दोनों ओर से चलते भीषण शस्त्र.
है रक्त रंजित भी सबके वस्त्र.
एक विस्फोट,और एक साथ क्षत-विक्षत कई देह.
ये महाभारत ही है,नहीं इसमें कोई संदेह.
हां बिल्कुल ये है महाभारत का ही युद्ध.
जहाँ खड़े हैं कुछ अपने,अपनों के ही विरुद्ध.
पर वह तो लड़ी गई थी,कुरुक्षेत्र की धरा पर.
और यह युद्ध स्थल है,शाल वनों का द्वीप बस्तर.
हैं यहां जंगलों में भी,कुछ दुर्योधन,शकुनि-दुशासन.
चाहते हैं जो शायद शस्त्र बल पर,करना यहाँ शासन.
जो अपनों को ही युद्धाग्नि में झोंक रहे हैं.
असहाय-निर्दोष लोगों पर,अकारण छुरा भोंक रहे हैं.
रोज ही पुत्र या पति खोती है,कोई न कोई नारी.
कभी इस पक्ष का,तो कभी विपक्ष का पलड़ा भारी.
कभी गांधारी अश्रु बहाती है,तो कभी कुन्ती को पीड़ा होती है.
पर बस्तर की भूमि तो,हर दिन,हर क्षण रोती है.
प्रतिदिन दोनों ही धड़ों में,छा जाता है मातम.
किसी निज को खोकर रोज ही,हो जातीं सबकी आंखें नम.
यहाँ कुछ लोग तो अधर्मी हैं ही,
पर जानते हैं इसके वास्तविक खलनायक कौन हैं?
शायद ये भीष्म,कर्ण-द्रोण जैसे लोग,
जो धर्म जानकर भी शांत-मौन हैं.
बस यहां नहीं है तो कोई एक भी,
योगेश्वर कृष्ण सा पथ प्रदर्शक.
मगरमच्छ से अश्रु बहाते,
बैठे हैं बने सब मूक दर्शक.
✍अशोक नेताम"बस्तरिया"
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