वो दिन कितने अच्छे थे.
जब हम बच्चे थे.
भोली सी आँखें,मासूम चेहरा,वो तोतली बोली.
वो नीम का पेड़,वो आँगन,वो आँख मिचौली.
खिलौनों के लिए माँ-पिताजी से वो रूठ जाना.
गर्मियों के दिनों में आइसक्रीम-कुल्फी खाना.
न अच्छाई की खबर न बुराई की पहचान.
रहती थी हर वक्त चेहरे पर एक मुस्कान.
थे जैसे राजा हम,अपने मन की ही मानते थे.
क्या लोभ,झूठ,क्रोध, हिंसा,बैर कहाँ जानते थे.
भले ही ज्ञान और अनुभव के कच्चे थे.
वो दिन कितने अच्छे थे.
जब हम बच्चे थे.
वो बचपन,वो गुड़ियों के खेल,वो घरौंदे.
समय के पहिए ने,वो सब कुछ रौंदे.
वे लड़कपन के लम्हे,अब जाने कहाँ बह गए.
सुनहरे क्षण वो,केवल स्मृतियों में रह गए.
थी बहुत खूबसूरत जो,वो कहानी ले गई.
मेरा बचपन छीनकर जवानी ले गई.
काश जीवन का भी कोई रिवाइंड बटन होता.
बालक बनकर मैं फिर से मां की गोद में सोता.
जिद के पक्के,मन के सच्चे थे.
वो दिन कितने अच्छे थे.
जब हम बच्चे थे.
✍अशोक नेताम "बस्तरिया"
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