एक नर,
निज शीश हाथ धर.
बैठा हताश-निराश,
चित्रकोट प्रपात के तट पर.
जो है संभवत:,
दुर्भाग्य का मारा.
या फिर है वह,
विषम परिस्थियों से हारा.
ताक रहा है वह,
सतत् निर्झर.
बह रही है जो,
करती झर-झर.
हवा में ऊपर उठते,
सूक्ष्म-श्वेत जलकण.
सौंदर्य झरने का ,
है निस्संदेह विलक्षण.
बोला वह तुम्हारा दर्शन करके,
सम्पूर्ण मानव जाति आनन्द पाती है.
तुम्हारे सुंदरता के साक्ष्य में,
सच्चे प्रेम की नींव रखी जाती है.
सदियों से अब तक,
तुम अनवरत बहती हो.
हो निर्जीव तुम किंतु,
सदा सुर्खियों में रहती हो.
हे इंद्रावती यह सत्य कि,
मैं तुमसे पलता हूँ.
किंतु तुम्हारी प्रतिष्ठा से,
मैं जलता हूँ.
बोली निर्झर
ठीक है जलो.
पर क्या तुम जानते हो?
कि मैं कितनी दूर से,
बहकर आती हूं.
कितने पेड़ों,पत्थरों,
और पहाड़ों से टकराती हूं.
तुम क्या जानो कि मैं,
कितनी पीड़ा सहती हूँ.
पर मैं कहती नहीं,
बस चुप ही रहती हूं.
औरों की प्रसन्नता देखकर,
मैं खुद का दर्द भूल जाती हूं.
तभी तो इतनी ऊंचाई से,
मैं हंसते-हंसते गिर जाती हूं.
मेरी सुन्दरता देखकर,
होता है न,जो तुमको अपार हर्ष.
तुम्हें ज्ञात नहीं कि उसके पीछे,
छिपा है,मेरा कितना कठिन संघर्ष.
हे मनुज तुम हार कर भी,
न छोड़ो कभी जीत की आस.
बढ़ाओ अपने मन में,
विजय की और तीव्र प्यास.
नर हो,न निराश होना कभी,
तुम जीवन की विफलताओं से.
अवश्य होगा मिलन तुम्हारा,
तुम्हारी वांछित सफलताओं से.
✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
📞9407914158
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