शुक्रवार, 12 मई 2017

||धरती लोक की यात्रा||


भगवान श्रीहरि शेषनाग की शैया पर लेटे मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे.
माता लक्ष्मी ने उनकी प्रसन्नता देखकर कहा-"प्रभु आप तो यहाँ लेटे-लेटे ही त्रिलोक की बात जान लेते हैं.और एक मैं हूं जो सदियों से आप की सेवा करती आ रही हूँ पर मुझे इसका प्रतिफल ही नहीं मिल रहा है. मैं तो बस एक गृहलक्ष्मी ही होकर रह गई हूं."

"कहो रमा तुम क्या चाहती हो?"

"प्रभु हजारों साल हो गए जब हम दोनों धरती पर गए थे.
कितना आनंद था.वो विविधरंगी सुमन,कल कल बहते निर्झर समूह,हरे-भरे पेड़-पौधे पक्षियों का मधुर कलरव,वो कुंचालें भरते हिरणों का झुंड,वो मनोरम दृश्य तो मैं अब भी विस्मृत नहीं कर पाती.आई  वांट टू गो देयर.चलिए ना स्वामी एक बार फिर धरतीलोक घूम आएँ?प्लीज... |

"अरे रमा ऐसी जिद नहीं किया करते.और कहो तो कि तुमने ये अंग्रेजी शब्द कहां से सीख लिए?"

"नारद जी तीनों लोकों का भ्रमण करते हैं और जब वे यहां आकर धरती की बातें बताते हैं तो बहुधा अंग्रेजी शब्दों का यूज करते हैं. सो मैं भी सीख गई.चलिए ना स्वामी प्लीज."

स्त्रीहठ के समक्ष श्री हरि को नतमस्तक होना पड़ा.

"ठीक है भई. तुम कहती हो तो चलो मैं तुम्हे धरती लोक घुमा लाऊँ.कहाँ चलोगी?"

"चलिए इंद्रप्रस्थ घूम आएं.पिछली बार वहाँ कितना मजा आया था न?"

"हाँ रमा पर तब की बात और थी.अब वहां धर्मराज युधिष्ठिर का शासन नहीं रहा.युग बदल चुका है."
हमें वर्तमान परिस्थिति के अनुकूल सामान्य व्यक्ति की वेशभूषा धारण कर वहां जाना होगा.समझी."

"ओ के स्वामी."लक्ष्मी जी उछल पड़ी.

दोनों ने अविलंब सुंदर स्त्री और पुरुष का वेश धारण कर लिया,और पृथ्वी लोक की ओर प्रस्थान कर गए.

आकाश मार्ग से जाते हुए लक्ष्मी जी ने नीचे देखा और पूछा-"भगवन् आप मुझे कहां ले जा रहे हैं?नीचे तो कोई पेड़ नजर ही नहीं आ रहा है.बस बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं और वाहन ही दृष्टिगोचर हो रहे हैं.और ये ऊपर उठता धूम्रसमूह कैसा है?ओह मुझे तो बड़ा घुटन सा प्रतीत हो रहा है.ये सब क्या है स्वामी?

लक्ष्मी ने प्रश्नों के कई तीर छोड़े.

"अरे लक्ष्मी यह तो वही इंद्रप्रस्थ है.समय बदला और यह दिल्ली बन गई.अब यहां प्राचीन काल की भांति अश्वों,  हस्तियों और रथों का युग नहीं है,बल्कि अब स्वचालित वाहन निर्मित किए जा चुके हैं.जंगल कटकर ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ बन चुकी हैं.यह धुआँ कारखानों से उठा रहा है,जिससे तुम्हें श्वास लेने में परेशानी हो रही है."

अब तक दोनों धरातल तक पहुंच चुके थे.
दोनों दिल्ली के एक फुटपाथ पर पैदल चल रहे थे.

रास्ते में ही एक बड़े से बोर्ड पर लिखा था-वृद्धाश्रम.

लक्ष्मी जी ने पूछा-"स्वामी यह क्या है?"

"लक्ष्मी प्राचीन समय में वानप्रस्थ आश्रम होता था न?यह उसी का परिवर्तित रूप है.पर अब लोग यहां अपनी इच्छा से नहीं आते बल्कि जो सपूत अपने माता-पिता को बुढ़ापे में बोझा समझने लगते हैं न,वे अपने माँ-बाप को यहाँ जबरदस्ती फेंक आते हैं."विष्णु जी ने उत्तर दिया.

"ओह नो! वृद्धावस्था में माता-पिता के साथ ऐसा दुर्व्यवहार?" लक्ष्मी जी के मुंह से निकला.

आगे जाने पर दोनों ने देखा कि एक बड़े से दुकान की खिड़की पर लोगों की लाइनें लगी हुई थीं.लोग एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में एक दूसरे से धक्का-मुक्की और मारा-मारी कर रहे थे.

लक्ष्मी जी ने फिर पूछा-"देव इतने सारे मनुष्य आखिर किस वस्तु की लालसा में पंक्तिबद्ध खड़े हैं?और इनका परस्पर पशुवत् व्यवहार तो मेरी समझ से ही परे है?

श्री हरि मुस्कुराए किंतु उन्होंने कहा कुछ नहीं.
दोनों और आगे बढ़ गए.
आगे उन्होंने देखा कि एक बड़ा सा कथा पंडाल सजा हुआ था.सत्संग चल रहा था,पर वहाँ कुछ गिनती के लोग ही उपस्थित थे.

