बुधवार, 27 जून 2018

||याद आता है बचपन||

(पुरी की यादें)

मिडिल स्कूल और हाई स्कूल की दूरी लगभग 100 मी. की रही होगी.हम कक्षा 6 में पढ़ते थे और पिताजी की ड्यूटी हाई स्कूल में थी.कभी-कभी पिताजी साइकिल से ड्रम में स्कूल के लिए पानी ले जाते हुए दिख जाते थे.

उस समय बाँटी यानी कि कंचे का खेल बच्चों के सिर चढ़कर बोलता था.हमारी सारी जेबें कंचों से भरी होती थीं.पैसे जीतने के खेल भी मजे से खेले जाते थे.ये दो तरह के खेल थे जिनमें से एक गोच्चा और दूसरा गब्भा कहलाता था.वैसे यह खेल यह एक तरह से जुआ ही था,पर था बड़ा मज़ेदार.
मिडिल स्कूल के ठीक सामने कुछ पथरीला और झाड़ीनुमा क्षेत्र था, जहाँ रोज 5-6 जगहों पर पैसों का ये खेल चलता था.इन खेलों में सिक्के दाँव पर लगाए जाते थे.मैं भी रोज उस खेल में शामिल होता था.कभी जीत हाथ लगती थी,और कभी हार.पर खेल में मुझे बहुत मजा आता था.
एक दिन स्कूल के शिक्षकों ने आठवीं पढ़ रहे बड़े लड़कों के साथ हमारे अड्डों पर छापा मारा.सभी इधर- उधर बेतहाशा भागे.पर सारे खिलाड़ी पकड़ में आ ही गए.
पूछताछ के लिए खड़े किए गए लगभग 30-35 बच्चों में एक मैं भी था.जब शिक्षक मुझे दण्डित  कर रहे थे,उसी समय पिताजी साइकिल के कैरियर में पानी का ड्रम दबाकर हैंडपम्प से स्कूल वापस जा रहे थे.उन्हें देखकर मुझे बड़ी ग्लानि हुई.लगा कि माता-पिता अपने बेटों के सुखद भविष्य के लिए क्या क्या नहीं करते,और एक मैं हूँ जो ऐसे काम कर रहा हूँ,जिनसे उन्हें शर्मिंदा होना पड़ रहा है.फिर मैंने वो खेल हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ दिया.

अपने पिता पर मुझे गर्व है.आज यदि दो-चार लोग मुझे मेरे नाम से जानते हैं तो उसके पीछे पिताजी के संघर्ष और परिश्रम ही मूल कारण हैं.

प्रत्येक मानव को ऐसे कर्म करने चाहिए कि जिनसे उनके माता-पिता और मातृभूमि को सम्मान मिले,जिनसे अपनों की छाती चौड़ी हो जाय और और सभी का सिर गर्व से ऊँचा उठ जाय.

✍अशोक नेताम "बस्तरिया"

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