एक पंडित जी अपने माता-पिता से अलग अपनी पत्नी के साथ रहते थे.वे भगवान राम जी के बड़े भक्त थे.
एक दिन भगवान श्रीरामचन्द्रजी ने पंडितजी के सपने में आकर कहा कि तीन दिन बाद आने वाली राम नवमी को मैं तुम्हें दर्शन दूंगा.किंतु इससे पहले तुम्हें मेरी कुछ परीक्षाओं से गुजरना होगा.
पंडित जी को सपने की बात सत्य प्रतीत हुई.
पढ़ाई के दिनों में उसने कई बार परीक्षाएं दी थी,इसलिए वह दूसरे दिन से ही रामजी के सामान्य ज्ञान इकट्ठे कर,परीक्षा की तैयारी में जुट गया. उसने राम जी की सम्पूर्ण गाथा पढ़ ली,उन्होंने सारे ग्रंथ-पुराण खंगाल डाले और धर्म का सूक्ष्म से सूक्ष्म और विशद से विशद तक की जानकारी प्राप्त कर ली.
तीन दिन बाद रामनवमी तिथि आ गई.
प्रातः काल स्नान कर श्रीफल, पुष्प,चन्दन,आदि पूजन सामग्री के लिए कर वे राम मंदिर में पहुंच.उसने राम जी को पुष्प चढ़ाए,धूप बत्ती जलाई,भगवान को दक्षिणा समर्पित की और ऊंचे स्वर में भगवान की आराधना-आरती की.किंतु भगवान के दर्शन नहीं हुए.
उसने भगवान से पूछा कि-"प्रभु मुझसे कौन सा अपराध हो गया है?मेरी सेवा में कौन सी कमी रह गई है जो आपके दर्शन नहीं हो रहे हैं?
जब ईश्वर की तरफ से कोई उत्तर नहीं मिला तब निराश होकर पंडित जी घर वापस आए.
रात को फिर श्री रामचंद्र जी उसके सपने में आए.
रामचंद्र जी ने कहा कि-"वत्स!तुम तो मेरी परीक्षा में असफल हो गए.तुमने पुस्तकीय ज्ञान तो अर्जित कर लिया पर जीवन के वास्तविक ज्ञान से तुम अभी भी अनभिज्ञ हो."
पंडित जी ने पूछा-" हे प्रभु !मेरी परीक्षा कब हुई?
और यह वास्तविक ज्ञान क्या है?"
प्रभु बोले-"उस दिन जब प्रातः काल तुम मंदिर के लिए निकल रहे थे तब तुम्हारे सामने एक बूढ़ी औरत कटोरा लिए तुमसे भोजन के लिए गिड़गिड़ा रही थी पर तुमने उसे अनदेखा कर दिया.
दूसरे ही दिन जब तुम कहीं जा रहे थे तब रास्ते में एक व्यक्ति अपनी दुपहिया वाहन सहित सड़क पर घायल पड़ा था और सहायता के लिए तुम्हें पुकार रहा था पर तुम्हें जाने की इतनी जल्दी थी कि तुमने वहां रुकना भी उचित नहीं समझा.
और कल ही शहर में एक अंधा व्यक्ति सड़क के किनारे बड़ीे देर तक इस आस के साथ खड़ा था कि कोई उसे सड़क पार करा दे,पर तुमने उसे भी अनदेखा कर दिया.
उन व्यक्तियों के रूप लेकर मैं ही तुम्हारी परीक्षा ले रहा था,पर तुम मुझे पहचान न सके.
मैंने तोे माता-पिता की आज्ञा पाकर सुखों का त्याग कर दिया था,किंतु तुम ने सुखों की खातिर अपने माता-पिता को ही त्याग दिया.
बेटे!मैं पुष्प अर्पित करने,धूपबत्तियाँ जलाने,श्रीफल चढ़ाने और स्तुति करने से प्रसन्न नहीं होता,बल्कि मैं तो मात्र प्रेमभाव का भूखा हूं.जब तुम औरों को अपने से अभिन्न जानोगे.जब तुम्हारा हृदय औरों की पीड़ा से द्रवित होगा.तभी तुम मुझे प्राप्त कर सकोगे."
सपने में ही सही,पर पंडित जी को अब जीवन का वास्तविक ज्ञान मिल गया.दूसरे दिन वह सम्मान सहित माँ-पिताजी को घर अपने ले आया और उसी दिन से ही उसने मानव सेवा रूपी ईश्वर की सच्ची पूजा आरंभ कर दी.
✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
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