खूनी धरती के रूप में बस्तर की जमीं,
नामजद हो गई.
अरे ये तो,
हैवानियत की हद हो गई.
घटना के चलचित्र भेजकर उन्होंने तो,
जाहिर कर दिए अपने नापाक मन्सूबे.
पर हम हैं कि अभी तक,
कुम्भकर्णी नींद में हैं डूबे.
जिनका कुछ गया,
बस वही शोर मचाएँ.
क्या मरा हमारा कोई,
कि हम आँसू बहाएँ?
गोलियाँ चलें,रक्त बहें,
चाहे मचे चहुँ ओर हाहाकार.
किसी का बेटा मरे,कोई विधवा हो,
हमें किसी से क्या सरोकार?
बैठे रहें हम इसी राउंडिंग चेयर,
वातानुकूलित कक्ष में.
और शैतान दलते रहें मूँग,
मातृभूमि के वक्ष में.
होती रहे यूँ ही,
इन्सानियत पर वार पे वार.
हम बस शहीदों के आँकड़ों में,
करते रहें सुधार.
आग तो जंगल में लगी है,
हम मीठे सपनों में खोए रहें.
ये जब तक अपने घरों तक न पहुँचेे,
चलो बेशर्मी की चादर ओढ़कर सोए रहे.
✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
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