवना(हल्बी) खम्हार वृक्ष से बनाया  है.जिस पर  दोनों ओर चढ़ाए गए खाल को  पटसन के सुतली की सहायता से तानकर बाँधा गया है.इस मंदर से "डु डुंग डु डुंग डु डुंग" इस प्रकार की बड़ी ही सुंदर आवाज आती है.इस वाद्य यंत्र का प्रयोग हुलकी नृत्य में किया जाता है.दीपावाली से 10-12 दिन पहले से लेकर धान कटाई तक गाँवों में हुलकी नृत्य किया जाता है.इस नृत्य में लड़के-लड़कियाँ दोनों भाग लेती हैं.लड़कियाँ कंधों पर हाथ डाले गोल पंक्ति में थिरकती हैं.उसके बीच लड़के एक हाथ में हुलकी मंदर बजाते और गीत गाते हुए नाचते हैं.दीवाली के बाद आस-पास के दूसरे गाँवों में घूम-घूमकर भी हुलकी नृत्य किया जाता है.

फिलहाल सुनिए ससुरजी द्वारा निर्मित हुलकी मंदर की ताल पर उन्हीं के द्वारा गाया गया एक सुंदर सा हुलकी पाटा...

सिल्लप रोले रो रोले रोले रो रोले.
सिल्लप रोले रो रोले रोले रो रोले.
आतिर वातिर नांगर रो बाबु सिलेदार.
कारी कोसुम नांगर रो बाबु सिलेदार.
आतिर वातिर डांडी रो बाबु सिलेदार.
जाति हरंगी डाँडी रो बाबु सिलेदार.
आतिर वातिर जुँआड़ी रो बाबु सिलेदार.
कट कड़सी  जुँआड़ी रो बाबु सिलेदार.

अशोक कुमार नेताम

//चाटी भाजी//

चाँटी भाजी छत्तीसगढ़ की महत्वपूर्ण भाजियों में से एक है.बस्तर में यह "चाटी भाजी" कहलाती है.इस भाजी की कोई खेती नहीं होती बल्कि धान कटाई के बाद थोड़ी सी नमी मिलते ही खेतों में यह अपने आप उग आती है.घास प्रजाति का यह पौधा बिल्कुल दूब की तरह दिखता है.इसके तने गठानयुक्त होते हैं,जो मुख्य जड़ से चारों 10 से 15 से.मी. तक लंबाई में जमीन पर फैले हुए होते हैं.तनों के गांठ से दोनों ओर छोटी-छोटी पत्तियाँ समानान्तर क्रम में लगी हुई होती हैं.इसकी पत्तियाँ चींटी की तरह छोटी,पंक्तिबद्ध व पूरी तरह जमीन से जुड़ी हुई होती हैं,इसीलिए इसे चाटी भाजी कहा जाता है.बचपन में माँ और अपने संगी साथियों के साथ हम खेतों में घूम-घूमक चाटी भाजी खोजा करते थे.कल जब कोण्डागाँव हाट में माताएँ-बहनें चाटी भाजी विक्रय करती नज़र आईं,तब हृदय आनंद से भर गया.कभी आपको चाटी भाजी मिले तो मूँग उड़द,मसूर या कुलथी दाल के साथ इसके स्वाद का आनंद जरूर लीजिएगा.

अशोक कुमार नेताम

चाटी_भाजी

 बरसात के पानी से नमी पाकर धरती खिल गई है.कई हरी-भरी वनस्पतियों के साथ ये घास भी खेतों में फैली  हुई लहलहा रही है.चाटी (चींटी) क...