आप हैं मेरे श्वसुरश्री बासुदेव मरकाम.आप पुराने समय को,पुरानी परम्पराओं को खासकर प्रथा घोटुल को बहुत याद करते हैं.पर आपको आज की पीढ़ी से थोड़ी नाराजगी है,क्योंकि वर्तमान पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक विरासत से दूर होती जा रही है.लोकगीत-लोकनृत्य आदि की परम्पराएँ लुप्त हो रही है.आपका मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जाति,धर्म भाषा,वेशभूषा,संस्कृति,धरती,जल,वन से प्रेम होना ही चाहिए,उस पर गर्व होना चाहिए.
आदिम परम्परा,संस्कृति,गीत-संगीत व नृत्य प्रेमी श्वसुरजी ने स्वयं ही एक हुलकी मंदर तैयार किया है.बड़े डमरु के आकार का यह मंदर उन्होंने कुड़सी(गोंडी)सिवना(हल्बी) खम्हार वृक्ष से बनाया है.जिस पर दोनों ओर चढ़ाए गए खाल को पटसन के सुतली की सहायता से तानकर बाँधा गया है.इस मंदर से "डु डुंग डु डुंग डु डुंग" इस प्रकार की बड़ी ही सुंदर आवाज आती है.इस वाद्य यंत्र का प्रयोग हुलकी नृत्य में किया जाता है.दीपावाली से 10-12 दिन पहले से लेकर धान कटाई तक गाँवों में हुलकी नृत्य किया जाता है.इस नृत्य में लड़के-लड़कियाँ दोनों भाग लेती हैं.लड़कियाँ कंधों पर हाथ डाले गोल पंक्ति में थिरकती हैं.उसके बीच लड़के एक हाथ में हुलकी मंदर बजाते और गीत गाते हुए नाचते हैं.दीवाली के बाद आस-पास के दूसरे गाँवों में घूम-घूमकर भी हुलकी नृत्य किया जाता है.
फिलहाल सुनिए ससुरजी द्वारा निर्मित हुलकी मंदर की ताल पर उन्हीं के द्वारा गाया गया एक सुंदर सा हुलकी पाटा...
सिल्लप रोले रो रोले रोले रो रोले.
सिल्लप रोले रो रोले रोले रो रोले.
आतिर वातिर नांगर रो बाबु सिलेदार.
कारी कोसुम नांगर रो बाबु सिलेदार.
आतिर वातिर डांडी रो बाबु सिलेदार.
जाति हरंगी डाँडी रो बाबु सिलेदार.
कट कड़सी जुँआड़ी रो बाबु सिलेदार.
अशोक कुमार नेताम
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें