सोमवार, 17 अप्रैल 2017

||चलो बच्चे बन जाएँ हम||

माँ के सीने से लगकर
घूमें बाजार-मेले.
चलो बच्चे बन जाएँ हम.
फिर मिट्टी से खेलें.

साथियों संग मिल,
चलें नदी  की ओर.
खूब खेलें सूखी रेत में,
बेवजह ही करें शोर.
पानी के भीतर,
छलांग लगाएँ.
मन भर वहां,
देर तक नहाएँ.
मिले यदि कोई विषहीन सर्प,
उसे हाथों में ले लें.
चलो बच्चे बन जाएँ हम.
फिर मिट्टी से खेलें.

खेलें पिट्ठुल,
आंख मिचौली का खेल.
झगड़ें हम फिर,
आपस में कर लें मेल.
कागज की चलो,
पतंग-जहाज बनाएँ.
नीले आसमान में उन्हें,
जी भर उड़ाएँ.
ईंट को गाड़ी बना लें.
फिर पीछे से उसे धकेलें.
चलो बच्चे बन जाएँ हम.
फिर मिट्टी से खेलें.

बना इमली के पेड़ पर झूला,
उस पर हम झूल जाएं.
भूख-प्यास,सुख-दुख,
सब भूल जाएं.
बारिश की पानी में,
तरबतर भीग जाएँ.
आंगन में बहते जल में,
अपने कागज की नाव चलाएं.
क्या बरसात,ठंड,ग्रीष्म.
हर तरह की परेशानियाँ झेलें.
चलो बच्चे बन जाएँ हम.
फिर मिट्टी से खेलें.

जाने कब हम बड़े होंगे,
चलो बड़ों की नकल करें.
कभी गांधी बनें,
कभी विवेकानंद सा वेश धरें.
बैठ कुर्सी पर दादाजी सा,
अखबार पर नजर डालें.
पापा की बंद-खड़ी गाड़ी में बैठ,
गाड़ी की आवाज निकालें.
और माँ की देखा-देखी बेलन में,
हम भी रोटियाँ बेलें.
चलो बच्चे बन जाएँ हम.
फिर मिट्टी से खेलें.

माँ के सीने से लगकर
घूमें बाजार-मेले.
चलो बच्चे बन जाएँ हम.
फिर मिट्टी से खेलें.

✍अशोक नेताम"बस्तरिया"

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