"देखा रमा कलयुगी मानव का स्वभाव?
सत्संग और जीवनज्ञान प्राप्ति स्थल पर लोग नदारद,और वहाँ अभी हमने देखा कि मधुशाला के बाहर मदिरा के लिए लोग किस प्रकार लड़ झगड़ा रहे थे. है न आश्चर्य?"

"हां स्वामी,सचमुच आश्चर्यजनक."-लक्ष्मी जी ने मुस्कुराते हुए कहा.

आगे एक बहुत बड़ा जैसे महल ही नजर आ रहा था.

"देव यह दैत्य की तरह विशाल और ऊंचा भवन किसलिए  निर्मित किया गया है?इसके शीर्ष तक तो मेरी दृष्टि ही नहीं पहुंच पा रही है."

"देवी लोग इसे शॉपिंग मॉल कहते हैं.यहां सभी प्रकार की उपयोग और उपभोग की वस्तुएं उपलब्ध रहती हैं.जैसे खाद्यपदार्थ,परिधान,श्रृंगार,मनोरंजन आदि की वस्तुएं.यहाँ रजतपट पर चलचित्र आदि भी दिखाए जाते है."

"ओह.यानी कि यहां A to Z वस्तुएँ मिलती हैं.चलिए न स्वामी हम दोनों मॉल होकर आते हैं."लक्ष्मी जी ने विष्णु जी का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचते हुए कहा.
कहा भी गया है कि लक्ष्मी चंचल होती है.

दोनों मॉल के भीतर प्रवेश कर गए.अंदर के दृश्य देखकर लक्ष्मी जी आश्चर्यचकित रह गई.साक्षात् स्वर्ग.चमचमाता हुआ फर्श,रंग-बिरंगी लाइट्स,हर तरह की दुकानें और इस माले से उस माले तक जाने के लिए स्वचालित सीढियां भी.सब कुछ अदभुत था.

दोनों एक ज्वेलरी की दुकान पर पहुंचे.

लक्ष्मी जी ने कहा-"प्रभु मुझे वह गोल्ड नेकलेस चाहिए.खरीद दीजिए न?"

"अरे तुम तो स्वयं लक्ष्मी हो.तुम्हें आभूषणों की भला क्या आवश्यकता है?" श्रीहरि ने प्रतिवाद किया.

"प्रभु मैं वापस अपने लोग जाकर पार्वती और सरस्वती दीदी को दिखाऊंगी कि यह नेकलेस मैंने धरती लोक से खरीद कर लाया है.इसे देखकर तो वे मुझसे जल उठेंगी."

पति और पत्नी के मध्य भाग युद्ध में प्रायः  पत्नी का पलड़ा ही भारी होता है यहाँ भी लक्ष्मी जी की विजय हुई.

विष्णु जी ने अपने हाथ के एक चूड़े के बदले लक्ष्मी के लिए वह चमचमाता हुआ स्वर्ण आभूषण खरीद लिया.
सोने का हार पाकर लक्ष्मी जी फूली नहीं समाईं.
जी भर माल घूमकर वे माल से बाहर आए.

दोनों थक कर एक यात्री प्रतीक्षालय में आराम करने बैठ गए.

एक व्यक्ति लक्ष्मी जी को लगातार घूरे जा रहा था.

"स्वामी आप देख रहे हैं?यह कौन दुष्ट है जो सतत् मुझ पर दृष्टि जमाए है? क्या यही धरती वासियों के संस्कार हैं? धर्मराज का शासन न रहा,तो क्या दिल्ली से धर्म भी सदा के लिए समाप्त हो गया?"

"हां देवी! देख रहा हूं.इसकी ऐसी धृष्टता कि स्वामी के सामने ही उसकी पत्नी पर कुदृष्टि डाले? पर देवी, यह केवल दिल्ली की ही कहानी नहीं बल्कि आज,लगभग हर जगह कोई भी नारी पूर्णत: निर्भया होकर विचरण नहीं कर सकती."

इतने में एक दूसरा और बड़ा खूंखार सा आदमी दोनों के पीछे से गुजरा. लक्ष्मी जी को लगा कि जैसे उसके पीछे कोई हरकत हुई है.पर श्री हरि विष्णु समझ गए कि वह व्यक्ति लक्ष्मी जी का सोने का हार उड़ा ले गया.

"देवी आपका सोने का हार नहीं दिख रहा है?"

"अरे कहां गया मेरा हार?अभी तो मेरे गले में ही था.
जरूर उसी आदमी ने मेरे नैकलेस पर हाथ साफ कर दिया.आप तो अंतर्यामी हैं.फिर आपने ऐसा क्यूँ होने दिया?"

"यदि मैं उस व्यक्ति को रोकता तो तुम धरतीवासियों की वास्तविकता कैसे जान पातीं?चलो और थोड़ी देर पृथ्वीलोक घूम लें?"

"ना-ना स्वामी! मुझे तू धरतीलोक बिल्कुल भी रास नहीं आ रहा है.हिंसा,असत्य,पाप,अत्याचार,अधर्म की दुनिया से श्रेष्ठ तो अपना ही लोक है.शीघ्रातिशीघ्र लौट चलें भगवन्."

"देवी! पृथ्वी लोक के आर्टिफीशियल सुन्दरता से आपका मन भर गया?" श्री हरि विष्णु ने मुस्कुराते हुए कहा.

"आप भी न स्वामी मुझ पर व्यंग कर रहे हैं." लक्ष्मी जी ने हंसते हुए कहा.

और कुछ ही क्षण में दोनों विष्णुलोक में पहुँच गए.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"

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