गुरुवार, 23 जनवरी 2020

//हल्बी पर चर्चा//

छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में हल्बी भाषा का व्यापक प्रभाव रहा है.यह पूर्वी हिन्दी के अंतर्गत आने वाली भाषा है,जो कि महाराष्ट्र,मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़ ओड़ीसा व आँध्र प्रदेश में बोली जाती है.हल्बी में मराठी व ओड़िया प्रभाव दिखाई देता है.ये हिन्दी के एकदम निकट है.वैसे तो यह मूल रूप से हल्बा जनजाति से संबंध रखती है,पर जातीय अवरोधों को ध्वस्त कर इसने अपनी लोकप्रियता और मधुरता से प्रत्येक वर्ग के लोगों के हृदय में अपनी खास जगह बनाई है.हल्बी का प्रचलन सम्पूर्ण बस्तर संभाग है,हालाँकि कांकेर जिले में इसका प्रसार बहुत कम है.राजशाही के समय तो यह बस्तर रियासत की राजभाषा थी.

व्यापक क्षेत्र में व्यवहृत होने के कारण अलग अलग स्थानों में इसका स्वरूप बदल जाता है.

केशकाल के आस-पास छत्तीसगढ़ी के साथ मिलकर यह अलग ही रूप धर लेती है.इसे "बस्तरी भाषा" माना गया है
इसे निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है
हल्बी:-काय साग खादलिस ना?
छत्तीसगढ़ी:का साग खाए जी?
बस्तरी:काय साग खाए ना?

एक और उदाहरण देखिए

हल्बी:-खमन ने टेमरु पान टुटाउकलाय जाउन रलूँ.
छत्तीसगढ़ी:-जंगल म तेंदू पत्ता टोरे ल जा रेहेन.
बस्तरी:-खमना में टेमरु पान टुटायला ला जाय रहेन.

छत्तीसगढ़ी का र यहाँ ड़ बन जाता है.जैसे बोकरा से बोकड़ा,कुकरी से कुकड़ा,तगारी=तगाड़ी,पैरी से पैंड़ी आदि.

कोंडागाँव के आस-पास इसका रूप बहुत प्यारा है.दरअसल बात करने का मजा़ भाषा के लहजे में होता है.हल्बी में हिंदी के तत्सम तद्भव के अलावा ऊर्दू/फारसी व अंग्रेजी के शब्द भी हैं-

तत्सम-(छतर)छत्र,(रकत)रक्त,(हाट)हट्ट,नख,देंह(देह),बेलन,आदि.

तद्भव-कुआँ,हाथ,सांझ,बिहाव,रात आदि.

ऊर्दू-लहू/ख़ून/रोज//कंघी/जनाब/काग़ज/वापस/श़ादी/रवाना/चश्मा/असर/दवाई आदि.

अंग्रेजी-सीजन/लाइट/स्कूल/गेट/पास/साइकिल/टाइप आदि.

कुछ स्थानीय शब्दों की खूबसूरती देखते ही बनती है-किरवाँ/हांडा/झुटी/लटलट्टा/राँयछूँय/बुटबुट्टा/लाइफुट्टा/चोरोबोटो/गेतगेत्ता/टाँगरी/लदया/झोरकी/तुनतुन्ना/बाड़न/आदि.

कोंडागाँव के आस-पास हल्बी का एक और सुंदरतम रूप दिखाई देता है.जब अपने से बड़े को सम्मानसूचक शब्द कहते हुए बहुवचन वाक्य का प्रयोग किया जाता है.

हिंदी में हम कहते हैं-आप कहाँ गए थे?
हल्बी का सम्मान सूचक वाक्य होगा-तुमि कहाँ जाउन रलास?
जबकि सामान्य वाक्य-"तुय कहाँ जाउ रलिस" में यही वाक्य बड़ा ही नीरस प्रतीत होता है.

वैसे ही-आइए,बैठिए.बड़े दिनों बाद मुलाकात हुई आपसे.
का सम्मान सूचक वाक्य होगा-इहा.बठा.खुबे दिन पाछे भेट-गाट होतोर होली.

कुछ और शब्द देखिए

आव(आ)-इहा(आइए)
बस(बैठो)-बसा(बैठिए)
कर(करो)-करा(कीजिए)
तुय(तुम)-तुमि (आप)
पियुआस(पीयोगे)-पियुआहास(पीयेंगे).

ओड़िसा के सीमावर्ती क्षेत्र से मिलकर हल्बी का स्वरूप बदल जाता है.यह रूप भतरी कहलाता है.वैसे भतरी एक अलग भाषा है जो कि भतरा जनजाति में प्रयुक्त होती है.ये जगदलपुर के पूर्वोत्तर में प्रचलित है.इस पर ओड़िया का प्रभाव परिलक्षित होता है.

भतरी हल्बी के कुछ उदाहरण देखिए

हिंदी:-मैंने खाना खा लिया है.
हल्बी:-मँय भात खादलें.
भतरी:-मुई भात खायली. 

