जब भी मैं किसी,
नए रास्ते पर निकलता हूं.
तब मन ही मन,
मैं डरता हूं.
सोचता हूं मेरी खुशियाँ,
कहीं खो न जाएं.
चलते-चलते कभी,
मुझे कुछ हो न जाए.
कठिनाइयां देखकर सामने,
मैं झुक जाता हूं.
मंज़िल मिलने से पहले,
मैं रुक जाता हूं.
मुझे ज्ञात है कि बिल्कुल व्यर्थ है,
मेरी ये विकलता.
मैं एक मानव,है अशोभनीय,
मेरी ये दुर्बलता.
इन्हें देखो.
इस चिलचिलाती धूप में,
औरों के लिए भवन बनाते,ये मजदूर.
है भले ही असह्य ये गर्मी पर,
ये हैं अपने हालात से मजबूर.
आश्चर्य कि,तन झुलसाती इस आँच में,
बुधनी मुस्कराती आ रही है.
निकली थी सबेरे-सबेरे ही घर से,
शायद महुआ बीनकर ला रही है.
यह साइकिल में सवार कोई लड़का,
शायद स्कूल या कॉलेज जा रहा है.
सूर्य का तीव्र ताप भी,
इसका रास्ता रोक नहीं पा रहा है.
बिल्कुल निडर,निश्चिंत ये,
सीना भी इसका गर्व से तना है.
ठहरता तनिक तो पूछता मैं,
कि जिगर तुम्हारा,किस फौलाद का बना है.
क्या ये सब रुके?
नहीं न?
जब ये सब नहीं रुके,
फिर आखिर मैं क्यों जाऊं ठहर.
बेहतर है,बेखौफ हो,
मैं पूरा करूं अपना सफर.
✍अशोक कुमार नेताम "बस्तरिया"
Email:-kerawahiakn86@gmail.com
📞9407914158
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें