एक मानव अपने यौवन में,
बस पाप कर्म में लिप्त रहा.
किया भले कुछ पुण्य किंतु,
ये विषय उसका संक्षिप्त रहा.
चोरी की,असत्य कहा,
हिंसा करी ,मदिरापान किया.
था जीवन अनमोल,मगर वह,
आधा जीवन व्यर्थ जिया.
आई जब वृद्ध होने की बेला,
और बाल होने लगे सफेद.
तब आया समझ में उसे,
जीवन मृत्यु का भेद.
सोचा वह मैं मूढ़-पापी,
काम-क्रोध का त्यजन करुँ.
मोह-माया के पार जाकर,
क्यूँ न,परमेश्वर का भजन करुँ.
पर थी तनिक विडंबना,इसलिए
गया वह एक संत के पास.
मन में थे कुछ यक्ष प्रश्न,
उत्तर की थी आस.
बोला-"इससे पूर्व कि हो जाय,
क्षीण श्रवण-दर्शन की शक्ति.
चाहता हूं भगवन कि,
मैं करुँ ईश्वर की भक्ति."
"पर मन में है एक शंका,
पहले उसका समाधान करूं.
बताइए कि कब से-कैसे,
मैं अपने प्रभु का ध्यान करूँ."
बोले महात्मा-"कुछ दिन और तू,
पाप की सरिता में बह ले.
जिस दिन मरोगे तुम,करना भक्ति शुरु,
ठीक उसी दिन से पहले."
बोला युवक-"जिस तरह जग में,
सब कुछ है अनिश्चित.
वैसे ही मृत्यु भी कब होगी,किसी की,
ये कहां है निश्चित."
"मौत तो चुपचाप ही
एक दिन मेरे निकट आएगी.
सुनेगी कुछ भी न,मेरी वह,
अपने साथ ले जाएगी."
बोले संत-"यह अकाट्य सत्य कि,
मृत्यु कभी भी है आ सकती.
इसीलिए आज से ही तुम,
करो आरंभ,प्रभु की भक्ति."
"उनका सिमरन करते जिस दिन,
तेरा मैं खो जाएगा.
उस दिन तू और तेरा जीवन,
धन्य-धन्य हो जाएगा."
इससे पूर्व कि हम भी इक दिन,
इस जग से प्रस्थान करें.
क्यों न हम भी आज से ही,
प्रभु स्मरण,भजन-ध्यान करें.
✍ अशोक नेताम "बस्तरिया"
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