हिन्दी:-मैं बकावंड बाजार गया था.
हल्बी:-मँय बकावंड हाटट जाउन रलें 
भतरी:-मुई बकावण्ड हाट जाई रली.

हिन्दी:-आपसे मिलकर मुझे बड़ी खुशी हुई.
हल्बी:-तुचो संग भेंट होउन खुबे हरिक लागली ना.
भतरी:-मुई तोर संगे भेट हुई करी मोके खुबे अच्छा लागला ना.

हिन्दी:-तुमने कौन सी सब्जी पकायी है?
हल्बी:-तुय काय साग रांदलिस?
तुई काय साग रांदिली आसित?

भतरी में दिखाया जाने वाला नाटक "भतरा नाट" कहलाता है.रंग-बिंरंगे मंच और चमकीले परिधानों से आवृत्त कलाकारों का अभिनय दिल को छू जाता है.
आपको भतरी भाषा के कई नाटकों गीतों के चलचित्र यू ट्यूब पर मिल जाएँगे.

हल्बी में कई मुहावरे प्रचलित हैं कुछ उदाहरण निम्नानुसार हैं-

आँखी फूटतो=दिखाई न देना(व्यंग्य रूप में)
बेर बुड़तो=सांझ होना.
आइँख कान अंधार होतो=कुछ भी नहीं सूझना.
चिम चाम होतो=सूना हो जाना,अंधकार छा जाना.
परघातो=स्वागत करना.
ठेंगा उतरातो=दंडित करना.
रन भन होतो=छिन्न भिन्न होना.
भूँय/माटी ने पड़तो=मृत्यु को प्राप्त होना.
टोंड बड़हई करतो=केवल जुबान चलाना.
मूंडे मूततो=नालायक/कृतघ्न निकलना.
दुख होतो=शोक होना.
रथ असन टाड़े होतो=स्थिर खड़ा होना.

हल्बी में कई लोकोत्तियाँ भी प्रचलित हैं.
जैसे-
आधा राती गोलो पानी=देरी से काम बिगड़ जाता है.
छुचा के कोन पूछा=जिसके पास कुछ नहीं है,उसे कोई नहीं पूछता.
नानी असन काकड़ा,बड़े-बड़े डाड़ा=छोटी मुँह बड़ी बात.
छेरी चो लेंड़ी चारे चे अंगुर=बिल्कुल पहले जैसी स्थिति में होना.
घरे नइ राँधा,बाहरे भैंसा बाँधा=व्यर्थ का दिखावा करना उचित नहीं है.

ठाकुर पूरनसिंग जी ने सर्वप्रथम 1937 में "हल्बी भाषा बोध" की रचना की थी.2016 में उनके पौत्र विजय सिंह जी ने इसका पुनर्प्रकाशन करवाया.
यह पुस्तक हल्बी सीखने वालों के लिए बहुपयोगी पुस्तक मानी जाती है.
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास द्वारा 
द्वारा प्रकाशित आदरणीय हरिहर वैष्णव जी की  पुस्तक "आइए हल्बी सीखें" भी इस दिशा में मील का पत्थर है.

लाला जगदलपुरी जी हल्बी के प्रथम और पूर्णत: समर्पित साहित्यकार रहे हैं.मौलिक रचनाओं के अलावा उन्होंने प्रेमचंद की कहानियों का हल्बी में अनुवाद भी किया.वहीं हल्बी साहित्य के वर्तमान पितामह हरिहर वैष्णव जी का हल्बी प्रेम व साधना प्रणम्य है,जिन्होंने लछमी व तीजा जगार की वाचिक परम्परा को लिपिबद्ध कर तथा उसे महाकाव्य का रूप देकर इस भाषा को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया है.

हल्बी जानने-समझने बोलने वालों की तादाद लाखों में है.इसके प्रचार-प्रसार में रेडियो का बहुत भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है.संभव है हल्बी में और भी पत्रिकाएँ छपतीं हों पर फिलहाल मुझे जगदलपुर से छप रही पत्रिका "गुड़दुम" की ही जानकारी है.

संपूर्ण बस्तर की भाषा होने के बावजूद हल्बी का माननकीकरण नहीं हो सका है.जो कि दुखद है.इस दिशा में समन्वित और सार्थक प्रयास की आवश्यकता है.

हल्बी हमें जाति,धर्म,संप्रदाय आदि संकीर्णताओं से ऊपर उठाकर सभी को एकता के सूत्र में बाँधती है.आइए हम सब हमारी मातृभाषा और बस्तर की राजभाषा हल्बी पर और स्वयं के हल्बी भाषी होने पर गर्व करें.

(भतरी ने अनुवाद काजे आमचो कुगांरपालया भाई रामप्रसाद मौर्य के खुबे-खुबे धन्यवाद )

अशोक कुमार नेताम

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